
गांधीजी ने कहा था, “मैं भारत के लिए काम करूंगा जिसमें निर्धन लोग यह महसूस कर सकें कि यह उनका देश है। जिसके निर्माण में उनकी प्रभावकारी वाणी रही है, वह भारत जिसमें लोगों की कोई उच्च व निम्न श्रेणी नहीं है, वह भारत जिसमें सभी लोग मित्र भाव से रहते हैं। ऐसे भारत में जहां जाति अभिशाप अथवा अस्पृश्यता, नशा और नशीले पदार्थों के सेवन का अभिशाप न हो और जहां पुरुष और महिलाएं समान अधिकार का आनन्द उठा सकें”। निश्चय ही यदि ‘बा और बापू’ जीवित रहते तो वे अब भी अपने सपनों के भारत के लिए कार्य कर रहे होते।
महात्मा गांधी अपने तमाम तरह के निजी अनुभवों के उपरांत, वंचित-तबकों को रूढ़ियों और कुप्रथाओं से मुक्त कराने और उनके ‘व्यक्तित्व विकास’ के हिमायती बने। जिस दौर में महिलाओं पर तमाम तरह की बंदिशें थीं, उस दौर में महिलाओं को सार्वजनिक स्थान पर आने और स्वतन्त्रता आंदोलन में भाग लेने का अवसर दिलाने का श्रेय ‘बा और बापू’ को ही जाता है। दरअसल, गांधीजी विलायत में चल रहे मताधिकार के लिए वहां की महिलाओं के अहिंसक आंदोलन से प्रभावित हुए और कस्तूरबाई को भी इस तरह की तमाम गतिविधियों से अवगत कराया और कस्तूरबाई को भी अपने तमाम तरह के गतिविधीयों में भागीदार बनने की सलाह दी। कस्तूरबाई ने भी अपनी ‘पत्नी-धर्म’ का पालन करते हुए गांधीजी का भरपूर साथ निभाया।
इन्होंने पहले दक्षिण अफ्रीका फिर भारत में चल रहे स्वतंत्रता आन्दोलन में महिलाओं को शामिल किया। देश के विभिन्न शहरों में राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तरों पर अनेक सम्मेलन आयोजित किए गए। इसका नतीजा यह हुआ कि महिलाओं ने शराबबंदी के साथ विदेशी कपड़ों की होली जलाने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। नमक आंदोलन के दौरान जब गांधीजी गिरफ्तार कर लिए गए तो उनके बाद ‘सत्याग्रह’ की कमान सरोजिनी नायडू ने संभाली। गांधीजी के साथ अनेक महिलाएं थीं जो उनके प्रयोग की साक्षी और सहभागी रहीं। सरला देवी ने खादी के प्रचार-प्रसार के साथ गांधीजी की देखभाल भी की। इनके अलावा राजकुमारी अमृत कौर थीं जो, गांधीजी के लगातार संपर्क में थीं। नमक सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वे जेल गईं। आजाद भारत की पहली स्वास्थ्य मंत्री बनीं।
गांधीजी की निजी डाक्टर सुशीला नायर थीं। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वे कस्तूरबा के साथ जेल भी गईं। गांधीजी जिन दो महिलाओं के कंधे पर हाथ रखकर चलते थे। उनमें से एक ‘आभा’ जन्म से बंगाली थीं। आभा, गांधीजी के साथ नोआखाली यात्रा में थीं। आभा के साथ मनु भी थी जो महात्मा गांधी की दूर की रिश्तेदार थी। विदेशी महिलाओं में एक बड़े ब्रिटिश अफसर की बेटी मेडलीन स्लेड थीं, जिन्हें गांधीजी, मीराबेन कहते थे। वह प्रसिद्ध लेखक रोम्या रौलां की पुस्तक पढ़कर गांधीजी के साथ उनके आश्रम में रहने आ गई थीं । जिस तरह से गांधीजी एक कुशल नेता के तौर पर अपनी भूमिका निभाई उसी तरह कस्तूरबाई भी एक ‘कुशल नेत्री और मार्गदर्शिका’ के तौर पर गांधीजी एवं आमजन के लिए अपनी भूमिका निभाईं।
दरअसल, गांधीजी के भारत आने के पूर्व आजादी की जो लड़ाई चल रही थी, वह पूरी तरह पुरुष केंद्रित थी। अस्पृश्यता (छूआछूत) के कारण दलित महिलाओं की दशा अत्यंत दयनीय तो थीं ही, बाकी महिलाएं भी दहेज, बाल विवाह, वैधव्य और परदा प्रथा जैसी तमाम बुराइयों से त्रस्त थीं। ऐसे में उन्हें स्वतंत्र करने और सभी स्तरों पर समानता का मौका देना तो दूर, उनकी बात तक नहीं होती थी। लेकिन, जब ‘बा और बापू’ भारत में सक्रिय हुए तो उन्होंने स्त्रियों को स्वाधीनता-आंदोलन से जोड़ा। कस्तूरबाई की खासियत यह रही की, वह ‘पत्नी-धर्म’ का पालन जरुर की लेकिन, अपनी शर्तों पर और अपने पति के साथ-साथ रैलियों,उपवासों, कारावास हर जगह सक्रिए भूमिका भी निभाई। इतना ही नहीं वह एक कुशल नेत्री की भांति गांधीजी के विचार को अपनाने वाले आमजन को भी समय-समय (रैलियों, आंदोलनों, इत्यादि में) पर संबोधित भी करती थीं और मार्गदर्शन भी देती रहीं।
अहिंसा, ‘बा और बापू’ की केवल कल्पना मात्र नहीं थी बल्कि, यह विश्वास की वस्तु, अस्तित्व की शर्त और सांस्कृतिक आवश्यकता थी। गांधीजी ने एक तरह से बड़े स्तर पर ‘भारत में प्रथम नारीत्व आन्दोलन’ प्रारम्भ किया और उन्होंने ही सबसे पहले भारतीय महिलाओं को स्वतंत्रता संग्राम की ओर आकृष्ट किया। उनका कहना था कि यदि महिलाएं चाहें तो भारत में ब्रिटिश साम्राज्य एक मिनट में समाप्त हो सकता है। उन्होंने महिलाओं को सत्याग्रह में लाकर नशाखोरी, देवदासी प्रथा, बहुविवाह प्रथा आदि कुरीतियों के विरोध में आन्दोलन किया। ‘बा और बापू’ का मानना था कि, स्त्री को चाहिए कि वह स्वयं को पुरुषों के उपभोग की वस्तु मानना बन्द करें। इसका इलाज पुरुष की अपेक्षा स्वयं स्त्रियों के हाथ में है। स्त्री की स्वतंत्रता पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि स्त्री पुरुष की सहचरी है, उसकी क्षमताएं पुरुष के बराबर हैं। पुरुष के छोटे-से-छोटे कार्यकलाप में भाग लेने का उसे अधिकार है और जितनी स्वाधीनता का अधिकार पुरुष को है, उतनी ही अजादी की हकदार स्त्री भी है।
‘बा और बापू’ के साझा प्रयास से ही ये सब संभव हुआ। इनके अनुसार महिलाओं पर ऐसा कोई कानूनी प्रतिबंध नहीं लगाया जाना चाहिए जो पुरुषों पर न लगाया गया हो। पुत्रों और कन्याओं में किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए उनके साथ पूरी समानता का व्यवहार होना चाहिए। अत:, उस दौरान भी ‘बा और बापू’ मिलकर ‘जेंडर-विभेद’ के खिलाफ एक तरह से आवाज उठा रहे थे। हालांकि, स्त्रीवादी दृष्टिकोण से जब गांधीजी की विचारधारा पर बात की जाती है तो कुछ अलग तरह के तथ्य भी सामने आते हैं। जैसे, गांधीजी महिलाओं के किस प्रकार के विकास के हिमायती थे?
गांधीजी और कस्तूरबाई दोनों अपने-अपने पति और पत्नी धर्म का पालन तो किया पर, कहीं न कहीं कस्तूरबाई को अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए ‘संघर्ष’ तो करना पड़ा। जीवन के आरंभिक दौर में ही सही पर, उन्हें कई-कई बार पति के ‘पुरुषत्व’ के साथ समझौता तो करना पड़ा। हलांकि, गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में अपनी कमियों को स्वीकार भी किया है। गांधीजी अपनी आत्मकथा में लिखते भी हैं कि, ‘जिन दिनों मेरा विवाह हुआ, उन दिनों निबंधों की छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ निकलती थीं जिसमें दंपत्ति-प्रेम, कमखर्ची, बाल-विवाह के मुद्दे आदि पर चर्चा होती थी। उसमें से कुछ निबंध मेरे भी हाथ लगी। एक निबंध में यह लिखा था कि, एकपत्नी-व्रत का पालन करना पति का धर्म होता है। यह बात मेरे किशोर मन में इस तरह बैठ गई कि, मैंने अपनी पत्नी को कभी भी धोखा देने की सोची तक नहीं। पर, इस विचार का बुरा परिणाम इस रूप में निकला कि, मैं ‘पालन करना चाहिए’ की भावना से ‘पालन करवाना चाहिए’ के विचार पर पहुँच गया। अर्थात, अगर मुझे एकपत्नी-व्रत पालना है तो पत्नी को भी एकपति-व्रत का पालन करना ही चाहिए। इस विचार ने ही मुझे एक ईर्ष्यालु पति बना दिया और यहीं से मेरे अंदर ‘पुरुषत्व’(Patriarchal mindset) की भावना व्याप्त हो गई’।
मुझे बहुत बाद में समझ में आया कि, दरअसल पतित्व सिद्ध करना इसी को कहते हैं। ऐसा नहीं था कि, हम किशोर दंपत्ति के गृहस्थ-जीवन में प्रेम नहीं था। दरअसल मेरी वक्रता की जड़ ही प्रेम में थी। मैं अपनी पत्नी को आदर्श बनाना चाहता था। मेरी भावना यह थी कि, मेरी पत्नी स्वच्छ बने, स्वच्छ रहे, मैं जो पढ़ूँ वो भी पढ़े, मेरे अंदर जो भी चाहत है उसके अंदर भी जगे और हम दोनों एक-दूसरे में ओतप्रोत रहें। विवाह के उपरांत सर्वप्रथम मैं पति की ‘सत्ता’ चलाना शुरू कर दिया ’। हालांकि, तमाम तरह की गलतियों का एहसास होने के बाद उन्होंने कस्तूरबाई के स्वतंत्र अस्तित्व को भी स्वीकारा और कस्तूरबा को ही ‘अहिंसा का पहला पाठ पढ़ाने वाली शिक्षिका’ घोषित किया।
वैसे तो बापू की 151वीं जयंती को यादगार बनाने के लिए देशभर में तमाम तरह के आयोजन किए जा रहें हैं लेकिन, हमें इस तरफ भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि कितने लोग वास्तव में गांधी के विचारों को अपने जीवन में आत्मसाथ कर पाएँ हैं? गांधी जी की भांति अपने विचारों में दृढ़ता, अपनी कमियों को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार कर पाना, साझा किए गए विचार को व्यवहार में भी लाना वर्तमान में कितने प्रतिशत लोगों के भी संभव हो पा रहा है ? वजह जो भी हो पर हमें गंभीरता से इन महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर भी विचार और आत्मसाक्षात्कार करने की आवश्यकता है ताकि, तमाम तरह के वादों की भांति बा और बापू के विचार भी सिर्फ एक वाद ही न बनकर रह जाए। हमें उन रास्तों को तलाशने की जरूरत है जिसके माध्यम से हम बा और बापू के सपनों को सच्चे अर्थों में साकार कर सकें।