प्रोफेसर राजकुमार जैन
आज उनकी पुण्यतिथि है उनको याद करने का मतलब है, इतिहास के ऐसे पन्नों को पलटना जिसको पढ़कर जहां बगावत की शुरुआत अपने घर से, ही शुरू करने, आजादी की जंग से लेकर, जिंदगी की आखिरी सांस तक जुल्म ज़्यादतीं, बेइंसाफी के खिलाफ और जम्हूरियत नागरिक अधिकारों की हिफाजत और हक में तमाम उम्र संघर्ष के इतिहास से वाकिफ होना है।
राजनारायणजी, जिन्हें उनके हजारों कार्यकर्ता, बेशुमार चाहने वाले प्रेम और अदब से नेताजी कहकर पुकारते थे ने अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ से की थी। कई तरह के राजनैतिक प्रयोगों, जनता पार्टी, लोकदल इत्यादि से गुजरने के बावजूद अंत में उन्होंने 1985 में अपनी मूल आस्था वाली सोशलिस्ट पार्टी फिर से स्थापना कर ली थी, पर जल्द ही 31 दिसंबर 1986 को इनका इंतकाल हो गया।
अगर जनता पार्टी, सरकार के बनने और खत्म होने का तटस्थ मूल्यांकन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनारायणजी के बेखौफ़, बड़ी से बड़ी ताक़त के ख़िलाफ़ टकराने की दिमाग़ी बुनावट तथा जहां अन्याय तत्काल प्रतिकार। समर्थन और विरोध में किसी भी हद तक जाने, चाहे उसमें उनका व्यक्तिगत रूप से कितना भी नुक़सान हो जाए, इसकी परवाह उन्हे नहीं थी।
मेरे जैसे हजारों कार्यकर्ताओं ने राजनारायण जी की रहनुमाई में अनेको बार सड़क पर संघर्ष करते हुए, पुलिस दमन, लाठी चार्ज, अश्रु गैस के गोले और जेल की सजा भोगी है। आपातकाल में मैं नेताजी के साथ हिसार (हरियाणा) की जेल में मीसाबंदी था, उनकी रिहाई से पहले ही मेरी रिहाई के आदेश आ गए। नेताजी ने मुझे एक खत देकर कहा कि इसको अटल बिहारी वाजपेई, चंद्रशेखर और एक बड़े नेता जिनका मैं नाम भूल रहा हूं, को जाकर देना और कहना कि वह श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली से चुनाव लड़े।
हिंदुस्तान का कोई बड़ा नेता इंदिरा जी के खिलाफ लड़ने को तैयार नहीं हुआ। आखिर में रिहाई के बाद राजनारायण जी ने हीं रायबरेली से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। अनेकों समर्थकों ने कहा की नेताजी आपको किसी अन्य सीट से चुनाव लड़ना चाहिए,रायबरेली से आप नहीं जीत सकते, उसके अतिरिक्त और किसी भी सीट से आप लड़ेंगे तो शर्तिया जीत जाएंगे। पर वे तो राजनारायण थे, खतरों से खेलने, हर बड़ी चुनौती को कबूल करना उनकी घुट्टी में था। रायबरेली से वह चुनाव लड़े और इंदिरा गांधी को चुनाव में शिकस्त दी।
जनता पार्टी सरकार में राजनारायण और मधुलिमये ये दो नेता थे, जिन्होंने आर.एस.एस. जनसंघ को ललकारा। इस पूरे प्रकरण में इन्होंने अपने लिए कुछ नहीं चाहा, परंतु जहां सिद्धांतों का सवाल था, यह मुमकिन नहीं था कि ये चुपचाप बैठ जाते। इस कारण तात्कालिक रूप से इन्होंने विरोधियों को छोड़िये, अपनों के लांछन, लानत विरोध को भी सहा। आज मोदी राज में बार-बार इनको याद किया जा रहा है। अपने और विरोधियों को अपनी ग़लती का एहसास होना लाज़मी है।
काशी नरेश के वंशजों के मालदार जमींदार घराने में जन्म लेने वाले राजनारायण ने समाजवाद की शुरुआत पुश्तैनी रूप से मिली, अपनी खेती की जमीन को जोतने वाले मजदूरों मे बांट दी थी। काशी विश्वनाथ मंदिर में जातिवाद का विरोध करते हुए दलित प्रवेश को लेकर जो आंदोलन किया था उसमें पंडों ने इनकी दाढ़ी पकड़कर घसीटा घायल अवस्था में होते हुए भी यह डटे रहे। यूपी विधानसभा का सर्वाधिक प्रभावशाली चर्चित विधायक होने के बावजूद इसी कारण बाद में इनको चुनाव में शिकस्त का सामना करना पड़ा।
राजनारायण जी के साथ हुए इन हादसों की एक लंबी फेहरिस्त है। नेताजी के इन बहादुराराना कार्यों, सादगी, अपने कार्यकर्ताओं के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहने, तथा फकीरीपन के कारण आज भी अनेकों ऐसे कार्यकर्ता है, जो उनकी याद की मशाल जलाये रखते हैं। लखनऊ के मेरे सोशलिस्ट साथी, शाहनवाज कादरी फख्र के साथ, बाकायदा ‘लोकबंधु राजनारायण के लोग’ का बोर्ड लगाकर नेताजी के साहित्य को इकट्ठा कर किताब की शक्ल में छापते हैं। उनकी एक बहुत ही महत्वपूर्ण किताब, ‘राजनारायण एक नाम नहीं इतिहास है’, प्रकाशित हुई हैl तथा कई योजनाएं नेताजी की याद में वे चलाते रहते हैं। प्रमुख पत्रकार कई अखबारों के संपादक रहे, साथी धीरेंद्र नाथ श्रीवास्तव ने डॉक्यूमेंटो के आधार पर एक पुस्तक ‘लोकबंधु राजनारायण विचार पथ- एक,प्रकाशित की हैl इसी तरह की अनेकों पुस्तिका उनकी याद में बनी है, और बन रही है।
राजनारायण जी ने अपने समय के बड़े-से-बड़े सत्ताधीशों को धूल चटादी। वे चाहते तो, बड़ा से बड़ा पद, दौलत पा सकते थे, परंतु इनका जीवन, एक फ़क़़ीर की तरह था, कोई दौलत, ज़मीन-जायदाद इनकी अपनी नहीं थी इसके कारण ही इनके इंतक़ाल के बाद बनारस में निकली इनकी शवयात्रा में लाखों लोग शामिल थे। बीड़ी-सिगरेट, चाय तक की दुकाने बंद थी। पूरा बनारस शहर ठप्प था। सड़क के किनारे बैठने वाले मोची, धोबी, नाई जुलूस में -“‘इन्कलाब जिंदाबाद’, ‘राजनारायण जिंदाबाद,‘राजनारायण बोल रहा है, कमाने वाला खाएगा, लूटने वाला जाएगा,धन और धरती बट के रहेगी, भूखी जनता अब ना सहेगी, मांग रहा है हिंदुस्तान रोजी- रोटी और मकान, राष्ट्रपति का बेटा हो या चपरासी की संतान, सबको शिक्षा एक समान, गांधी लोहिया जयप्रकाश अमर रहे अमर रहे, आचार्य नरेंद्र देव अमर रहे अमर रहे।” जैसे गगनभेदी नारों से इस राजनीतिक सन्यासी को विदाई दे रहे थे।
भारत के भूतपूर्व शिक्षा एवं विदेश मंत्री तथा मुंबई हाई कोर्ट के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश रहे एम, सी छागला ने संसद में राजनारायण के संसदीय कौशल को देखकर अपनी किताब “रोजेज इन दिसंबर”” में लिखा की “सरकार के विरोधी सांसदों में श्री राजनारायण उग्र वह बेजोड़ थे। वह साधारण व कम महत्व के सवालों को भी आंधी में बदल दिया करते थे। उनकी सवालों की तैयारी वह संसदीय नियमों की जानकारी बेजोड़ थी। आज वह सदन में नहीं है ंतो राज्यसभा बेजान लगती है।”
सोशलिस्ट तहरीक में शुरू से आखिर तक साथी रहे, मधुलिमए ने लिखा है “मैं राजनारायण जी को इतने लंबे समय से जानता हूं कि मुझे याद नहीं कि मैं उनसे पहली बार कब मिला था। शायद हम 1947 में कानपुर समाजवादी सम्मेलन में मिले थे। “राजनारायण जी अद्वितीय और वास्तव में एक बहुमुखी व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व के हर पहलू के विशेष आयाम थे। वह असाधारण गुणों के व्यक्ति थे उनका जीवन रेखाचित्र बहुत गहरे रंगों में रंगा हुआ था। उनके पास जबरदस्त शारीरिक उर्जा थी उनकी सहनशक्ति बेमिसाल थी। उनमें घंटों अथक परिश्रम करने की अद्भुत क्षमता थी उनमें बहुत गंभीर और उत्तम गुण थे।”
राममनोहर लोहिया ने राजनारायणजी को मार्शल द्वारा सदन से बाहर फेंके जाने पर कहां था, “कमाल है उसका जिसने एक उंगली तक नहीं उठाई, संविधान की रक्षा करते हुए जो तरीका अपनाया उसे देखकर कहना पड़ता है कि उसने शेर का दिल और गांधी का तरीका पाया है। जब तक देश में राजनारायण जैसा आदमी है तानाशाही संभव नहीं है।”
संतति और सपत्ति के मोह से दूर राजनारायण की सारी शख्सियत को कबीर दास के इस दोहे से समेटा जा सकता है,-‘ कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाटी हाथ, जो घर जारे आपना चले हमारे साथ।’