न्यायाधीशों को यौन हिंसा मामले में प्रतिक्रिया देने से पहले खुद को पीड़ित की जगह रखना चाहिए: एजी

‘‘बार और बेंच की लैंगिक संवेदनशीलता-विशेषकर पीड़ित के प्रति न्यायिक सहानुभूति के भाव पैदा करने के लिये न्यायाधीशों को खुद को पीड़ित की जगह रखना चाहिए और यह सोचना चाहिए कि मानो यह अपराध उनके अपने परिवार के किसी सदस्य के साथ हुआ है।’’

नई दिल्ली। अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने लैंगिक संवेदनशीलता की हिमायत करते हुये बुधवार को उच्चतम न्यायालय से कहा कि यौन हिंसा के अपराध के प्रति अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करते समय न्यायाधीशों को खुद को पीड़ित की जगह रखकर यह सोचने की आवश्यकता है कि मानो यह अपराध उनके अपने परिवार के सदस्य के साथ हुआ है।

न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति एस रवीन्द्र भट की पीठ के समक्ष अटॉर्नी जनरल ने कहा कि न्यायपालिका में महिलाओं का अधिक प्रतिनिधित्व भी यौन हिंसा से संबंधित मामलों के प्रति ज्यादा संतुलित और सहानुभूति वाला दृष्टिकोण बनाने में महत्वपूर्ण हो सकता है।

उन्होंने कहा कि हमारे देश में अभी तक एक भी महिला प्रधान न्यायाधीश नहीं बनी है। उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 34 है लेकिन इसमें सिर्फ दो महिला न्यायाधीश ही हैं। उच्चतर न्यायपालिका में महिला न्यायाधीशों की संख्या हमेशा ही कम रही है।

अटॉर्नी जनरल ने सुझाव दिया कि अदालतों को जमानत पर रिहा करते समय सिर्फ वही शर्ते लगानी चाहिए जो कानून के अनुरूप हों और उन्हें दूसरी वजहों से नाना प्रकार की शर्ते नहीं लगानी चाहिए।

न्यायालय यौन हिंसा के मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा एक आरोपी को पीड़िता से राखी बंधवाने की शर्त पर जमानत देने के आदेश के खिलाफ दायर शीर्ष अदालत की अधिवक्ता अपर्णा भट सहित 11 महिला अधिवक्ताओं की याचिका पर सुनवाई कर रहा था। न्यायालय ने इसी मामले में अटॉर्नी जनरल से भी सुझाव मांगे थे।

अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल के सुझावों को सुनने के बाद न्यायालय ने कहा कि इस मामले में वह अपना फैसला बाद में सुनायेगा।

वेणुगोपाल ने यह भी सुझाव दिया कि पुरानी विचारधारा के न्यायाधीशों को इस विषय पर संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है और इसके लिये दो से तीन साल के प्रशिक्षण की जरूरत है।

उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत जमानत और अग्रिम जमानत सहित दो व्यापक मुद्दों पर प्रतिपादित सिद्धांतों के आधार पर और बार तथा बेंच को लैंगिक संवेदनीशलता के बारे में हस्तक्षेप करके दिशा निर्देश दे सकती है।

उन्होंने अपने लिखित कथन में कहा, ‘‘बार और बेंच की लैंगिक संवेदनशीलता-विशेषकर पीड़ित के प्रति न्यायिक सहानुभूति के भाव पैदा करने के लिये न्यायाधीशों को खुद को पीड़ित की जगह रखना चाहिए और यह सोचना चाहिए कि मानो यह अपराध उनके अपने परिवार के किसी सदस्य के साथ हुआ है।’’

उन्होंने कहा कि लैंगिक संवेदनशीलता के लक्ष्य को हासिल करना जरूरी है ताकि न्यायिक अधिकारियों, न्यायाधीशों और बार के सदस्यों (विशेष रूप से लोक अभियोजकों सहित) को घिसे-पिटे तर्कों, दुराग्रहों और दूसरे बेतुके तर्कों के बारे में जागरूक करना होगा और उन्हें न्यायिक फैसले की प्रक्रिया में इन्हें दरकिनार करना होगा।

वेणुगोपाल ने अपने 25 पेज के कथन में न्यायालय से कहा कि लैंगिक संवेदनशीलता के बारे में सभी स्तर के न्यायाधीशों के लिये प्रशिक्षण की आवश्यकता है और इसके लिये राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी तथा राज्य न्यायिक अकादमियों में नियमित अंतराल के बाद अनिवार्य रूप से प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किये जा सकते हैं।

अटॉर्नी जनरल ने लैंगिक असंतुलन का जिक्र करते हुये कहा कि जहां तक वरिष्ठ अधिवक्ता के मनोनयन का सवाल है, तो इस समय शीर्ष अदालत में 403 पुरुषों की तुलना में सिर्फ 17 महिला अधिवक्ता को ही यह सम्मान प्राप्त है। दिल्ली उच्च न्यायालय में 229 पुरुष वरिष्ठ अधिवक्ता हैं जबकि वरिष्ठ अधिवक्ता महिलाओं की संख्या सिर्फ आठ है। इसी तरह बंबई उच्च न्यायालय में 157 पुरुषों की तुलना में सिर्फ छह महिला वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।

उन्होंने इस असंतुलन को कम करने के उपाय के रूप में सुझाव दिया कि न्यायालय को निचली न्यायपालिका और अधिकरणों में महिला न्यायाधीशों और सभी उच्च न्यायालयों में वरिष्ठ पदवी वाली महिला अधिवक्ताओं के आंकड़े एकत्र करने का निर्देश देना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि न्यायपालिका में सभी स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़े।

First Published on: December 2, 2020 10:20 PM
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