जन्मदिन विशेष : डॉ. राममनोहर लोहिया की दृष्टि में भारतीय शिल्प

सारनाथ, मथुरा, नालंदा, अजंता , बेरुल, सांची, भोजपुरी, कोणार्क इत्यादि (लगभग पूरे भारत में) घूमते हुए वहाँ के शिल्प पर लोहिया जी ने जो व्याख्या की वो अतुलनीय है। अमूमन शिल्प देखते हुए उस काल के कारीगरों की चमत्कारिक प्रतिभा, और ऐतिहासिक महत्व पर आ कर बात टिक जाती है। वहाँ बसी आत्मा से बात कहाँ लोग कर पाते हैं?

स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा, समाजवादी आंदोलन के प्रणेता, मौलिक चिंतक और दार्शनिक डॉक्टर राम मनोहर लोहिया की आज (23 मार्च) जयंती है। स्वराज प्राप्ति से पूर्व जितना समय उन्होंने कारावास में काटा, उससे कहीं अधिक कष्टकारी जेलें स्वराज प्राप्ति के बाद काटी। युवाओं के आदर्श लोहिया के विचार, सदैव क्रांतिकारी और तथ्यात्मक रहे। उन्होंने हर विषय के अनछूए पहलूओं की ऐसी व्याख्या की जिनका स्थान अब तक कोई नहीं ले पाया।

एक प्रभावशाली व्यक्तित्व जिनके मोह से कोई भी न बच सका। रचनाकारों और चित्रकारों की लंबी फेहरिस्त है, जो लोहिया से बहुत प्रभावित थे। उनसे संबंधित किसी भी लेख को पढ़ने से ये साफ साफ जाहिर होता है, वे न सिर्फ राजनीतिक गलियारों में अपना लोहा मनवाता थे, बल्कि कला, संवेदनशीलता, ममर्मज्ञता, के भी धनी थे। हर तरह की गैर बराबरी मिटाने के लिए उन्होंने बहुत लड़ाइयाँ लड़ीं। सदन में उनके भाषणों से जो गूंज उठती थी, वे आज भी अविस्मरणीय है।  लोहियाजी के शून्य को भर पाना तो संभव नहीं, आज की मौजूदा परिस्थितियों में लोहियाजी की अनुपस्थिति कष्टकारी है। उनकी जन्मजयंती पर उनके ही विचार साझा करते हुए विनम्र श्रद्धांजलि।

‘भारतीय शिल्प (मीनिंग इन स्टोन)’ डॉक्टर राम मनोहर लोहिया का करीब 20 पन्नों का लेख है। भारतीय शिल्प, वास्तुकला और उसकी सुंदरता के मायने, धर्म के स्वरूप में उनकी महत्ता पर उनकी दृष्टि इस लेख में समाहित है। उसी लेख के कुछ अंशों को साझा करते हुए हर्ष हो रहा है। सारनाथ, मथुरा, नालंदा, अजंता , बेरुल, सांची, भोजपुरी, कोणार्क इत्यादि (लगभग पूरे भारत में) घूमते हुए वहाँ के शिल्प पर लोहिया जी ने जो व्याख्या की वो अतुलनीय है। अमूमन शिल्प देखते हुए उस काल के कारीगरों की चमत्कारिक प्रतिभा, और ऐतिहासिक महत्व पर आ कर बात टिक जाती है। वहाँ बसी आत्मा से बात कहाँ लोग कर पाते हैं? वो काम लोहिया जी करते रहे। नष्ट होते स्थलों को लेकर उनके हृदय में अजीब सी बेचैनी थी। विदेशी वास्तुकला पर टिप्पणियाँ करते हुए यह लेख हमें एक अलग दृष्टिकोण प्रदान करता है।

भगवान बुद्ध व महावीर न जाने वास्तव में कैसे दिखाई देते थे, मगर उनकी मृत्यु के करीबन तीन सौ साल बीत जाने के बाद जिन शिल्पकारों ने उनकी मूर्तियाँ खोदी, वे सजीव प्रतीत होती हैं। कई तरह के रूपं में बुद्ध और महावीर को मूर्तियों में चित्रित किया गया है। कहीं चिंतमग्न तो कहीं करुणानिधि, कहीं अभय मुद्रा में तो कहीं विकारों पर विजय प्राप्त किए हुए। जैसे ईसा मसीह का स्वरूप एक ही शक्ल में देखाई देता है, वैसे महावीर और बुद्ध की मूर्तियों का नहीं। भारतीय शिल्पकारों ने उन्हें एक ही स्वरूप में बांधने का बंधन स्वीकार नहीं किया।भारतीय शिल्पकार इस संबंध में पूर्णतः स्वतंत्र हैं।

बुद्ध और महावीर की मूर्तियाँ देखते हुए लोहिया जी कहते हैं – मूर्तियाँ अनेक रूपों मे होने पर भी उन सभी की आत्मा व शिल्प शैली एक जैसी है। सभी मूर्तियाँ को एक ही शिल्पी ने नहीं बनाया हैं। कितने ही महान शिल्पकार के लिए यह असंभव था। पीढ़ियों के अथक परिश्रम का यह फल है। तो भी बुद्ध और महावीर की मूर्तियाँ एक जैसी दिखती हैं ऐसा शायद ही कोई कह सकता है। बुद्ध की प्रतिमा में निश्चिंतता और महावीर की मुद्रा में कसाव देखते हुए, दोनों को ही मानव को उपलब्ध होने वाली श्रेष्ठ विजय कह पाना लोहिया जी ही कर सकते थे। शिल्पकारों ने अपने अपने धर्म पुरुषों की प्रतिमाओ के द्वारा जो संदेश दिया है वो बड़े बड़े धर्म ग्रंथ, और धर्म प्रबंध नहीं कर पाए। भारतीय शिल्प केवल मानवआकृति चित्रित करने पर जोर नहीं देता, बल्कि व्यक्ति के जीवन और आशय को ज्यादा महत्व देता है।

लोहिया कहते हैं- शिवशंकर पर अन्य किसी भी देवता की अपेक्षा भारतीय शिल्पकारों को ज्यादा प्रेम रहा है। शिव के शांत, स्तब्ध व्यक्तित्व, ने तत्ववेत्ताओं को अधिक सर्वांगीण विचार करने की प्रेरणा दी। शिव के व्यक्तित्व ने शिल्पकारों की शिल्पकला का संपन्न रूप ज्यादा पैमाने पर दुनिया के सामने रखा। सातवीं सदी के और उसके बाद के काल के शिल्पों में अथवा बारहवी सदी के और उसके बाद के काल में खजुराहो के शिल्प में शिव और पार्वती के संग बैठी प्रतिमाओ मे संतुष्ट अवस्था, काल गति पर नियंत्रण रखने की कोई चाह नहीं, काल निश्चल खड़ा है ऐसा जान पड़ता है।

भविष्य काल अपने पीछे दौड़े, ऐसी उत्कंठा वर्तमान काल में नहीं दिखाई देती। भूतकाल की भी चिंता नहीं है, तत्काल कृति स्वयं पूर्ण होती है और अपने अस्तित्व का औचित्य स्वयं ही बताती है। तत्काल कृति एक निःस्तब्ध कृति है। अचर का चर कर्म। क्या आदमी अपने व्यवहार में तात्कालिकता का यह तत्व अमल में ला सकता है? कहना मुश्किल है। शिल्पकार द्वारा खोदा गया शिव का सनातन व्यक्तित्व मात्र आदमी को उस दिशा की ओर गति दिखाता है। अगले क्षण के बारे में आदमी की उत्सुकता शायद पूरी तरह खत्म नहीं होगी, लेकिन वर्तमान काल में स्वयं को काफी उलझाकर उससे ज्यादा से ज्यादा फल प्राप्त करना उसके लिए संभव हो सकता है।

विष्णु ने भारतीय शिल्पकारों को शिव जैसा प्रभावित नहीं किया, तो भी विष्णु के विशेषतापूर्ण कई शिल्प रूप मालूम होते हैं। उदयगिरी में विष्णु के वराह स्वरूप को अलौकिक सुन्दर कुमारिका बन, साक्षात पृथ्वी की मुक्तता कहते हुए लोहिया ने पृथ्वी को विष्णु की पत्नी, समुद्र को वसन, और पर्वत को वक्षस्थल की संज्ञा दी।

फतेहपुरी सीकरी में मीनार की अंतिम मंजिल पर जब लोहिया गए, उन्हें लगा भारतीय इतिहास की आत्मा के हर्ष और निराश, दोनों भिन्न मनोदशा का सम्पूर्ण आविष्कार देख रहे हैं। एतेतद्देशीय बनने की कोशिश में हिंदुस्तान के एक परकीय विजेता ने वह मीनार खड़ी की जिसका उद्देश्य अपनी अपनी धर्म श्रद्धाओं के अनुसार अपनी मुस्लिम और हिन्दू बेगमों को अलग अलग समय में चंद्रमा की खूबसूरती निहारना संभव हो सके। उस मीनार के पीछे मुग़लकालीन सीकरी नगर के अवशेष हैं। हिन्दुस्तानी मुसलमानों की कला का वह शायद सर्वोच्च सुन्दर निर्माण होगा। सामने कणव का मैदान जहां भारतीय आत्मा की रक्षा के लिए उनके संरक्षकों ने जरा सा पराक्रम दिखाया था, उन्होंने अपनी हार की भी वीर गाथा रची (जिसे लोहिया ने बेवकूफी कहा), महसूस करके कभी न रोने वाले लोहिया जी की आँखें पुरानी स्मृतियों के कारण गीली हो गई।

सांची, अजंता, वेरुल, नालंदा, और चित्तौड़ को भारतीय अवशेषों और कलाकृतियों के चार महान केंद्र हैं ऐसा वे मानते थे। ये केंद्र एक तरह की संस्था ही हैं, और आश्चर्य यह कि वे सैंकड़ों साल टिकी हैं।

सुन्दर चीजों का विध्वंस करने की प्रवृति के कारण बहुत सी उत्तम दर्जे की प्राचीन चीजों के नाश से लोहिया जी दुखी भी होते थे। देश के उत्कृष्ट वास्तुशिल्प में मांडगढ़ का सुन्दर महल एवम खुला प्रेक्षागार, और ताजमहल को पैदाइशी सुंदर बताने से लोहिया जी नहीं चूके।

ऐसे न जाने कितने शिल्पों की अलग अलग व्याख्या इस लेख मे समाहित है। जिनके बारे मे लिखने या बात करने की किसी ने सोची भी नहीं। यात्राओं को वे कभी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। वहाँ से लौट कर उसकी चर्चा और फिर उस पर अपनी दृष्टि के ऐंगल से लेख अवश्य लिखते।

First Published on: March 23, 2021 7:29 AM
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