क्रिसमस पर हम वैसे ही प्रसन्न हैं जैसे कि कोई ईसाई


हर बार विनोबा का एक ही तरह का जवाब होता ‘हां मैं हिन्दू भी हूं, मुसलमान भी हूं, ईसाई भी और सिख भी। कई लोग व्यंग्यात्मक पूछते कि क्या नास्तिक भी अथवा कम्युनिस्ट भी, तो भी वे उसी तपाक से जवाब देते, जी जरूर मैं नास्तिक भी हूं और कम्युनिस्ट भी।


राम मोहन राय
देश Updated On :

संत विनोबा भावे ने अपनी ऐतिहासिक व आध्यात्मिक कश्मीर यात्रा के दौरान अनेक प्रश्नों व भ्रांतियों का निराकरण सहज में ही कर दिया। जब वे वेदो और उपनिषदों के मन्त्र, गीता के श्लोक धाराप्रवाह बोलते तो लोग उनसे पूछते की क्या आप हिन्दू है ? क्योंकि नाम व पहनावे से तो नहीं लगते। जब कुरान शरीफ़ की आयतें बोलते व उनका तरजुमा करते तो लोग पूछते, क्या क्या आप मुसलमान है? पर नाम से तो नही लगते। और फिर जब वे बाइबिल के सरमन बोलते, तो लोगों का सवाल होता कि क्या आप क्रिस्तान है ? भाषा और खानपान से तो नहीं लगते। जब भी अपनी मस्ती में गुरबाणी का पाठ करते तो लोग ऐसा ही सवाल करते।

हर बार विनोबा का एक ही तरह का जवाब होता ‘ हां मैं हिन्दू भी हूं, मुसलमान भी हूं, ईसाई भी और सिख भी। कई लोग व्यंग्यात्मक पूछते कि क्या नास्तिक भी अथवा कम्युनिस्ट भी, तो भी वे उसी तपाक से जवाब देते, जी जरूर मैं नास्तिक भी हूं और कम्युनिस्ट भी।

मेरी गुरु माँ और संत विनोबा की मानस पुत्री दीदी निर्मला देशपांडे इसे बहुत ही रोचक ढंग से बताती थी कि विनोबा कहते थे कि इस समाज में दो तरह के लोग है। एक-ही वाले, जो कहते हैं कि वे फलां धर्म के ही मानने वाले है, इसके एलावा हम किसी को नही मानते। दूसरे- नहीं वाले, जो कहते है की धर्म -मजहब कुछ नहीं होता। यह तो झगड़े की जड़ है, अफीम है आदि।इसलिये हम किसी भी धर्म-पंथ को नहीं मानते। दीदी कहती कि इन दोनों तरह के लोगों के बीच सदा तनाव रहता है, परन्तु इसका निदान ‘भी’ वाले है। जो मानते है कि हम हर धर्म को मानते है। किसी की भी निंदा -आलोचना नहीं करते।

जीवन में हर चीज मिलना तो मुश्किल है परन्तु यदि आपको कोई ऐसा मार्गदर्शक मिल जाए जो पूर्ण हो तो जीवन सफल हो जाता है। इस मायने में हम सौभाग्यशाली है कि हमें निर्मला दीदी जैसे महान व्यक्तित्व का सानिध्य मिला। स्व. दीदी इतिहास की एक महान अध्येता थी।

संत विनोबा की भूदान यात्रा में वे उनके साथ 40 हजार किलोमीटर पैदल चली। इसी दौरान उन्होंने बाबा के सम्पूर्ण वचनों एवम व्याख्यानों का संकलन कर भूदान गंगा का सम्पादन किया। ऐसी महान विभूति के साथ अनेक यात्राओं में साथ रहने का अवसर मिला। ये यात्राएं कई-कई दिनों की रहती थी और उस समय में दीदी को सुनने व जानने का अवसर मिलता। मैं अपने प्रश्न करता और वे जवाब देती।

ट्रेन से हम चेन्नई जा रहे थे,सफर था 32 घण्टे का। अवसर था जेसी कुमारप्पा के जन्म शताब्दी के मुख्य समारोह में भाग लेने का। चार गुना दो की बर्थ पर पूरी तरह क्वारंटाइन रहना होता। जो भी मन मे आता वह सवाल पूछता। एक बार मैने उनसे पूछा कि ईसाईयत तो हमारे देश में अंग्रेज़ों के साथ आई तो क्या यह राजधर्म बनी और फिर उनके जाने के बाद ही क्यों नहीं चली गयी ?

अब दीदी की जवाब देने की बारी थी उन्होंने बताया कि जिसे तुम ईसाईयत कह रहे हो वह तो हमारे देश मे अंग्रेज़ों के भी आने से लगभग अठारह सौ साल पहले आई। हमारे देश के केरल में संत थॉमस ,पहली शताब्दी में ही धर्म प्रचार के लिये आ गये थे। जबकि खुद इंग्लैंड व अन्य यूरोपियन देशों में ईसाईयत उसके बहुत बाद सन 313 ईसवी में आई। बाद में हमारे देश में छठी शताब्दी में मालाबार क्षेत्र में थॉमस दी अपोस्टल आये और उसी के आसपास ही कोंकण क्षेत्र में ब्रोथोलोमयू दी अपोस्टल आये जिन्होंने सत्य, प्रेम, करुणा का संदेश दिया। इसलिये ईसाई धर्म हमारा अपना धर्म है।

उनसे मेरा यह भी प्रश्न रहा कि अंग्रेज़, फ़्रांसिसी, डच व पुर्तगाली जब भारत पर शासन करते थे और वे तो सब ईसाई थे तो क्या भारत के ईसाई राजभक्त रहे या उन्होंने भी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया ? इस पर दीदी के जवाब तथ्यात्मक होते। उन्होंने कहा कि सन 1857 में आज़ादी की पहली लड़ाई लड़ी गयी जिसमे सैन्य सैनिकों के साथ-साथ भारतीय नवजागरण के पुरोधा ज्योतिबा फुले, राजा राम मोहन राय, महर्षि दयानंद सरस्वती जैसे लोगों ने भी जन जागरण का काम किया। उनके अनेक ईसाई धर्माचार्यों से सम्बन्ध थे जिन्होंने मिल कर ईस्ट इंडिया कम्पनी के कुशासन का विरोध किया। इतना ही नहीं सती प्रथा, बाल विवाह, मनुष्य बलि के विरोध में तथा विधवा विवाह के हक में कानून बनाने के लिये अंग्रेज़ी शासन को मजबूर किया।

सन 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक ए ओ ह्यूम तो स्वयं क्रिस्तान थे । कांग्रेस के पहले अधिवेशन में जिन 15 महिलाओं ने भाग लिया था उसमें तीन क्रिस्तान महिलाएं पंडिता रमाबाई सरस्वती, श्रीमती त्रयम्बक और श्रीमती निकाम्बे थी। पंडिता रामबाई तो वेदों की परम विदुषी एवम स्वामी दयानंद की अनन्य प्रशंसक थी। कांग्रेस के नेताओ में प्रमुख रूप से स्टेनली जोंस, सी एफ एंड्रयूज़, जे सी विनसन, वैरियर एल्विन, राल्फ रिचर्ड कितहन और अर्नेस्ट फोरेस्टर सभी तो ईसाई थे। ओडिशा गौरव मधुसूदन दास, बंगाल के काली चरण बनर्जी जैसे सभी लोग धर्म से ईसाई थे परन्तु अंग्रेज़ी शासन के विरोधी भी।

स्व. निर्मला दीदी, प्रसिद्ध गाँधीवादी अर्थशास्त्री जेसी कुमारप्पा की बहुत ही प्रशंसक थी। वे उनका एक वाकया बताती की जब उनके गुरु विनोबा जी उनके झोपड़ी नुमा घर पर मिलने गए तो उन्होंने वहां दो ही चित्र देखे। जिसके बारे में कुमारप्पा ने उन्हें बापू के चित्र दिखा कर बताया कि यह उनके गुरु का चित्र है। दूसरा चित्र के बारे में जिसमे एक गरीब, फटेहाल और बेबस किसान का चित्र दिखा कर कहा कि यह उनके गुरु के गुरु का चित्र है।

उन्होंने ही बताया कि जेसी कुमारप्पा एक ईसाई थे और इनका असली नाम जॉन जेसू डासन कॉर्नवॉलिस था। सन 1931 में बापू के दांडी मार्च के समय जब महात्मा जी गिरफ्तार हो गए तो उन्होंने इन्ही को यंग इंडिया के सम्पादन की जिम्मेवारी दी थी। इसी दौरान 1931 में वे डेढ़ साल तक व बाद में 1932 में गिरफ्तार कर अढ़ाई साल तक जेल भेज दिए गए। सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में उन्हें फिर गिरफ्तार किया गया और ये 1942 से 1945 तक जेल में रहे। बाद में भी स्वास्थ्य कारणों से उन्हें जेल से छोड़ा गया।

दीदी बताती की ईसाइयों की संख्या लगभग अढ़ाई करोड़ है। जिसमे नागालैंड व मिजोरम में जनसंख्या का कुल 90 प्रतिशत, मेघालय में 83 प्रतिशत, मणिपुर में 41 प्रतिशत और अरुणाचल,  गोआ, केरल और तमिलनाडु में 30 से 6 प्रतिशत जनसंख्या है तो फिर ये हमसे अलग कैसे हो गए। इस देश के ईसाई भी उसी तरह नागरिक है जैसे कि अन्य। वे ओडिशा में एक धर्म प्रचारक जॉन अब्राहम व उनके परिवार की हत्या से बहुत स्तब्ध थी और मानती थी कि कोई कैसे इन्हें मार सकता है।

क्रिसमस के इस त्योहार पर हम वैसे ही आह्लादित व प्रसन्न है जैसे कि कोई ईसाई। क्योकि यह हमारा धर्म है और हम ईसाई भी है।