आजादी का अमृत महोत्सव और वंचित तबकों की जीवन-प्रत्याशा


अध्ययन में बताया कि “भारत में 2019 में जन्म के समय जीवन प्रत्याशा पुरुषों के लिए 69.5 वर्ष और महिलाओं के लिए 72 वर्ष थी, जो कि 2020 में क्रमशः 67.5 वर्ष और 69.8 वर्ष हो गई।”


प्रमोद रंजन
देश Updated On :

भारत की आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मनाते हुए यह देखना निश्चित तौर पर प्रासंगिक होगा भारतवासियों की जिंदगियां कितनी लंबी हैं। इस दिशा में भारत ने काफी प्रगति की है। आजादी के साल – 1947 में- एक भारतवासी की जन्म के समय औसत जीवन प्रत्याशा (Life expectancy-from birth) महज 32 वर्ष हुआ करती थी, जो 2020 में बढ़कर 69 वर्ष हो चुकी है।

जन्म के समय जीवन प्रत्याशा की गणना एक वैज्ञानिक पद्धति द्वारा की जाती है, जिसमें  देखा जाता है अगर मृत्यु दर का  मौजूदा पैटर्न भविष्य में भी स्थिर रहता है तो एक नवजात के कितने वर्षों तक जीवित रहने की संभावना है।

भारत की इस दिशा में हुई प्रगति के पीछे विभिन्न चिकित्सकीय सुविधाओं का विकास, बेहतर भोजन की उपलब्धता रही है। हालांकि हम अब यूरोपीय देशों के काफी पीछे हैं, जिनकी जीवन प्रत्याशा 80 से 85 वर्ष के बीच है। वैश्विक रूप से यह लगभग 75.5 वर्ष है। लेकिन इस प्रगति के बावजूद यह देखना अजीब लग सकता है कि आज भी भारत में पैदा हुआ आदमी कितना लंबा जीवन जीएगा, यह इससे तय हो जाता है कि उसने किस जाति में जन्म लिया है।

चर्चित अर्थशास्त्री वाणीकांत बोरा इससे संबंधित एक विस्तृत शोध “Caste, Religion, and Health Outcomes in India, 2004-14” से किया था, जो वर्ष 2018 में इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित हुआ था। नेशनल सेंपल सर्वे (2004-2014) पर आधारित अपने इस शोध में उन्होंने वर्ष 2004 से 2014 के बीच भारतीयों की मृत्यु के समय औसत आयु का अध्ययन किया।

यह अध्ययन बताता है कि भारत में ऊंची कही जाने वाले जातियों और अन्य पिछड़ी, दलित, आदिवासी जातियों की औसत उम्र में बहुत अंतर है। सामान्यत: आदिवासी समुदाय से आने वाले लोग सबसे कम उम्र में मरते हैं, उसके बाद दलितों का नंबर आता है, फिर अन्य पिछड़ा वर्गों का। एक औसत सवर्ण हिंदू इन बहुजन समुदायों से बहुत अधिक वर्षों तक जीता है।

2014 में आदिवासियों की मृत्यु के समय औसत उम्र 43 वर्ष, अनुसूचित जाति की 48 वर्ष, मुसलमान ओबीसी  की 50 वर्ष और हिंदू ओबीसी की 52 वर्ष थी, जबकि इसी वर्ष उच्च जाति के लोगों (हिंदू व अन्य गैर-मुसलमान) की औसत उम्र 60 वर्ष थी। आश्चर्यजनक रूप से ऊंची जाति के मुसलमानों की औसत उम्र ओबीसी मुसलमानों से एक वर्ष कम थी (चार्ट देखें)।

भारत में विभिन्न सामाजिक समूहों की औसत आयु, 2004 और 2014

सामाजिक समूह 2004 में औसत आयु 2014 में औसत आयु
उच्च जाति (गैर-मुसलमान) 55 60
ओबीसी (गैर-मुसलमान) 49 52
ओबीसी मुसलमान 43 50
उच्च जाति मुसलमान 44 49
अनुसूचित जाति 42 48
अनुसूचित जनजाति 45 43

2004 से 2014 के बीच के 10 सालों में सवर्ण हिंदू की औसत उम्र 5 साल, हिंदू ओबीसी की 5 साल,  मुसलमान ओबीसी की 7 साल, ऊँची जाति के मुसलमान की 5 साल और अनुसूचित जाति की 6 साल बढ़ी। लेकिन, इस अवधि में अनुसूचित जनजाति की औसत उम्र 2 वर्ष कम हो गई। 

उपरोक्त अध्ययन के लिए वाणीकांत बोरा ने 2004 और 2014 से राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के डेटासेट का उपयोग किया था। एनएसएसओ के इस डेटा सेट में ‘सामाजिक समूह’ और ‘धर्म’ श्रेणियों को मिलाकर, भारतीय परिवारों को छह समूहों में विभाजित किया गया था, जो इस प्रकार थे -1. आदिवासी, जिनमें 56 प्रतिशत हिंदू थे और 33 प्रतिशत ईसाई थे  2. दलित जिनमें 93 प्रतिशत हिंदू थे 3. गैर-मुस्लिम अन्य पिछड़ा वर्ग 4. मुस्लिम अन्य पिछड़ा वर्ग; और 5. गैर-मुस्लिम उच्च वर्ग तथा 6. मुस्लिम उच्च वर्ग।

स्त्रियों को केंद्र में रखकर इसी प्रकार का एक और चौंकाने वाला तथ्य 2018 में यूनाइटेड नेशन्स के द्वारा जारी रिपोर्ट में सामने आया था। यूनाइटेड नेशन्स ने 2030 तक विश्व में लैंगिक समानता लाने का लक्ष्य रखा है। यह रिपोर्ट इसी लक्ष्य की प्रगति की जांच के संदर्भ में थी, जिसमें 89 देशों में लैंगिक असमानता की जांच की गई थी।

इस रिपोर्ट में  इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ दलित स्टडीज द्वारा 2013 में किए गए एक सर्वे का उल्लेख था। इस सर्वे में पाया गया था कि औसतन दलित स्त्री उच्च जाति की महिलाओं से 14.5 साल पहले मर जाती  है। सर्वे के अनुसार, दलित महिलाओं की औसत आयु  में 39.5 वर्ष थी जबकि ऊँची जाति की महिलाओं की 54.1 वर्ष।

हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि उच्च जातियों के सभी लोग 60 वर्ष जीते हैं और बहुजन तबकों के 43 से 50 साल। लेकिन उपरोक्त अध्ययन बताते हैं  कि भारत में विभिन्न सामाजिक समुदायों की “औसत उम्र” में बहुत ज्यादा फर्क है। 

इस दिशा में हाल में हुए कुछ अन्य शोध और चिंतित करने वाले हैं। वैज्ञानिकों ने अपने एक अध्ययन में पाया है कि कोरोनोवायरस महामारी ने भारत की जीवन प्रत्याशा में लगभग दो वर्षों की गिरावट ला दी है।

मेडिकल साईंस के प्रसिद्ध जर्नल ‘बीएमसी पब्लिक हेल्थ’ प्रकाशित इस अध्ययन के लेखक अंतर्राष्ट्रीय जनसंख्या अध्ययन संस्थान (IIPS) के प्रोफेसर सूर्यकांत यादव, पवन कुमार यादव तथा सेंटर ऑफ सोशल मेडिसीन एंड कम्युनिटी हेल्थ की प्रोफेसर नेहा यादव हैं। इन वैज्ञानिकों ने कोविड महामारी से पहले 2019 में, और महामारी के बाद 2020 में जन्म के समय पुरुषों और महिलाओं दोनों में औसत जीवन-प्रत्याशा का अध्ययन किया है।

इस अध्यययन में इन वैज्ञानिकों ने ‘जीवन असमानता की लंबाई’ (length of life inequality) नामक एक कारक को भी शामिल किया था। इस कारक को शामिल करने पर उन्होंने  पाया गया कि कोविड-19 भारत में उस समय तक मरने वाले पुरुषों में सबसे अधिक  39-69 आयु वर्ग के थे। जबकि स्त्रियों की संख्या मिलाने पर अधिकांश मौतें 35-79 आयु वर्ग में हुईं।

उन्होंने अपने अध्ययन में बताया कि “भारत में 2019 में जन्म के समय जीवन प्रत्याशा पुरुषों के लिए 69.5 वर्ष और महिलाओं के लिए 72 वर्ष थी, जो कि 2020 में क्रमशः 67.5 वर्ष और 69.8 वर्ष हो गई।”

महामारी वर्ष 2020 और गैर-महामारी वर्ष 2019 के बीच, जीवन प्रत्याशा में पुरुषों और महिलाओं के लिए क्रमशः 2.0 और 2.3 वर्ष की गिरावट हुई। इन वैज्ञानिकों ने इस अध्ययन में बताया था कि कोविड-19 द्वारा भारत में  जन्म के समय जीवन प्रत्याशा में छह से आठ साल कम करने की क्षमता दिख रही है तथा इस महामारी के कारण  ‘मृत्यु के समय उम्र में असमानता’ (inequality in age at death) भी पांच साल बढ़ा सकती है।”

यहां ध्यान रखने की जरूरत है कि कोविड 19 के दौरान जीवन प्रत्याशा में यह कमी सिर्फ जैविक महामारी की वजह से नहीं आई है। बल्कि इसके पीछे हमारी सरकार की महामारी की रोकथाम के नाम पर अपनाई गई तानाशाही प्रवृत्तियां अधिक जिम्मेवार रही हैं, जिसने देश की अर्थव्यवस्था को रसातल में भेज दिया है। इस दौरान जितने लोग महामारी से मरे उससे कहीं अधिक अवैज्ञानिक नीतियों के कारण मारे गए।

बहरहाल, कोविड 19 महामारी से संबंधित अनेक प्रतिबंध इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय, अगस्त, 2022, में  भी जारी हैं, और हम अभी तक नहीं जानते कि 2020 में हुए उपरोक्त अध्ययन के बाद से अब तक भारतीयों की जीवन प्रत्याशा में कितनी कमी आई है। इस संबंध में भी हमारे पास कोई अध्ययन नहीं है कि कोविड 19 के कम हुई जीवन प्रत्याशा का सामाजिक पहलू क्या है। लेकिन जैसा कि जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर स्टडी ऑप रिजनल डेवलपमेंट के प्राध्यापक संदीप मंडल और रंजन कर्मकार ने अपने एक शोध-पत्र में दर्शाया है कि भारत के संदर्भ में  “यह ऐतिहासिक रूप से एक स्पष्ट तथ्य है कि कोई भी आपदा या महामारी दलित और आदिवासियों को सबसे आसान शिकार बनाती है।

उन्होंने अपने शोध पत्र में विभिन्न प्रमाणों के साथ बताया है कि 1918 में  जब स्पैनिश फ़्लू महामारी लगभग 1.8 करोड़ लोगों की जान लेकर भारत के लिए विनाशकारी साबित हुई थी, उस समय भी जाति उस कारक के रूप में सामने आई थी, जो यह तय कर रही थी कि कौन स्वास्थ्य देखभाल प्राप्त करेगा, कौन जीवित रहेगा और कौन मर जाएगा। उस समय भी भीड़-भाड़ वाली झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले निचली जाति के लोग वायरस से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए थे क्योंकि वे ही भोजन और नियमित दवा की नियमित आपूर्ति से सबसे अधिक वंचित रहे थे। उसके वर्षों बाद जब पोलियो बड़े पैमाने पर फैला, तब भी यह पाया गया था कि यह रोग  मुख्य रूप से पीने योग्य पानी और स्वच्छता की गंभीर कमी वाले क्षेत्रों में अधिक प्रचलित था और यह अनुभवजन्य साक्ष्य से प्रमाणित किया जा सकता है कि दलित और आदिवासी पीने योग्य पानी और गुणवत्तापूर्ण स्वच्छता से वंचित थे। यही तपेदिक महामारी के लिए भी सच था, जिसका शिकार सबसे अधिक दलित और आदिवासी हुए  थे, जो गुणवत्तापूर्ण देखभाल का खर्च वहन नहीं कर सकते थे।

बात सिर्फ पौष्टिक खानपान व स्वास्थ सुविधाओं तक पहुंच में  सामाजिक समूहों के बीच की इस असमानता की नहीं है। भारत किस प्रकार असमान हो चुका है इसका पता इससे भी चलता है कि ‘पिछड़े’ या कम विकसित राज्य में रहने वाले और विकसित राज्य में रहने वाले लोगों की औसत उम्र में बड़ा फर्क है। अर्थशास्त्री वाणीकांत बोरा के जिस शोध का उल्लेख इस लेख के आरंभ में किया गया है, उसी शोध से यह भी स्पष्ट हुआ था कि “पिछड़े राज्यों” के लोगों की औसत उम्र सात साल कम है। विकसित राज्य में रहने वाले लोगों की औसत उम्र 51.7 वर्ष है, जबकि पिछड़े राज्यों की 44.4 वर्ष।

ये शोध और अध्ययन बिना कुछ कहे स्वयं यह सवाल उठाते हैं कि क्या हमारे विकास की दिशा ठीक है? आखिर हम किधर जा रहे हैं? आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए हमारा मुख्य सरोकार इन्हीं प्रश्नों के इर्द-गिर्द होना चाहिए।

(प्रमोद रंजन लेखक एवं प्राध्यापक हैं)