
दिल्ली एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही आपको एक छोटा सा लेकिन अत्याधुनिक मोहल्ला दिखाई देगा जिसका नाम एयरोसिटी है। इस एयरोसिटी में कोई एक दर्जन से अधिक फाइवस्टार होटल, फूड कोर्ट, आधुनिक ऑफिस इत्यादि बनाये गये हैं।
इस एयरोसिटी में आने के बाद आप सहसा भूल ही जाते हैं कि आप उसी दिल्ली में है जिसकी आधी आबादी ऐसी कच्ची कालोनियों में रहती है जहां शहर के मानक के अनुकूल कोई सुविधा नहीं है। लेकिन इन्हीं अभावग्रस्त मोहल्लों के बीच हवाई यात्रा करनेवाले बिजनेस ट्रैवेलर्स ने अपने लिए छोटा सा यूरोप विकसित कर लिया है।
यह दिल्ली के दो तल हैं जिनका आपस में कोई मिलन नहीं है। दुर्भाग्य से ये दो तल आपको मुंबई में भी मिलेगा और बंगलौर में भी। सवाल ये उठता है कि भारत सरकार ऐसी कोई सी नीतियां बना रही है जिसमें एक ओर यूरोप के मानकों पर छोटे छोटे कस्बे विकसित हो रहे हैं तो दूसरी ओर कच्ची कालोनियों और झुग्गी का अथाह महासागर उमड़ रहा है?
और अगर एक ही शहर दिल्ली के ये दो तल हैं तो भारत के सुदूर गांवों में असमानता का स्तर क्या है? क्या इस असमानता से भारत सरकार के वो शासक परिचित हैं जो लुटियंन्स जोन में बैठकर नीतियां बना रहे हैं और संसद में ध्वनिमत से पारित करवा रहे हैं?
इस सवाल के जवाब में वर्तमान कृषि कानूनों में कथित सुधार और उसके विरोध में सड़क पर उतरे किसान का मर्म भी समझ में आयेगा। ये कहना आसान है कि इन किसानों को कांग्रेस समर्थन दे रही है। कांग्रेस समर्थन दे रही है तो गलत क्या कर रही है? विपक्ष में बैठे राजनीतिक दल आंदोलनों का समर्थन नहीं करेंगे तो कौन करेगा?
हमारे लिए यह जानना महत्वपूर्ण नहीं है कि कौन सा राजनीतिक दल राजनीति कर रहा है, हमारे लिए ये जानना महत्वपूर्ण है कि किसानों के लिए बनाये गये कानून से किसान का कितना भला होगा और उन्हें विरोध का अधिकार है या नहीं?
शुरुआत पहले सवाल से करते हैं। मोदी किसान नेता के रूप में नहीं जाने जाते। उनकी पहचान कॉरपोरेट घरानों के नेता के रूप में रही है। दिल्ली के पॉवर कॉरीडोर में वो कॉरपोरेट घरानों के सबसे विश्वसनीय चेहरे हैं। मोदी मानते हैं कॉरपोरेट पूंजीवाद ही भारत का भविष्य है इसलिए वो इसी दिशा में तेजी से काम कर रहे हैं। कांग्रेस भी काम यही कर रही थी लेकिन बच बचाके।
भूलना नहीं चाहिए कॉरपोरेट पूंजीवाद की शुरुआत भारत के कथित आर्थिक सुधारों के जनक कहे जानेवाले मनमोहन सिंह ने ही किया था। यह किसी पार्टी नहीं बल्कि भारत सरकार की नीति है इसलिए जो आता है भारत में आर्थिक सुधार की दिशा में आगे बढ जाता है।
समाजवादी अर्थव्यवस्था की इतनी तल्ख यादें हमारे साथ जुड़ी हैं कि निजीकरण में ही सबको मोक्ष नजर आ रहा है। निजीकरण का यही दायरा अब फैलते फैलते खेत खलिहान तक पहुंच गया है। खेती के उत्पादन पर अब कंपनियों की नजर है। उन्हें कच्चा माल चाहिए और अपनी शर्तों पर चाहिए तो खेती में प्रवेश जरूरी है।
कृषि विधेयक के वर्तमान तीन कानून किसान के खेत में कंपनियों के प्रवेश का दस्तावेज है। कम लोगों को याद होगा कि प्रधानमंत्री बनते ही मोदी ने जो पहला कानून पारित करवाना चाहा था वह भूमि अधिग्रहण का कानून था।
मोदी भूमि अधिग्रहण कानून में कुछ ऐसे बदलाव करना चाहते थे कि किसान चाहकर भी अपनी जमीन को अधिग्रहण से बचा न पाये। लेकिन उस समय कांग्रेस के विरोध के कारण वह भूमि अधिग्रहण कानून पारित नहीं हो पाया। लेकिन इस बार कांग्रेस संसद में किसान विधेयक को नहीं रोक पायी। ये विधेयक पारित हुए तो इसे लागू होने से रोकने के लिए किसानों को दिल्ली के दरवाजे तक पहुंचना पड़ा।
आज इस बात का आंकलन कर पाना मुश्किल है कि ये तीन कानूनी संशोधन किसान की आय कितनी बढायेंगे लेकिन एक बात तो बिल्कुल साफ दिख रही है कि खेतों में कंपनियों के प्रवेश का कानून है। अगर बीते बीस साल का इतिहास देखें तो साफ दिखता है कि खेत में कंपनियों और बैंकों का प्रवेश शुभ नहीं रहा है। महाराष्ट्र में कपास के खेत में कंपनियों और बैंकों को प्रवेश मिला था। परिणाम ये हुआ कि देश को लगभग सवा लाख किसान की लाश उठानी पड़ी।
इस बार तो न सिर्फ कान्ट्रैक्ट फार्मिंग के दरवाजे खोले जा रहे हैं बल्कि कंपनियों को असीमित भंडारण का अधिकार भी दे दिया गया है। इतने अधिकार संपन्न होने के बाद किसान ही नहीं, उपभोक्ता भी घाटे में ही रहने वाला है।
आज मोदी द्वारा जिन कथित बिचौलियों को हटाने का हवाला दिया जा रहा है, वो तो छोटे मोटे आढतिये हैं, हट जाएंगे लेकिन कानून बनाकर मोदी जिन बिचौलियों को बिठाने जा रहे हैं उन्हें हटाने के लिए कौन कानून बना पायेगा?
वैसे भी लुटियन्स जोन स्थित कृषि भवन में किसान नहीं जाते। वहां जाते हैं कंपनियों और कॉरपोरेट घरानों के अधिकारी कर्मचारी जिनके लिए बाबुओं के केबिन में कुर्सियां लगाई जाती हैं। किसान गया भी बाहर से भवन देखकर लौट आता है।
ऐसे माहौल में सिर्फ नेता से ही ये उम्मीद रहती है कि वो लुटियन्स जोन में देश के आम आदमी और किसान मजदूर की आवाज बनेगा। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी जैसा नेता अगर लुटियन्स जोन में बैठकर किसान हितैषी होने की बात करे तो सहसा भरोसा करना मुश्किल होता है। ऐसे में अगर किसान संदेह व्यक्त कर रहे हैं तो क्या गलत कर रहे हैं?
किसान आंदोलन में मचे या मचाये गये उपद्रव से किसान आंदोलन का महत्व कम नहीं हो जाता। किसान को पूरा अधिकार है कि वो दम खम से अपना विरोध दर्ज करवाते रहे। लुटियन्स जोन को ये अहसास रहना जरूरी है कि वो मुट्ठीभर कंपनियों और कॉरपोरेट घरानों की एजंट नहीं बल्कि इस देश के सवा सौ करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करती है।