प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की स्मृति को जिंदा करते हुए उसके संरक्षित भग्नावशेषों से लगभग बीस किलोमीटर दूर बिहार के राजगीर जिले में राज्य सरकार द्वारा दी गई जमीन पर खड़ा हुआ इसका नया परिसर बहुत सुंदर है। इसके लिए अधिग्रहीत 485 एकड़ जमीन में एक बड़ा हिस्सा तालाब के लिए छोड़ा गया है। अभी परिसर में खड़ी इमारतें कुछ सूनी सी लग रही हैं क्योंकि निर्माणाधीन जगह पर हरियाली कम है और छात्रों-शिक्षकों की संख्या भी ज्यादा नहीं है। लेकिन इस बार की बरसात में ही घास और थोड़े-बहुत पेड़-पौधे इसकी शक्ल बदल देंगे। बस, किसी तरह छात्रों में इसके प्रति आकर्षण पैदा हो जाए, फिर नालंदा की स्मृति का अर्थ धीरे-धीरे कुछ और ही हो जाएगा।
समस्या अभी एक ही है कि इस पोस्ट-ग्रैजुएट यूनिवर्सिटी को लेकर महानगरों में कोई चर्चा नहीं है। पढ़ाई शुरू हुए दस साल होने को आए। कुछ बैच निकल भी गए। लेकिन बिहार के कुल 24 विश्वविद्यालयों में ही इसकी रैंकिंग 19वीं से ऊपर नहीं जा पाई है। अभी यहां इतिहास, पर्यावरण, मैनेजमेंट, दर्शन और धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन, बौद्ध अध्ययन, भाषा और साहित्य जैसे विभाग हैं। शुरू में यहां पढ़ने को लेकर एक हलचल भी दिखी थी। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और बीएचयू से ग्रैजुएशन के बाद इस सेंट्रल यूनिवर्सिटी में हिस्ट्री या फिलॉस्फी से एमए में दाखिले को लेकर छात्रों में बातचीत होती थी। लेकिन अभी श्रीलंका और भूटान से बौद्ध अध्ययन में डिप्लोमा के लिए आए छात्र ही ज्यादा दिखाई देते हैं।
करिअर और ज्ञान, दोनों दृष्टियों से नालंदा यूनिवर्सिटी टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस) या जेएनयू बनने की दिशा में बढ़ती नहीं दिख रही है तो इसकी क्या वजह हो सकती है? एक तो यह कि अभी तक यूनिवर्सिटी का अपना कोई कैंपस नहीं था और शुरू में नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन, फिर सिंगापुर के पूर्व विदेशमंत्री जॉर्ज येओ जैसे कुलपतियों का जो आकर्षण था, 2017 के बाद से वह भी जाता रहा। विश्वविद्यालय के संचालन का काम नियमतः उपकुलपति का होता है, लेकिन इस पद पर नियुक्तियां भी पिछले कई वर्षों से बहुत पैदल किस्म की होने लगी हैं। और तो और, पिछले एक साल से नालंदा विश्वविद्यालय में कोई वाइस-चांसलर भी नहीं है।
इसे अगर ‘टीथिंग ट्रबल’ यानी शुरुआती दिनों की दिक्कत मान लिया जाए तो अभी जल्द से जल्द इसे दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। इतनी बड़ी जमीन पर 1749 करोड़ रुपये लगाकर खड़ा किए गए कैंपस को किसी हल्केपन के हवाले नहीं छोड़ना चाहिए। उच्च शिक्षा के एक प्रतिष्ठित संस्थान की छवि उसके शुरुआती सालों में ही बन जाती है। कैंपस खड़ा हो जाने के बाद एक-दो साल की ढील भी जानलेवा हो सकती है।
डंडीमार सोच
कुछ चीजें इस विश्वविद्यालय की अवधारणा स्थिर होने के बाद से बुनियादी तौर पर बदल चुकी हैं लेकिन उनके बारे में चर्चा करना किसी को नियतिवादी दृष्टिकोण अपना लेने जैसा लग सकता है। सन 2006 में तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने बिहार विधानसभा को दिए गए अपने संबोधन में नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने की चुनौती पेश की थी और विधानसभा ने इसके लिए जमीन उपलब्ध कराने का फैसला किया था। फिर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की पहल पर अमर्त्य सेन को जोड़ते हुए पूर्वी एशिया के बौद्ध देशों का एक जुटान बनाया गया, जिसमें नालंदा की मूल भावना के तहत एक इंटरनेशनल प्रॉजेक्ट के रूप में मिल-जुलकर इसके लिए फंड जुटाने और न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप के साथ लगभग स्वायत्त ढंग से इसे संचालित करने का फैसला किया गया।
2011-12 के नालंदा यूनिवर्सिटी ऐक्ट में राष्ट्रपति को इसका विजिटर बनाया गया और अगले दस वर्षों में इसपर 2710 करोड़ रुपये खर्च करने की बात कही गई। बीच में कोरोना महामारी ने खर्चे को उस स्तर तक नहीं जाने दिया, यह बात समझ में आती है, लेकिन इसका अंतरराष्ट्रीय पहलू खत्म हो जाना समझ में नहीं आता। विश्वविद्यालय का आर्किटेक्चर बहुत अच्छा है। पद्मविभूषण वास्तुकार बीवी दोशी ने ‘नेट जीरो एनर्जी, नेट जीरो वाटर, नेट जीरो वेस्ट’ कैंपस के रूप में इसे डिजाइन किया है। लेकिन अभी सबसे बड़ा सवाल इसकी अकेडमिक साख और व्यावहारिक उपयोगिता का है, जो दुर्भाग्यवश उलटी दिशा में ही जाती दिखाई पड़ रही है।
ध्यान रहे, नालंदा विश्वविद्यालय की स्मृति को पुनर्जीवित करने का प्रथम प्रयास 1950 ई. में देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की पहल पर ‘नव नालंदा महाविहार’ की स्थापना के रूप में किया गया था। आज भी यहां सारे आयोजन वेदपाठ और भगवान बुद्ध की प्रार्थना के साथ शुरू होते हैं। इस उम्मीद में कि इसके जरिये प्राचीन भारत की दोनों मुख्य परंपराओं में परस्पर सम्मान का संदेश जाएगा। लेकिन अभी इस परिसर का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी राजनीतिक विचारधारा को तरजीह दी और आगे परिसर का कुछ अलग ही उपयोग किए जाने का संकेत दिया।
ज्ञान और आग
ईसा की बारहवीं सदी के अंत और तेरहवीं सदी की शुरुआत में नालंदा के विनाश के साथ विदेशी आक्रमण की कुछ कड़वी यादें जुड़ी हैं। इन यादों का खाका उस दौर के तुर्क इतिहासकारों की लिखाई से ही बना था, लेकिन देश की राजनीतिक मुख्यधारा ने समाज को एकजुट रखने के लिए बिना कुछ कहे इन्हें तूल न देने का फैसला किया था। प्रधानमंत्री ने उसकी इस दूरदृष्टि को किनारे रखकर अपने उद्घाटन भाषण में उसी जख्म को अपनी इस बात से कुरेदा कि- ‘नालंदा का नया परिसर इस बात का प्रमाण है कि ज्ञान को आग से भी नष्ट नहीं किया जा सकता।’
विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन और एशिया के प्रतिष्ठित राजनयिक जॉर्ज येओ ने इस प्रॉजेक्ट से यूं ही नहीं अपना पीछा छुड़ा लिया था। अमर्त्य सेन को नोबेल पुरस्कार अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते मिला था। उन्होंने 1998 में डॉ. सेन को प्रधानमंत्री आवास में भोजन पर बुलाया और उन्हें भारतीय रेलवे और एयर इंडिया से आजीवन मुफ्त यात्रा करने के पास सौंपे। नालंदा विश्वविद्यालय के प्रॉजेक्ट से जुड़ने के बाद अमर्त्य सेन ने उसके कोष से एक भी पैसा खर्च न करने की बात कही और उसपर कायम रहे। लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के थोड़ा पहले से ही उनके भक्तों ने सोशल मीडिया पर यह मुहिम चला दी कि अमर्त्य सेन एयर इंडिया को लूट रहे हैं और नालंदा के फंड से तो उन्होंने 2700 करोड़ रुपये खा डाले!
कोई मतिमंद व्यक्ति ही इसके बाद इस तरफ झांक सकता था। असल में, 2002 के गुजरात दंगों के बाद से डॉ. सेन ने अपने बयानों में बीजेपी और मोदी के प्रति लगातार सख्ती बरती थी, सो अपनी बारी आने पर मोदी सरकार ने अमर्त्य सेन के इर्दगिर्द बयानबाजी और कागजी कार्रवाइयों का ऐसा व्यूह रचा गया कि उनके साथ-साथ पूर्वी एशिया के राजनेता, राजनयिक और नालंदा के नाम से आकर्षित होने वाले कुलीन जन भी इसमें अरुचि दिखाने लगे।
ध्रुवीकरण की मार
प्रधानमंत्री की यह बात सही है कि ज्ञान को आग से नष्ट नही किया जा सकता, लेकिन इतिहास में उसे नष्ट करने के नए-नए तरीके हमेशा ही खोजे जाते रहे हैं। यह न होता तो ज्ञान परंपराओं को पुनर्जीवित करने की जरूरत नहीं पड़ती। ऐसे तरीकों में सबसे आसान है विस्मृति, जिसके लिए पोलराइजेशन यानी धार्मिक, राजनीतिक और वैचारिक ध्रुवीकरण सबसे अचूक नुस्खे की भूमिका निभाता रहा है। इस नुस्खे के तहत पहले संस्थाओं और पद्धतियों के छोटे-छोटे ब्यौरे भुलाए जाते हैं, फिर एक दिन मूल को ही घूरे पर डाल दिया जाता है।
ईसा की पांचवीं सदी की शुरुआत से तेरहवीं सदी की शुरुआत तक जैसे-तैसे आठ सौ साल चल जाने वाला नालंदा विश्वविद्यालय सिर्फ एक शिक्षा केंद्र नहीं, खुद में एक जीती-जागती सामाजिक अवधारणा था। शिक्षा को सिर्फ दो जातियों के लिए आरक्षित चीज मानने वाले, ‘ईश्वर निर्मित’ वर्ण-व्यवस्था के अनुयायी इस देश में नालंदा ने ऐसी शिक्षा व्यवस्था कायम की, जहां शिक्षकों और छात्रों की जाति तो क्या नस्ल भी नहीं देखी जाती थी। जन्मना विषमता पर आधारित जाति-वर्ण व्यवस्था के खिलाफ सबसे तीखी वैचारिक लड़ाई भी इसी विश्वविद्यालय के आचार्यों अश्वघोष, धर्मकीर्ति और सरहपा ने लड़ी। उनकी बची-खुची रचनाएं आज भी इसकी तस्दीक करती हैं।
चीनी, बर्मी, श्रीलंकाई, कोरियाई, तिब्बती और तुर्क पृष्ठभूमि के लोगों ने यहां पढ़ाई की और अपने समाजों में इसकी परंपरा की जड़ रोपी। नालंदा विश्वविद्यालय को कम से कम दो बार स्थानीय लोगों ने जलाया- एक बार पांचवीं सदी में कुछ विद्वेषी ब्राह्मणों ने और एक बार बंगाल के राजा शशांक गौड़ ने- लेकिन तब इसकी मरम्मत करके काम लायक बना दिया गया। फिर तीसरी बार, जब निरंतर उपेक्षा से सिर्फ इसका खोखल बचा था, विदेशी हमले में इसे तबाह किया गया और इसके साथ-साथ बुद्ध का धर्म भी भारत से लुप्त हो गया।
पूरे पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया में आज भी इस बात पर आश्चर्य किया जाता है कि बुद्ध के देश में उनकी धारा से निकले ग्रंथ कहां चले गए? छह सौ साल कोई उनका नाम लेने वाला भी क्यों नहीं था। अभी वाले पुनरावतार में नालंदा का क्या होगा, कौन जानता है। लेकिन निरंतर विरोध के बीच, वध्य होने की अपनी नियति के बावजूद नालंदा इसी देश, इसी समाज से उपजा था। लिहाजा दुनिया भर में लगातार खोजी जा रही ऐतिहासिक सामग्री की रोशनी में हमें न केवल उसकी बारीकियों को ठीक से समझने की कोशिश करनी चाहिए, बल्कि मौका मिलते ही इस नई पहल में भी नई जान डालनी चाहिए।
(चंद्रभूषण वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)