कोरोना : सरकार की ‘युद्धस्तर की तैयारी’ और लोकसभा में आयुषमंत्री खुलती कलई…

भारत में तो मास्क की परिभाषा बक़ायदा बदली गयी। रुमाल, गमछा, दुपट्टा, साड़ी का पल्ला तक ’मेडिकल मास्क’ समतुल्य हो  गया। घर-घर पर मास्क बनने लगे। मुफ़्त मास्क बाँटने वालों की तस्वीरें शाए हो ने लगीं। वो भी तब जब शोध-नतीज़े सूती मास्क को ख़तरनाक़ बता रहे थे। यूँ कि इन्हें पहन लोग सुरक्षित होने का मुगालता पाल लेते। दैहिक दूरी रखने के नियम की अनदेखी करते।

देस-दुनिया के विशेषज्ञों की सलाह ताक पर रख आख़िरकार और बिल्कुल ही ताबड़तोड़ मार्च 24, 2020 को भारत-बन्द का ऐलान हो  गया। विडम्बना देखिए कि लोकसभा में दिये बयानानुसार भारत में चार मार्च को कोरोना  की आमद हो  चुकी थी, और बकौल सरकार वो इसके रोक थाम में पाँच फरवरी से जुटी थी।  लेकिन देशबन्दी के चार दिन पूर्व तक मैदानी तैयारी लगभग नहीं जित्ती ही थी, यह किस जागरूक नागरिक से छुपा है? सरकार की ‘युद्धस्तर की तैयारी’ की कलई लोकसभा में आयुषमंत्री के कहे से भी खुलती है। उनके कथनानुसार बीस मार्च दो हज़ार बीस तक कोविड हेतु  कोई फण्ड नहीं था। अलबत्ता वे देशवासियों को कोरोना से बचने के उपाय बताने का दम ज़रूर भरते हैं।

आयुषमंत्री के अनुसार लेन्सेट  में वर्णित लक्षणों के आधार पर होमियोपेथी औषधी, आर्सेनिकम एलबम 30 सी, खाने की सलाह रियाया तक पहुँचायी जा चुकी थी।  यह सच्ची बात है जी। इसकी ज़मानत मुझसे ले लें। क्यों कि, बरास्ता इंदौर नगर निगम, ऊपर बतायी दवा की शीशी के संग काढ़े का एक पैकेट हमारे घर भी पहुँचा था। मुफ़्त। पर मेरी चिन्ता दूसरी है। बिना पुख़्ता सुबूत के किसी को दवा विशेष खाने को प्रेरित करना उचित है क्या? यह भयज़दा आवाम के भरोसे के साथ छल नहीं क्या? इसका निर्णय आप ही करें तो बेहतर।

तो मैं कह रहा था कि मार्च 24 को ज़िन्दगी थम गयी। चाभी-खुटे खिलौनों की मानिंद लोग जहाँ के तहाँ खड़े रह गये। फिर शुरू हुआ ’वन्स इन लाईफ टाईम’ अनुभवों का सिलसिला। यूँ तो लॉकडाऊन का असर सारे देश ने लिया, पर जो  इंदौरियों ने भुगता उसने नाजी यातना शिविरों की तस्वीरें सामने ला पटकीं। पैंसठ के युद्ध से 2020 के दिल्ली दंगों तक न जाने कितनी उठापटक देख चुका, पर ऐसे दुर्काल से सामना अपूर्व था।

ALSO READ:  कोरोना : हरे पीले लाल के बीच झूलती ज़िन्दगी

संज्ञान में लिया जावे कि जिस कालखण्ड से अपन मुख़ातिब हैं उसमें मध्यप्रदेश, खासकर इंदौर, राजनितिक तौर से अनाथ था। कमलनाथ सरकार के कई मंत्री-विधायक, प्रदेश के स्वाथ्यमंत्री तुलसीराम सिलावट सहित, गुम थे। इंदौर की स्थानीय निकाय कुछ माह पूर्व अपना कार्यकाल सम्पन्न कर घर बैठी थी। ऐसे में जब देशबन्दी हुई, और उस पर आपदा प्रबन्धन अधिनियम लागू हुआ, तब सारा प्रदेश एक तरह से जिलाधीशों के अधीन हो  गया। ऐसे में हमारे यहाँ आमद हुई एक दूजे किसम कलेक्टर की। बेदर्द, बेक़दर, बेलगाम। जिनने आते के साथ इंदौर में कर्फ़्यू लादा। मामूली नहीं महाविकट। महल्ले की सुनसान गली में अकेले सुबह-शाम सैर करने वालों को, अपनी ही छत पर बैठ हज़ामत बनाने वालों को भी कै़द किया जाने लगा।

ग़ैरज़रूरी चीज़ों की दुकानें बन्द हुईं सो हुईं परन्तु अब तो जीवन यापन हेतु अत्यावश्यक सामानों के लिये भी इंदौरवासी तरसने लगे। गो कि जिलाधीश साहेब ने दूध, किराना, सब्जी, फल व डॉक्टर की ‘दूकान’ तक को कर्फ़्यू में शुमार कर लिया। जनता तिलमिलाने लगी तो लॉकडाऊन से एक दिन पूर्व मुख्यमंत्री बने शिवराज ने दूध पर से प्रतिबन्ध हटाया, इस शर्त के साथ कि दिन में सिर्फ़ एकबार बन्दी का दूध वितरण होगा।  ग़नीमत है कि मुख्यमंत्री समय रहते चेते वरना कितने ही बच्चे-बूढ़े दूध की आस मन में लिये दम तोड़ देते!

एक आध हफ़्ते बाद जब हमारे घर में बस एक वक़्त का आटा और प्याज-आलू बचा था तो उनकी  नौबत क्या हुई होगी जो रोज़ कमाते खाते हैं। उन जैसों पर तो यह दुतरफ़ा मार थी। अव्वल तो कमाई के साधन ख़त्म, ऊपर से घर से राशन भी ग़ुम! पेपरबाजी हुई तब जाकर जिलाधीश महाशय ने नगर निगम की कचरा गाड़ी के मार्फ़त हफ़्ते में एक बार पाँच किलो आटा, चावल, एक किलो  तेल, चीनी, एक पाव चाय पत्ती, इतना ही दूध पावडर तथा दो किलो आलू-प्याज़ मुहैया करवाने की स्कीम निकाली। जिसे ज़मीनी जामा पहनते-पहनाते तीन सप्ताह से अधिक व्यतीत हो  गये। 

इसबीच हालात ऐसे बने कि कॉलोनी के वाट्सएप ग्रुप में बक़ायदा बताया जाने लगा कि कहाँ कौन चक्कीवाला गुपचुप आटा बेच रहा है। और कौन किराना वाला शटर के पीछे बैठ माल दे रहा है। बताया तो यह भी जाता कि उन दुकानों तक पहुँचना कैसे और उनका दरवज्जा खटखटाना किस तरक़ीब से! अपने ही महल्ले की गलियों में जिलाबदर मुलजिम की तरह डरते-छुपते घूमने का यह अनुभव मैं कभी नहीं भूल सकूँगा। लाज़िमी है कि यहाँ एक सुकून दायक बात दर्ज़ करता चलूँ। वो  यह कि इस पूरे दौर में किसी दुकान वाले ने बढ़ाचढ़ा कर दाम नहीं वसूले आलावा पनवाड़ी व कलालों के । ठेकेदारों ने तो चौराहों पर  दारू बेची। एम्बुलेंस में बैठ। वैसे  मयकशों के लिए यह जीवनदायनी गाड़ी से कम न थी।  ख़ैर !

जिस मेडिकल कॉलेज हस्पताल से मैं जुड़ा हूँ वो इंदौर के सीमावर्ती क्षेत्र में है। लिहाज़ा प्रतिदिन शहर से सोलह किलोमीटर दूर जाना मेरी दिनचर्या का हिस्सा ठहरा। यह सफ़र तय करने में जहाँ पूर्व में तीस-पैतीस मिनट खप जाते थे, वो उन दिनों पन्द्रह-सत्रह मिनट में तय हो  जाता। कर्फ़्यू के चलते रास्ते साँय-साँय जो हो  चुके थे। पर इसबीच सड़क पर फिर चहल-पहल देख माथा ठनका। सोचा जिस शहर में फिलवक़्त सिवा परिंदों के कोई आज़ाद नहीं, उसकी सड़कों पे सर पर अपने घरौंदे उठाये इतने बहुत सारे लोग कैसे? मालूम हुआ वे दिहाड़ी कामगार हैं। आज़ाद मगर बरबाद रियाया । बेगाने शहरों को छोड़ अपनी माटी को लौटते लोग। सैंकड़ं जोड़ी कातर निगाहों से शहर को घूरते लोग। तपती दुपहरी में सिर पर पोटली, काँख में बचुआ उठाये हाँफती दोजीवाँ जनानियों, शाम के धुँधलके में पिता की उँगली थाम रिरियाते बच्चों को देख कई बार रुका। ग़रज़ कि उनसे कुछ बात करुँ। किन्तु वातानुकुलित कार से उतर उनका हाल पूछना मुझे निर्मम कर्म लगा। इन्सानियत का अपमान जान पड़ा। फिर जी किया कि कुछ नहीं तो दो-चार बोतल पानी की, दस-पाँच पुड़े बिस्कुट के ही दे दूँ  उनको। पर इतना सामान जुगाड़ूँ तो जुगाड़ूँ कैसे? दुकानें सब बन्द। चोरी छुपे सामान मुहैया करवाने वाले एकमुश्त इतना बहुत सारा देने को राजी नहीं। बाज़ार बन्द होने से उन पर स्टॉक सीमित था। अपने कने का माल वो देना चाहते अपने जाने-चिन्हे लोगों को। वो भी थोड़ा-थोड़ा। गोया  ’जनता कर्फ़्यू’ की तरह जनता राशनिंग लागू थी इन दुकानों पर। ख़ैर, हुआ यह कि आत्मा पर पत्थर रख घर लौटते लोगों से नज़र चुराते हस्पताल आना-जाना मेरी मज़बूरी बन गयी। अपने को जीवन में इतना हताश, इस क़दर लाचार मैंने कभी महसूस नहीं किया। ख़ुद की नज़र में इतना नीचे मैं पहले कभी नहीं गिरा।

पूछने वाले पूछेंगे कि सरकार ने ’ऑन लाईन’ सामान वितरण का इन्तजाम तो कर ही रख्खा था। जनता ने उसका उपयोग क्यों नहीं किया ?  मेरा कहना है कि भारत में ’टेक सेवी’ या कि  उच्चवर्गीय जन ही नहीं बसते। करोड़ों हमवतन कमपढ़ हैं। करोड़ों बेसाख़्ता तंगहाली में गुज़र को मज़बूर भी। औरसाठ-सत्तर नौ तपा देख चुकने के बाद अकेले जीवन भुगत रहे बुजुर्ग भी तो हैं यहाँ। उनका क्या? उनमें से कितने स्मार्ट फ़ोन रख-बरत सकते हैं। जो रखते भी हों तो कितनों में  ‘बिग बाजार’ या ’रिलायन्स फ्रेश’ से एक मुश्त सामान मँगवाने का सामर्थ्य है? सच तो यह है कि नून-पानी  से रोटी खाने वाले के सपने में भी जो ’बिग बाजार’ आवे तो बापड़ा मारे डर के अगली तीन रात सो   न पावे!

एक बात और। भारत में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो  न पाँच सितारा दुकानों से ख़रीदारी करते हैं, ना ही डिजिटल बाज़ार से। कोरोना काल में तो जिनने एक तरह से क़सम ही उठा ली कि वे वह पेढ़ी नहीं चढ़ने के जिसके हाथ बाज़ार सौंपने को सरकार कटिबद्ध है। फिर अंजाम चाहे जो  हो । गोया उन्हें इलहाम हुआ कि  ‘आपदा में अवसर’ की आड़ से आवाम पर वह सारा थोपा जा रहा जो थोप नहीं पा रही थी सरकार, विगत् छः बरसों से। मुख़्तसर बात यह कि देशबन्दी ने आवाम को बेक़दर परेशान किया। करेले पर नीम का कारज किया अज्ञान व अज्ञात के घटाटोप ने। हवा में तिरती अफ़वाहों    ने। ओहदेदारों के गै़र ज़िम्मादाराना जुमलों ने। वैज्ञानिकों के असंयमित बर्ताव ने।

अपने अनुभव से जानता हूँ कि विचार उपजने से शोध मुक़म्मल होने तक में महीनों, बाज़ दफा बरसों खप जाते हैं। कि विज्ञान के यहाँ हबड़तान की कोई जगह नहीं। अब से पहले वैज्ञानिक अपने  शोध-परिणामों को पहले समकालीन अन्वेषकों के साथ साझा किया करते थे, मिडिया से नहीं। इस परिपाटी का समूल नाश हो ते देखा मैंने कोरोना-काल में। अधपके, अधकचरा शोध जो बड़े शोर शराबे के संग जनता के बीच उतारे गये, उनमें से कई तो हफ़्ते रोज़ में ही गटरों में बरामद हुए। वैज्ञानिकों की कनपटी पर सरकारों द्वारा कट्टा अड़ा कर दो से दस बरस में बनने वाली वैक्सीन को चन्द महिनों में तैयार करवाने का कारनामा (?कारस्तानी) भी हमने इसी दौर में देखा।

संकटकाल में, हालातों के मद्देनज़र, जो स्थापित मानकों में एकतरफ़ा परिवर्तन किये जाएं तो क्या उनकी ख़बर (और सच्ची ख़बर) रियाया को देना हुकुमत पर लाज़िम नहीं? पर क्या कोविड-टीकों  के बाबत हम तक ऐसी कोई जानकारी पहुँची? दिखाया यूँ  जा रहा कि सरकारें जन-स्वास्थ्य को ले कर चिन्तित हैं। उनके हित में शोध में रोड़ा डालने वाली नियंत्रक व पर्यवेक्षण संस्थानों पर नकेल कसी जा रही है। जो  दवा/वेक्सीन पहले बरसों में बन पाती थी, उन्हें चुटकियों में बनवाया जा रहा। इस दाब के चलते हुई रिसर्च-एथिक्स में हुई कोताही की एक झलक देना ज़रूरी है।

कहा जा चुका कि टीकों को बनने और सामान्यजन तक पहुँचने में पहले दो से दस बरस खप जाते थे । इसलिये नहीं कि तब अन्वेषक आलसी थे या कि वे मनुष्य की स्वास्थ्य-आवश्यकताओं के प्रति चैतन्य न थे । दरअस्ल, उनकी चैतन्यता ही विलम्ब का कारण थी। अनुसंधान प्रक्रिया का अनुपालन करना वे अपनी नैतिक जिम्मेवारी जानते थे। प्रक्रिया जो बढ़ती है विभिन्न चरणों से हो  कर। शोध पर लाज़िम था हर पायदान पर कामयाब होना।पर्यवेक्षकों की दृष्टि में सौ टन्च खरा उतरना।

वेक्सीन सम्बन्धित शोध का प्रथम पायदान है समीचीन रोग का एक प्रादर्श (मॉडल) जीव तैयार करना। प्रादर्श जीव जिसमें शोधाधीन रोग के, हूबहू मानवों के से, लक्षण व दुःष्प्रभाव पैदा किये जा सकें। आदर्श शोधों में, ऐसे जीव पर ही तमाम शुरुआती परीक्षण किये जाते हैं। टीके के असरों का पता इसी स्तर पर हो  जाता है। विशेषकर अस्वीकारणीय असरों का। आज दिन तक, जबकि हम रूबरू हैं, वैज्ञानिकों के पास ऐसा कोई प्रादर्श जीव नहीं जिसमें मानव-कोविड-19 रोग के से लक्षण हूबहू पैदा किये जा सके हों।  समय माँगता है यह काम। समय ही तो न था हाथ में। हायतौबा मची थी तब। चुनाँचे, मानव परीक्षण पूर्व लाज़िम इस चरण में, समय बचाने की ग़रज़ से ढील दी गयी।

सटीक जीव-मॉडल की अनुपस्तिथि में जब कोरोना-19 टीकों पर काम आरम्भ हुआ तब कोविड सम्बन्धित बहुत से महीन नुक़्तों की सटीक जानकारी वैज्ञानिकों पर नहीं थी। नुक़्ते जिनका इल्म कारगर टीका बनाने वास्ते क़तई ज़रूरी। जैसे कोरोना किस तरह से आदमी पर काबू करता है, उसकी देह का कौन सा हिस्सा साधने से विषाणु पंगु हो  सकता आदि। ये जानकारियाँ अभी जुट ही रहीं थीं कि कई तरह के टीकों पर एक साथ काम आरम्भ हुआ। लब्धप्रतिष्ठ पत्रिका  ’सेल’ में अप्रेल 16, 2020 को प्रकाशित शोधपत्र में बताया गया कोरोना के मानव शरीर में प्रविष्ट हो ने का तौर-तरीका।  सितंबर, 2020 तक तो टीका-संधान में आने वाली सम्भावित अड़चनों पर चर्चा चल रही थी।  जबकि अप्रेल 2020 में ही टीकों पर प्रथम/द्वितीय चरण के ट्रायल आरम्भ हो  चुके थे।

वैसे इसमें कुछ बुरा भी नहीं। जब सूझ न पड़े तो अँधरे में तीर चलाना पड़ता है। पर यहाँ एक दुबिधा भी है। कि इतर टीकों के चाहे-अनचाहे असर भी दीग़र होते हैं। उनसे हासिल रोग-प्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटी) का जोर व जीवनकाल फर्क़ हो ता है। इन बातों की मुक़म्मल ख़बर मिलती है टीका-परीक्षण के तीसरे चरण में। जो पूर्व में कम से कम दो बरस जारी रहता। अमरिका ने इसे फ़क़त दो  माह पर ला पटका।

यहाँ हमें ठहरना होगा। ताकि टीकों के असर की प्रविधि बूझी जा सके। मानव शरीर जो  दिखता तो इकाई है पर यथार्थतः यह है एक एकीकृत-टॉउनशिप। इतर व्यवस्थाओं का समन्वयन। जिनमें शुमार है शरीर की रोग निवारण व्यवस्था- इम्यूनिटी सिस्टम। थायमस ग्रंथि (टी-सेल्स) व रक्त-मज्ज़ा (बी-सेल्स) आधारित सिस्टम। इन्हीं के चलते, टीकाकरण बाद, हमारी देह में दो तरह की इम्यूनिटी उपजती है। पहली टी-सेल्स के चलते, दूजी बी-सेल्स के। टी-सेल की कमायी (एन्टीबाडी आधारित) प्रतिरोधक क्षमता अल्पकालिक होती है। जबकि बी-सेल अवलम्बित (रोग-स्मृति आधारित) लम्बे समय तक रहती है। बाज़दफा ताउम्र। फ़िलहाल कोविड-19 की बी-सेल आधारित इम्यूनिटी अज्ञात है। कितनी  मात्रा में एन्टीबाडी होना कोरोना से बचने हेतु दरकार, यह भी फ़िलवक़्त नामालूम। चुनाँचे हमें यह नहीं पता कि इन टीकों का असर कितना होगा व कितने दिन रहेगा। 

अपनी बातचीत वहाँ आ पहुँची है जब हमें दो शब्दों के वैज्ञानिक अर्थ भलीभाँति बूझ लेना चाहिए। शब्द हैं ’इफिकेसी’ और’इफेक्टीवनेस’। विज्ञान की नज़र में वेक्सीन की ’इफिकेसी’ और’इफेक्टीवनेस’ के मायने अलहदा होते हैं। इफिकेसी परिक्षण होता है प्रयोगशाला तथा क्लीनिकल ट्रायल के प्रथम दो  चरणों में। इसके मानक हैं टीकाकरण उपरान्त हो ने वाले अवान्छित असर तथा बनने वाली एन्टीबॉडी की मात्रा व गुणवत्ता। गुणवत्ता यानी एन्टीबॉडी की विषाणु से जुड़ उसकी मारक क्षमता को छिजाने की क्षमता।

यहाँ एक पेंच है। वो  यह कि इन मानकों पर खरा उतरना वेक्सीन के इफेक्टीव होने, यानी प्रयोग परिस्थितियों के बाहर रोग के बहुस्तरीय नियंत्रण में कारगर होने, की जमानत नहीं। इफेक्टीवनेस की ख़बर मिलती है ट्रायल के तीसरे-चौथे चरणों में। जब देखा जाता है कि टीकाकरण बाद समाजिक स्तर पर रोग का फैलाव थमा कि नहीं? कि वास्तविक दुनिया में टीका लेने वाला रोग-संक्रमण से बच पाया या नहीं? और यह भी कि जिस रोग से बचने वास्ते जो टीका इज़ाद हुआ वो उसी रोग को बढ़ावा तो नहीं देता? जैसा कि खसरा व इंफ्लूएन्जा हेतु आरम्भिक टीकाकरण के दौरान देखा गया था। विडम्बना देखिये कि इस आलमे बेख़बरी के बीच ही टीका बनाने वालों द्वारा साझा ’इफिकेसी’ के आँकड़े हम तक वेक्सीन के ’इफेक्टीव’ होने के प्रमाण की मानिंद पहुँचाये जाने लगे।  वो भी आसमां तले हर बशर के फ़ौरन टीकाकरण को महामारी नियंत्रण का एकमेव उपाय जतलाते हुए। हालाँकि नामचीन विषाणु-विशेषज्ञ चलती महामारी के बीच एकमुश्त टीकाकरण उचित नहीं जानते। उनके अनुसार इससे वायरस और भी प्रबल रूप में प्रकट होने का धड़का है। उसके अधिक तेज़ी से फैलने का ख़तरा है। 

कहना मैं यह चाहूँ कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक भी हमें टीकों के अनचाहे असर की पूरी ख़बर है, न मनचाहे की। ऐसे में दवा कम्पनियों की मंशा पर शुबह कुफ़्र है क्या? सनद रहे सो कहता हूँ कि नवम्बर 2020 तक टीका-शोध के तीसरे चरण को कम से कम एक बरस जारी रखने की चर्चा थी। आठ दिसम्बर 2020 को टीकों बाबत अंतरिम नतीजे़ शाए हुए, जिसे सात जनवरी 2021 को सुधारा गया। और मजे़ की बात देखिये कि सोलह जनवरी 2021 से भारत में भी टीकरण आरम्भ होने की चर्चा है। सवाल किया जाना चाहिए कि इतने कम समय में इतनी बहुत सी मात्रा में वेक्सीन कैसे बन गयी? बनी बात है कि मुट्ठी भर लोगों पर हुए प्रथम चरण के परिक्षणों के फ़ौरन बाद ही युद्धस्तर पर टीका-निर्माण आरम्भ हो  चुका था। यानी, टीकों के तमाम असर अब नमूदार होंगे दवा जनता में जाने के बाद ही।

महाविद्यालयों में बतायी जाती है भावी चिकित्सकों को नैतिक जिम्मावारी। कि मरीज़ तक दवा तब ही पहुँचे जब उसके लाभ अवगुणों से ऊपर हों। ख़ूब ऊपर। जो गाहे-ब-गाहे इम्तिहान पास करने के पहले दवा देनी ही पड़े तो मरीज़ से अनुमति ली जावे। पुख़्ता ख़बर नहीं होना उसके संज्ञान में हो। क्या इस नैतिक जिम्मावारी का निर्वहन होगा?

राजनीतिक अभिष्टपूर्ति हेतु शोधकर्ताओं को तमाम ज़रूरी सावधानियों और स्थापित मानकों को अपने हाथों छिजाते देख मैं बतौर विज्ञान अभ्यार्थी आश्चर्यित हूँ। आशंकित भी। कि केदारनाथ जलजला तथा चेर्नोबिल परमाणु काण्डं गवाह हैं- वैज्ञानिक गणनाएं फुस्सी निकलने के। हरितक्रान्ति के एवज़ में कैन्सर-प्रताड़ना झेलते पंजाब की गवाही है कि तक़नीकें असफ़ल हो  सकती हैं। कि दूरंदेश इंसान भी दरअस्ल बहुत दूर देख नहीं पाता। चाह कर भी नहीं। कि कुदरत-व्यापार के बरअक़्स हर बीनाई सीमित जो ठहरी। परन्तु वैज्ञानिक ओन हड़बड़ी में हैं। ऐसी तकनीकों से टीके बना रहे जो कभी जाँची गयीं, न परखी। सोचता हूँ तड़ातड़ी में गढ़े इन टीकों के दूरगामी बेज़ा असर हुए तो क्या होगा?  इन असरों की ख़बर कब, किसे और कैसे मिल सकेगी? अकूत धन के संग एकाधिक हुक़्मरानों की साख भी दाँव पर है। ऊपर से आज बाध्य हैं नज़र रखने वाले संस्थान ही नज़रों पर पट्टी बाँधने को। ऐसे में वेक्सीन के बेज़ा असरों को दबाया-दबोचा नहीं जावेगा, यह भरोसा कैसे हो?

क्या अचरज कि जनता वैज्ञानिक शोधों पर शक़ करने लगी है, कहीं-कहीं इनकी खिल्ली उड़ते भी देखी है मैंने पिछले दिनों। सोशल मिडिया का कमाल है कि आज राजनेता से पनसारी तक हर कोई कोरोना का शर्तिया इलाज और मुकम्मल एहतियात बताता बरामद होता है। गोबर, गो-मूत्र से लेकर कबूतर की ज़ुबान तक, तंत्र संधान से मदिरापान तक लोगों को बतौर दवा स्वीकार्य है। विज्ञान पर ऐसा अविश्वास मुझे पहले कभी नहीं देखने मिला। लेकिन इसके पहले कि गुफ़्तगू इस मसले के सिम्त जावे क्यों न वो बात मुकम्मल करलें जो अधर में लटकी पड़ी है। मेरा इशारा अफवाहों, भ्रान्तियों की ओर है।

ऊहापोह व अनिश्चितता से भरे कोरोना-काल में इतनी बदगुमानियाँ बोई, काटी और परोसी गयीं कि बड़े-बड़े पढ़े लिखे सूरमा भी गच्चा खा गये। बदगुमानियाँ जिसका ख़मियाजा आवाम ने भुगता और इस क़दर भुगता कि आते कई दशकों तक उसके दिए घाव तराड़े मारते रहेंगे। सभी ऊहापोहों पर तो चर्चा सम्भव नहीं। इसलिए मैं उन चन्द ग़लत फ़हमियों पर आता हूँ जिनने मेरे जाने सबसे गहरे घाव दिए। जैसे कि इस विषाणु के फैलने की प्रक्रिया को लेकर संशय।

कोरोना-काल के आरम्भिक दिनों में ही वैज्ञानिक कोरोना-विषाणु का  ’एरोसोल’ मार्फ़त फैलना बता चुके थे। एरोसोल यानी बोलते/खाँसते समय मुँह से निकला थूक मिश्रित हवा का भभका। यह भी कहा जा चुका था कि इस भभके के संग निकला कोरोना वायरस कुछ दूरी तय करने बाद ज़मीन पर गिर जाता है। कि वज़नी कोरोना-विषाणु हवा में दूर/देर तक तैरता नहीं रह सकता। खुली हवा में तो क़तई भी नहीं।

समीचीन महामारी आरम्भिक दिनों में एक बहुनाम मेडिकल जर्नल में कोरोना के एरोसोल तथा विभिन्न सतहों पर ठहराव को लेकर एक शोध प्रकाशित हुआ। इसी लेख का हवाला दे प्रचार तंत्र  ने चरितार्थ कर दिया कि समीचीन विषाणु हवा में तीन घण्टे ’तैरता’ रहता है और ’वस्तुओं’ की सतह पर बहत्तर घण्टे तक जीवित रह सकता है। ब्रेकिन्ग न्यूज देने/पाने की आपाधापी में न वे बता पाये ना लोग ही समझ सके कि ये शोध-परिणाम प्रयोग की नियंत्रित अवस्था का नतीज़ा हैं।  कोई शोधपर्चे के सप्लीमेन्ट्री मटेरियल को देखे तो जाने कि एरोसोल पैदा करने के लिए एक बन्द ड्रम काम में लिया गया था (गोल्डबर्ग ड्रम), आद्रता 60%, व तापमान 21-23 से. रख्खा गया था। गरज़े कि प्रयोगशाला के बाहर, असल दुनिया में, जहाँ हवा के बहाव, आद्रता किंवा तापमान में निरंतर बदलाव होते हैं, ये शोध परिणाम अक्षरशः खरे नहीं उतरेंगे।

मेरी बात को पुष्ट करते कई शोध हैं। इनमें से अधिकतर को अस्पतालों के उन हिस्सों में जहाँ प्राकृतिक हवा प्रवाह अक्षुण्ण था, न के बराबर संक्रमण मिला। मानी यह कि जहाँ पवन निर्बाधा बहता हो वहाँ कोरोना-19  मौज़ूद होने व जीवित रहने के पुख़्ता प्रमाण नहीं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी बारम्बार दोहराया कि पार्सल, खाने-पीने की वस्तुओं पर इस विषाणु के होने सम्भावना नगण्य है। पर इन खुलासों का कोई असर दुनिया ने नहीं लिया। ’वाट्सएप विश्वविद्यालय’ तमाम शोधों पर भारी साबित हुआ और विश्व सामुहिक पागलपन का शिकार हो  गया।

जैसे कि इंदौर तथा नीमच के कलेक्टर महोदय। पहले को शाक-भाजी-फलों पर कोरोना लिपटे होने पर इतना प्रबल पक्का भरोसा था कि इनकी ख़रीद-फ़रोख़्त को सज़ा योग्य जुर्म घोषित कर दिया गया। सैकड़ों टन सब्जी फल, यहाँ तक कि किसानों/व्यापारियों के गोदामों में धरा माल भी जप्त कर ज़मीदोज़ किया गया। नीमच जिले के मनासा गाँव में, जहाँ से मैं आता हूँ, लॉकडाउन होते के साथ ही, प्रशासन द्वारा दुकानों में रखी खाद्य वस्तुएं गटर में फेंकी गयीं या ट्रेक्टरों में भर गाँव के बाहर मिट्टी के नीचे दबा दी गयीं। यह सब तब हुआ जब देश में असंख्य लोग रीते पेट सो  रहे थे, सड़कों पर चल रहे थे।

हवा में वायरस उड़ते रहने के भ्रम ने भी रियाया को बहुत दिग किया। यूँ कि उनसे (जिनमें चिकित्सक भी शुमार थे) ऐरोसोल के मायने बूझने में गफ़लत हुई। सबों ने इसे ’एयर’ मान लिया। नतीज़न हवा में विषाणुनाशक उड़ाया जाने लगा। प्रशासन ने सड़कों, पेड़ों, गाड़ियों और राह चलते आदमियों को भी ’सेनिटाइज’ करवा डाला। डर इस कदर तारी था कि हमारे महल्ले के कई लोग दो-ढाई माह तक न आँगन में आये न छत पर ही चढ़े। बाज़ लोग खिड़की-दरवाजे खोलने से बचते दिखे। कईयों को तो मैंने घर के भीतर भी मास्क पहने देखा।

बतौर बानगी एक क़िस्सा पेश है। टहलने की मंशा से मैं एक शाम घर से बाहर निकला। अभी मैं कुछ दूर ही गया होऊँगा कि एक छत से किसी ने गुहारा-

’अरे आप घर से बाहर क्यों आए?’

’क्यों क्या हो गया? ’

’अरे क्यों रिस्क ले रहे हैं डाकसाब?’

‘रिस्क? कैसी रिस्क? पुलिस की, घूमते पकड़े जाने की?’

‘नहीं जी, कोरोना की।  मालूम नहीं आपको कि आपकी गली में कोरोना है?’

’ऐं! गली में कोरोना कैसे होगा भाई साब, ग़र होगा तो किसी आदमी में ही होगा’

’वही तो बता रहा हूँ आपको | गुप्ता जी भरती हैं, कोरोना है उनको’

’कौन से गुप्ता जी?’

’अरे वही आपके सामने वाले’

गुप्ता जी, यानी वही अपने डोकरे मियाँ, जो हस्पताल में पड़े अनार की बाट जोह रहे। टहलक़दमी मुल्तवी कर मैं गुप्ता जी के घर की तरफ़ बढ़ा। उनका लड़का बाहर ही मिल गया। घबराया सा , लटका सा चेहरा। उसीने मुझे पिता संग हुआ वह वार्तालाप बताया, जिससे मैंने अपनी बात शुरू की। क्यों कि मैं रोज़दिन अस्पताल जाता था अतः लड़के ने मुझसे गुज़ारिश की, कहीं से एक अनार ला देने की। शहर में तो कहीं फल मिलने की सम्भावना नहीं, मैं उसे यह कहते कहते थम गया। देशबन्दी के पहले खरीदे अनारों का हमारे फ्रिज में धरे होने का मुझे ध्यान जो आ चुका था। फ़ौरन ही वे अनार गुप्ता जी के लिये दे दिए गये। भला हुआ कि मेरी उस लड़के से भेंट हो  गयी। भला यह भी हुआ कि घर पर मनचाहा फल था। नहीं तो बेचारे डोकरे मियाँ की अनार खाने की अंतिम इच्छा कभी पूरी नहीं हो ती।

इस हौलनाक़ माहौल के चलते आपका यह मित्र कई दिनों तक एकतरह से अवसादग्रत रहा। सोचता रहता कि क्या किया जाये ताकि लोग भयमुक्त हों। बीमार फल के लिए न तरसें। लोग मुफ़ीद मौकों पर मास्क पहनें, भीड़ से दूर रहें, बाहरी सम्पर्क उपरान्त हाथ भी साफ़ करें किन्तु सब्जियाँ साबुन से न धोएं। लोग चैतन्य रहें परन्तु घर की छत पर मास्क पहन न घूमें। कि वे अपने घर को, जहाँ पिछले कई दिनों से कोई बाहरी मनक नहीं घुसा हो, दिन में तीन बार सेनिटाइज करने के पागलपन से छुटकारा पायें।

जानने वालों को फ़ोन किये। घर परिवार वालों से सम्पर्क साध विज्ञान सम्मत तथ्य बताये। पर नतीज़ा सिफ़र। सुनते के साथ ही अगला किसी ’फेक’ ख़बर की लिंक भेज देता। महाविचित्र दौर था वह (जो  कमोबेश अब भी जारी है) जिसमें आदमी एक चिकित्सक की, अपने सखा की, बातों को दरकिनार कर ’वाट्सएप’ ख़बरों पर भरोसा कर रहा था।

मसलन मास्क ही को लें। विश्व स्वास्थ्य संगठन बार-बार कह रहा था कि इस रोग से बचने का कारगर उपाय है  मास्क– ’एन-95 मास्क’। जो  यह न हो  तो तीन तहों वाला ’सर्जिकल’ मास्क भी चलेगा, कम से कम सामान्य लोगों के लिये। पर करोड़ों-करोड़ लोगों वास्ते एकदम से इतने एन-95 मुहैया करवाना किसी सरकार के बस का नहीं था। चुनाँचे अमरिका से लेकर भारत तक की सरकारों ने विशेषज्ञों के मार्फ़त तीन वर्ता सूती-मास्क प्रयोग करने की अपील करवाई। इसे कोरोना बचाव में कारगर बतलवाया। भारत में तो मास्क की परिभाषा बक़ायदा बदली गयी। रुमाल, गमछा, दुपट्टा, साड़ी का पल्ला तक ’मेडिकल मास्क’ समतुल्य हो  गया। घर-घर पर मास्क बनने लगे। मुफ़्त मास्क बाँटने वालों की तस्वीरें शाए हो ने लगीं। वो भी तब जब शोध-नतीज़े सूती मास्क को ख़तरनाक़ बता रहे थे। यूँ कि इन्हें पहन लोग सुरक्षित होने का मुगालता पाल लेते। दैहिक दूरी रखने के नियम की अनदेखी करते।

सूती मास्क पहने जब चिकित्सक भी दिखने लगे, तो मेरा माथा ठनका। लगा कि मास्क में हो  रही कोताही कोरोना के धड़नतख्ता फैलने का एक कारण है। ख़ासतौर पर भारत में। मैंने भी जानने वालों से बात की, समझाया। सिर्फ़ विज्ञान सम्मत मास्क ही पहनने की अपील की। हश्र क्या हुआ, बताऊँ आपको? लोग सूती मास्क पहने, दुपट्टा मुँह पर लपेटे भारत देश के प्रधानमंत्री के चित्र भेजने लग पड़े। मेरी अपील को राजनितिक चश्मे से देखा जाने लगा। दूसरों की तो छोड़िये मेरे अपने घर वाले मुझसे बिदकने लगे। दुःख है कि इनमें मेरे माता पिता भी शुमार थे। उनकी नज़र में मैं मोदी विरोधी जो था। पिता जी ने तो मुझे नेस्तोनाबूद करने की धमकी तक दे डाली। कहने लगे कि फेसबुक पर लिख देंगे कि मैं एक घटिया लेखक हूँ, मेरी किताबें कोई ना पढ़े! फेसबुक से याद आया, उस दौर में मैंने इसी सोशल साईट पर सब्जी-कोरोना सम्बन्ध लेकर कुछ लिखा तो मोदीदाँ मुझ पर पिल पड़े। जिसने मुझे प्रेरित किया फल-सब्जी को लेकर एक अनुसंधान की ओर। बिल्कुल उन परिस्थितियों की निर्मिति करते हुए शोध करने की ओर जिनमें सब्जी खरीदी बेची जाती है।

उतरती मई में प्रयोग किया गया। जिसमें दस कोरोना-पॉजिटीव मरीजों में से प्रत्येक को फल-सब्जी से भरी एक-एक ट्रे दी गयी। उनसे सब्जीवाला होने की कल्पना करने को कहा गया। और यह भी कहा गया कि आधे घण्टे तक वे जैसा चाहें वैसा, जितना बुरा चाहें उतना बुरा बर्ताव ट्रे में धरे सामान के संग करें। उन सबों ने वैसा किया भी। लगभग सभी ने सामान पर क़रीब से खाँसा, किसी ने उन पर थूक लहेसा, किसी ने जुबान फेरी। तदन्तर,  ट्रे को एक घण्टे खुली हवा में रखने के बाद फल- सब्जी की सतह से नमूना उठा आर.टी.पीसीआर टेस्ट करवाया गया। सारी प्रक्रिया में सम्पूर्ण गोपनीयता बरती गयी। और तो और लैब वालों को भी हमारे प्रयोग की ख़बर नहीं थी। नतीजों से हमारे पूर्वानुमान की खात्री हुई। किसी भी फल/सब्जी पर से कोरोना-19 बरामद नहीं हुआ।

जारी…..

(पेशे से चिकित्सक अजय सोडानी  इंदौर के श्री अरबिंदो इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज  में न्यूरोलॉजी विभाग में प्रोफेसर हैं।)  

First Published on: May 28, 2021 12:24 PM
Exit mobile version