
हिंदी साहित्य और पत्रकारिता जगत के लिए बुधवार 9 दिसम्बर का दिन मनहूस ही साबित हुआ क्योंकि इसी दिन हिंदी के 72 वर्षीय जन कवि मंगलेश डबराल हम सबके देखते -देखते को कोरोना से जंग हार कर इस दुनिया को ही अलविदा कह कर चले गए। उनके साथ ही पहाड़ की लालटेन भी हमेशा के लिए बुझ गई है।
पिछले कई दिन से हिंदी कोरोना से जूझ रहे हिंदी के साहित्यकार, पत्रकार और अनुवादक मंगलेश डबराल ने दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान चिकित्सालय में बुधवार देर शाम अंतिम सांस ली थी। लगभाग एक पखवाड़े पहले उनको कोविड संक्रमण की शिकायत होने पर दिल्ली से लगे उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ियाबाद स्थित एक अस्पताल में भरती कराया गया था।
बाद में उन्हें बेहतर इलाज के लिए आयुर्विज्ञान संस्थान लाया गया, यहाँ उनकी हालत में सुधार भी आया लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। कोरोना के बहाने आकर नियति ने इस जनकवि को अपने जन से ही छीन लिया।साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कवि-लेखक मंगलेश डबराल समकालीन हिंदी के चर्चित कवियों में शुमार थे।
उनके निधन पर साहित्य जगत से जुड़े कई लोगों ने अपनी संवेदनाएं जताई हैं।पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं, आवाज़ भी एक जगह है और नये युग में शत्रु- मंगलेश डबराल के 5 काव्य संग्रह हैं। पहाड़ पर लातटेन उनका सबसे चर्चित काव्य संग्रह माना जाता है। उनके जाने के साथ ही पहाड़ के लोगों की यह लालटेन भी हमेशा के लिए बुझ गई।
मंगलेश डबराल ने कविता, डायरी, गद्य, अनुवाद, संपादन, पत्रकारिता और पटकथा लेखन जैसी साहित्य की विविध विधाओं के सिद्धहस्त हस्ताक्षर माने जाते हैं और सभी विधाओं में उन्होंने साधिकार लेखन किया है। एक अनुवादक के रूप में भी मंगलेश डबराल ने अपनी एक अलग जगह हिंदी रचना क्षेत्र में बनाई है। उन्होंने अंग्रेजी की लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरुन्धति रॉय के उपन्यास का भी हिंदी अनुवाद किया है।
16 मई, 1948 को उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले के काफलपानी गांव में जन्मे मंगलेश डबराल ने 72 साल की उम्र में दिल्ली के आयुर्विज्ञान संसथान चिकित्सालय में अंतिम सांस ली। जनसंस्कृति मंच से जुड़े और उनके नजदीकी रहे संजय जोशी के मुताबिक़ मंगलेश डबराल पिछले कुछ दिनों से गाजियाबाद के वसुंधरा स्थित एक निजी अस्पताल में भर्ती थे और हालत बिगड़ने के बाद उन्हें उपचार के लिए एम्स में भर्ती कराया गया था।
मूल रूप से उत्तराखंड के निवासी डबराल जनसंस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहे। अपनी कविताओं, गद्य और अनुवाद केकारण साहित्य जगत में विशेष पहचान बनाने वाले साहित्य अकादमी से पुरस्कृत इस साहित्यकार के निधन पर लोगों ने गहरा शोक व्यक्त किया है। वर्ष 2000 में इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। उनके परिवार में पत्नी संयुक्ता, बेटा मोहित तथा बेटी अल्मा हैं मंगलेश डबराल समकालीन हिन्दी कवियों में सबसे चर्चित नाम हैं।
मंगलेश डबराल जीवन की आरंभिक शिक्षा के बाद देहरादून आ गए थे, वहीँ उनकी पूरी शिक्षा-दीक्षा हुई। उसके बाद मंगलेश जी बाहर निकल गए। नौकरी करने के क्रम में उन्होंने दिल्ली में हिन्दी पैट्रियट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम करने के बाद वे भोपाल में मध्यप्रदेश कला परिषद्, भारत भवन से प्रकाशित साहित्यिक त्रैमासिक पूर्वाग्रह के सहायक सम्पादक के रूप में भी काम किया था।
इसके साथ ही इलाहाबाद और लखनऊ से प्रकाशित अमृत प्रभात में भी कुछ दिन नौकरी की। सन् 1983 में जनसत्ता में साहित्य संपादक का पद सँभाला। कुछ समय सहारा समय में संपादन कार्य करने के बाद आजकल वे नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े हुए थे। मंगलेश डबराल के पाँच काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं- पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं, आवाज भी एक जगह है और नये युग में शत्रु। इसके अतिरिक्त इनके दो गद्य संग्रह लेखक की रोटी और कवि का अकेलापन के साथ ही एक यात्रावृत्त एक बार आयोवा भी प्रकाशित हो चुके हैं।
मंगलेश की कविताओं के भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन, डच, स्पेनिश, पुर्तगाली, इतालवी, फ़्राँसीसी, पोलिश और बुल्गारियाई भाषाओं में भी अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। कविता के अतिरिक्त वे साहित्य, सिनेमा, संचार माध्यम और संस्कृति के विषयों पर नियमित लेखन भी करते हैं। मंगलेश की कविताओं में सामंती बोध एवं पूँजीवादी छल-छद्म दोनों का प्रतिकार है।
वे यह प्रतिकार किसी शोर-शराबे के साथ नहीं अपितु प्रतिपक्ष में एक सुन्दर स्वप्न रचकर करते हैं। उनका सौंदर्यबोध सूक्ष्म है और भाषा पारदर्शी। कला, साहित्य-संस्कृति के ऐसे पारखी हमारे अग्रज भी थे। अग्रज को हमारा अंतिम विनम्र नमन !