बीते 6 सितम्बर को केरल के कन्नूर ज़िले में फ़िलिस्तीन के समर्थन में आयोजित प्रदर्शन को लेकर गर्ल्स इस्लामिक ऑर्गनाइज़ेशन (जी.आई.ओ) के ख़िलाफ़ पझायंगडी पुलिस स्टेशन में एफ़.आई.आर दर्ज की गयी। सुओ मोटो एफ़.आई.आर के तहत केरल पुलिस ने जी.आई.ओ के राज्य महासचिव, अफ़रा शिहाब और संगठन के 30 अन्य सदस्यों पर समाज में अशान्ति फैलाने का आरोप लगाया है।
इन सब पर बी.एन.एस की धारा 189(2) (ग़ैर-क़ानूनी सभा करना), 191(2) (जनसमूह द्वारा बल और हिंसा का प्रयोग करना) और 192 (दंगा भड़काने के इरादे से जानबूझकर उकसाना) आदि धाराएँ लगायी गयी हैं। ग़ौरतलब है कि फ़िलिस्तीन के समर्थन में होने वाले कार्यक्रमों को रोकने के लिए सत्तारूढ़ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) द्वारा यह क़दम उठाया गया है।
इस पूरे मामले ने एक बार फिर सामाजिक-जनवादी व संशोधनवादी नामधारी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीएम के जनविरोधी चरित्र और दोमुँहेपन को उजागर कर दिया है। इससे पहले भी केरल में फ़िलिस्तीन के समर्थन में होने वाले प्रदर्शनों पर रोक लगाने या प्रदर्शनकारियों पर बलप्रयोग करने से लेकर झूठे आरोप लगाने जैसे कुकर्म भी इस सामाजिक-जनवादी पार्टी द्वारा किया जाता रहा है।
लेकिन इनकी बेशर्मी और दोमुँहापन यहीं ख़त्म नहीं होता। अपना बचा-खुचा सामाजिक आधार और रही-सही राजनीतिक साख बचाने के लिए यही सीपीएम फ़िलिस्तीन के समर्थन का ढोंग करती है और अपनी पार्टी के सम्मेलन में फ़िलिस्तीन के समर्थन में प्रस्ताव भी पारित करती है! यही नहीं, बीच-बीच में कुछ रस्मी प्रदर्शन भी आयोजित करती है! केरल के मुख्यमन्त्री पिनाराई विजयन ख़ुद भी कई बार विभिन्न मंचों से फ़िलिस्तीन का समर्थन करते नज़र आयें हैं। पर दूसरी तरफ़ यही सीपीएम अपने शासित राज्य में फ़िलिस्तीन के समर्थन में हो रहे प्रदर्शनों का दमन कर रही है। “जनवाद” के मुखौटे के पीछे यही इनकी असल सच्चाई है।
यह अपने आप में कोई पहली घटना नहीं है, समय-समय पर सीपीएम के चेहरे से “जनवाद” का मुखौटा उतरता रहा है। उदाहरण के लिए, बीते 13 सितम्बर को केरल के कोच्चि में पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और वक़ीलों ने महाराष्ट्र एटीएस द्वारा गिरफ़्तार पत्रकार रेज़ाज एम. शीबा सिद्दीक़ी की रिहाई की माँग करते हुए और पत्रकारों पर बढ़ती दमनात्मक कार्रवाई व गिरफ़्तारियों के ख़िलाफ़ एक कार्यक्रम आयोजित किया।
कार्यक्रम के तुरन्त बाद ही केरल पुलिस ने वही क़दम उठाये, जिसके ख़िलाफ़ कार्यक्रम किया जा रहा था! पुलिस ने कार्यक्रम के आयोजकों और वक्ताओं के ख़िलाफ़ मामला दर्ज कर लिया। यह दर्शाता है कि सीपीएम जैसी संसोधनवादी पार्टी अपने पतन की पराकाष्ठा पर पहुँच चुकी है। उनका जनवाद या प्रगतिशीलता से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है।
देश के अन्य राज्यों में सीपीएम और उसके छात्र संगठन व ट्रेड यूनियन चना जोर गरम बाते करते हैं, पर केरल में आते ही इनकी आँखों पर गाँधारी वाली पट्टी बन्ध जाती है। केरल में सीपीएम ने भी अन्य चुनावबाज़ पार्टियों की तरह ही उदारीकरण-निजीकरण की जन-विरोधी नीतियों को धड़ल्ले से लागू किया है और लम्बे समय से सत्ता की मलाई चाट रही है। साथ ही “प्रगतिशीलता का चोला” ओढ़कर इन्होनें आम जनता में भी भ्रम बना कर रखा था, जो अब टूटता जा रहा है। सत्ता बचाने की ख़ातिर अब इनके मुख्यमन्त्री खुलकर खुशी-खुशी मोदी और अडाणी के साथ मंच साझा करते हैं।
बीते 2 मई को नरेन्द्र मोदी ने केरल के तिरुवनन्तपुरम में विझिनजाम अन्तर्राष्ट्रीय बन्दरगाह का उद्घाटन किया। इसी कार्यक्रम में केरल के मुख्यमन्त्री पिनाराई विजयन, अडानी समूह के अध्यक्ष गौतम अडाणी के साथ मौजूद थे। बता दें कि इसी विझिनजाम अन्तरराष्ट्रीय बन्दरगाह परियोजना के ख़िलाफ़ 2022 में सीपीएम और भाजपा ने मिलकर प्रदर्शन भी किया था। इसमें सीपीएम के ज़िला सचिव अनवूर नागप्पन और भाजपा ज़िलाध्यक्ष वी.वी राजेश ने एक साथ भागीदारी की थी। फ़ासीवाद और सामाजिक-फ़ासीवाद की गलबहियाँ देखते ही बन रही थी!
भाजपा के साथ सीपीएम को “रणकौशलात्मक एकता” बनाने में इसलिए भी समस्या नहीं है क्योंकि सीपीएम के अनुसार भाजपा कोई फ़ासीवादी पार्टी नहीं है। बीते फ़रवरी में सीपीएम ने एक ड्राफ़्टनोट जारी किया, जिसमें लिखा था- “हम ये नहीं कह रहे हैं कि मोदी सरकार फ़ासिस्ट या नियो-फ़ासिस्ट सरकार है। न ही हम भारत को ‘नियो-फ़ासिस्ट’ स्टेट के रूप में परिभाषित कर रहे हैं।
हम इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि आरएसएस की राजनीतिक शाखा भाजपा के 10 सालों के लगातार शासन के बाद, भाजपा-संघ ने सरकार और नीतियों पर अपना कण्ट्रोल स्थापित कर लिया है। इसके कारण ‘नियो-फ़ासिस्ट गुण’ दिखे हैं।” इससे समझा ही जा सकता है कि सीपीएम पूरी तरह पूँजीपतियों की गोद में जा बैठने के बाद अब और तत्परता के साथ पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पँक्ति की भूमिका निभा रही है।
संसद और विधानसभा के में बैठने वाली, राज्यों में सरकार बनाने वाली और केन्द्र सरकार में शामिल होने वाली और केवल इसी रास्ते से “क्रान्ति” को अंजाम देने वाली सीपीआई-सीपीएम जैसी सामाजिक-जनवादी पार्टियाँ पूँजीवादी नीतियों के विरोधी हो ही नहीं सकते हैं और न ही जनता के किसी भी वास्तविक लड़ाई से कोई लेना-देना ही है। इनका तो मज़दूर वर्ग और आम जनता से गद्दारी का काफ़ी पुराना इतिहास रहा है। ज्ञात हो कि नक्सलबाड़ी के समय बंगाल सरकार के उप-मुख्यमन्त्री रहे ज्योति बसु ने खेतिहर मज़दूरों और चाय-बागान मज़दूरों पर गोलियाँ चलवायीं थी और उनके विरोध और हक़ की लड़ाई का क्रूर दमन किया था।
नन्दीग्राम-सिंगूर संघर्षों के दौरान बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नन्दीग्राम में इण्डोनेशियाई कम्पनी सलेम की यूनिट और सिंगूर में टाटा नैनों के कारख़ाने लगवाने के लिए किसानों से जबरन ज़मीन हथियाने की कोशिश की और प्रतिरोध कर रहे ग़रीब किसानों पर गोलियाँ चलवायी। सलेम वही इण्डोनेशियाई कम्पनी है, जिसने सुहार्तो की तानाशाही के दौरान इण्डोनेशियाई कम्युनिस्ट पार्टी के क़त्लेआम में सुहार्तो की मदद की थी। यह है इनके लाल मुखौटे के पीछे छुपा असली चेहरा और इसलिए ये चाहे जितना भी लाल झण्ड़ा क्यों न लहरा लें और हँसिया-हथौड़ा की क़समें खा लें ये रंगे सियार बार-बार अपने आप को बेनक़ाब करते रहे हैं।
मज़दूर वर्ग के शिक्षक लेनिन के अनुसार, संशोधनवाद का मतलब होता है मार्क्सवादी खोल में पूँजीवादी अन्तर्वस्तु। संशोधनवादी, किसी न किसी रूप में, कभी खुले तौर पर तो कभी भ्रामक शब्दजाल रचते हुए, वर्ग-संघर्ष के बुनियादी ऐतिहासिक नियम को ख़ारिज करते हुए वर्ग-सहयोग की वक़ालत करते हैं, बल-प्रयोग और राज्यसत्ता के ध्वंस की ऐतिहासिक शिक्षा को नकारते हैं और क्रान्ति के बजाय शान्तिपूर्ण संक्रमण की वक़ालत करते हैं, या फिर क्रान्ति शब्द को शान्तिपूर्ण संक्रमण का पर्याय बना देते हैं।
संशोधनवादी इस सच्चाई को नकार देते हैं कि इतिहास में कभी भी शोषक-शासक वर्गों ने अपनी मर्ज़ी से सत्ता त्यागकर ख़ुद अपनी क़ब्र नहीं खोदी है और कभी भी उनका हृदय-परिवर्तन नहीं हुआ है। संशोधनवादी मज़दूर आन्दोलन में बुर्जुआ वर्ग के एजेण्ट का काम करते हैं। सीपीएम, सीपीआई, सीपीआई (एम.एल) लिबरेशन जैसी संशोधनवादी पार्टियाँ पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पँक्ति का काम करती हैं। आज के दौर में तो इनका ‘‘समाजवाद’’ और भी अधिक घिनौना हो चुका है।
केरल में फ़िलिस्तीन के समर्थन में हो रहे कार्यक्रमों के दमन ने एक बार फ़िर से सीपीएम की ग़द्दारी को बेपर्द करने का ही काम किया है। इसलिए आज मज़दूर वर्ग को यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि सभी प्रकार के संशोधनवादी और सामाजिक-जनवादी क्रान्तिकारी आन्दोलन के विभीषण, जयचन्द और मीर जाफ़र होते हैं। इसलिए आज देश की आम जनता के सामने इन विभीषणों, जयचन्दों और मीर जाफ़रों की सच्चाई उजागर करना भी बेहद ज़रूरी कार्यभार बनता है।
