यादें युद्ध और विभीषिका की : मुक्ति संग्राम और बांग्लादेश का उदय


रामशरण जोशी उन चंद हिंदी पत्रकारों में से हैं जिन्होंने युद्ध क्षेत्र में रह कर सोनार बांग्लादेश की प्रसव पीड़ा को कवर किया था। 16 दिसंबर से यह देश अपने जन्म के पचासवें वर्ष में प्रवेश करेगा। इस अवसर पर जोशी युद्ध क्षेत्र की यादों-अनुभवों को रिवाइंड कर रहे हैं। इन यादों में श्रीलंका, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और 1984 की राजधानी दिल्ली-ट्रेजेडी भी शामिल हैं जिन्हें वैचारिक परिप्रेक्ष्य में रखा गया है।


रामशरण जोशी रामशरण जोशी
देश Updated On :

“आप की दिलचस्पी युद्ध में न भी रहे, लेकिन युद्ध की आप में दिलचस्पी है”-लिओन ट्रोट्स्की 

हाल ही में एक ब्रिटिश मूवी देखी : ‘1917’। इसकी कथा 1917 के प्रथम विश्व युद्ध के दो युवा सैनिकों की वास्तविक घटना पर आधारित थी। दो युवा सैनिक मित्र अपने कमांडर का ‘अग्रिम मार्च रोक’ का सन्देश दूसरे युद्ध क्षेत्र में पहुँचाने के लिए निकल पड़ते हैं। मार्ग में बेशुमार संकट थे; शवों के ढेर व बारूदी सुरंगें; चारों तरफ तबाही का मंज़र; खंदकों से पटे खेत-मैदान-खण्डर; खंडरों के एक कोने में दुबकी-सिसकती फ्रेंच स्त्री और साथ में नवजात बच्चा; शवों से भरे दरिया को पार करना; रास्ते में ही एक साथी की शत्रु पक्ष के घातक हमले से मौत और दूसरा सैनिक अंततोगत्वा मंज़िल पर पहुंच कर सन्देश पहुँचा देता है क्योंकि आगे के मैदानों को जर्मनों ने बारूदी सुरंगों से पाट रखा था।

इस तरह अंग्रेजी सेना के हज़ारों सैनिक मौत का ग्रास बनने से बच जाते हैं। फौजियों के चेहरे चमक उठते हैं। युद्ध व मृत्यु का तांडव थम जाता है। इस घटना की पटकथा का दिलचस्प पहलू यह है कि इसका निर्माता वास्तविक फौजी का पौत्र है। मूवी बेहद यथार्थवादी है, और साथ में संवेदनशीलता व मार्मिकता ने इसे हृदयस्पर्शी बना दिया है।

फिर, दीवाली की रात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जैसलमेर क्षेत्र में सैनिकों के बीच देखा और हुंकार भरते-मनोबल बढ़ाते हुए सुना। मोदी प्रतिवर्ष दीवाली सैनिकों के साथ ही मनाते हैं और सैन्य महत्ता पर प्रकाश डालते हैं। सैनिकों में उत्साह-शौर्य-समर्पण-राष्ट्रभक्ति के भावों का संचार होता है। एक नव सैन्यवाद के वातावरण की सृष्टि संचारित होती है और राज्य नियंता अपनी किलेबंदी से आश्वस्त होते दिखाई देते हैं।

छोटे पर्दे पर अवतरित ये दो अवसरों की तस्वीरें हठात मुझे पांच दशक पीछे की यादों के प्लावन के हवाले कर देती हैं। साल 1971 का है। महीना मई रहा होगा। मैं अगरतला के अखौड़ा बॉर्डर पर खड़ा हूँ। यह बॉर्डर तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से सटा हुआ है। यहाँ से कुछ किलोमीटर के फासले पर कुम्मिला है। इसके बाद राजधानी ढाका है। मेरे साथ कुछ पत्रकार और भी हैं। मैं जोश से भरा कुछ आगे निकल जाता हूँ। सामने ‘भारत-पाक चेकपोस्ट’ है। सरहद के उस पार पाक रेंजर या अर्ध सेना पड़ी है। कुतूहल मुझे ढकेलता जाता है।

मैं उस पार के खेतों की ओर देखना शुरू कर देता हूँ। पलभर में फायरिंग की आवाज़ें आने लगती हैं। पीछे से टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संवाददाता चीखते हैं, “जोशी, बचो चिल्ला रहा…”। इधर भारतीय सीमा दल का अधिकारी चिल्ला रहा है “पेड़ की ओट लो”। मैं किसी प्रकार भाग कर एक बड़े से पेड़ की ओट से अपनी रक्षा करता हूँ। गोलियां दनादन चल रही हैं। किसी भी क्षण मौत अपनी बाँहों मुझे छिपा सकती है; तब न कोई दरख्त होगा, न सरहद, न कोई दोस्त- दुश्मन। एहसास खामोश होगा। अपना दम सादे मैं पेड़ से चिपके खड़ा रहा। पांच-सात मिनिट के बाद बदूकें शांत हुई और मैं लपक कर सुरक्षित स्थान पर पहुँच सका। फिर चारों ओर से मुझ पर हिदायतों के हमले। यहाँ यह बतलाना ठीक रहेगा कि अगरतला पहुँचने के बाद अधिकारियों ने हमें कलमा रटा दिया था –‘ला इलाह इल्लाह, मोहम्मदुर रसूल अल्लाह।’ यदि कभी पकड़े जाएँ तो पाक सैनिकों के सामने इसे बोल देना। हो सकता है,बच जाएँ !

अब इसी महीने यह सब क्यों याद आ रहा है? वजह है इसकी भी। 16 दिसंबर,1971 को पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण किया था। एक लम्बी प्रसव पीड़ा के बाद वर्तमान बांग्लादेश के जन्म का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। भंग हो जाता है मज़हबी राष्ट्र का ख्वाब। इस धारणा पर सवाल खड़ा हो जाता है कि धर्म-मज़हब किसी भी राष्ट्र की आधारशिला होते हैं ! धार्मिक राष्ट्र या थिओक्रैटिक नेशन का निर्माण ही ‘राम बाण’ है ?

पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान, दोनों जगह सुन्नी समुदाय का बाहुल्य है। फिर भी बंगभाषी सुन्नियों ने इस्लामाबाद से आज़ाद हो कर एक अलग धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए सशस्त्र मुक्ति संघर्ष किया। अतः पाकिस्तान के विभाजन से हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के स्वप्नदर्शियों को कुछ तो पाठ सीखना चाहिए। रोचक सच्चाई यह है कि पश्चिमी पाकिस्तान और बांग्लादेश, दोनों राष्ट्रों के निर्माता ‘सुन्नी समुदाय’ से रहे हैं। अगले वर्ष बांग्लादेश अपने जन्म के पचास वर्ष पूरे कर लेगा। ऐसे क्षणों में ‘वॉर रिपोर्टिंग’ का याद आना स्वाभाविक है। मैं वापस अपनी रिपोर्टिंग कथा पर लौटता हूँ।

मैं त्रिपुरा की राजधानी अगरतला 1972 के अप्रैल-मई महीने में ही पहुँच गया था। एक तरह से नौसिखिया ‘युद्ध संवाददाता’। समाचार भारती (न्यूज़ एजेंसी ) के संवाददाता के रूप में त्रिपुरा से लगी लगभग सभी भारत -पाक सीमाओं पर जाकर रिपोर्टिंग की थी। मैं उनदिनों विधायक गेस्ट हाउस में रुका हुआ था। बाद में यहीं महाराष्ट्र के प्रसिद्ध समाजवादी नेता हमीद दलवई और प्रसिद्ध नाटक ‘ थैंक्यू मिस्टर ग्लाड’ के लेखक अनिल बर्वे भी आ कर रुके। दिल्ली से प्रकाशित मासिक सेक्युलर डेमोक्रेसी के लिए काम कर रहे अनिल चक्रवर्ती भी मेरे साथ आ टिके।

यह गेस्ट हाउस दिल्ली व कोलकाता से आनेवाले पत्रकारों और पूर्वी पाकिस्तान में आज़ादी के लिए संघर्षरत ‘मुक्ति वाहिनी’ के विशिष्ट एक्टिविस्टों का पनाहगाह था। रात-बिरात मुक्ति वाहनी के सैनिक घायल अवस्था में कुछ समय के लिए रुका करते थे। फिर उन्हें किसी अज्ञात जगह भेज दिया जाता था। एक रात रोमांचकारी अनुभव हुआ। मध्य रात्रि के आस-पास एक पतले लेकिन तड़ाक सीधे नौजवान आ कर रुके। सैनिक पोशाक में थे। कुछ समय के लिए उन्हें मेरे कमरे में ठहराया गया। फिर उन्हें अलग कमरा दे दिया गया। उनका परिचय गोपनीय रखा गया।

उक्त युवक के बारे में एक-दो रोज़ बाद मालूम हुआ। वह शेख कमाल थे। बंगबंधु मुजीबुर्रहमान के बड़े लड़के। फिर तो उनसे खूब बातें हुईं; पश्चिमी पाकिस्तान के सैनिकों द्वारा अत्याचार व बलात्कार और अनगिनत हत्याएं। रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाएं। हो सकता है उनके वर्णन में कुछ अतिरंजना रही हो, लेकिन ऐसी परिस्थितियों में यह अस्वाभाविक नहीं है। वैसे आगे चलकर और ढाका पहुँचने के बाद हुए मेरे अनुभवों से कमाल के विवरणों की पुष्टि भी हुई।

कमाल बेहद जुझारू इंसान लगे और भारत की राजनीति से परिचित भी थे। दिसंबर के अंतिम दिनों में मेरी फिर से कमाल से ढाका क्लब में मुलाक़ात होती है। भारतीय नेतृत्व के प्रति वे तहे दिल से उपकृत थे, विशेष रूप से इंदिरा गाँधी के प्रति। विडंबनापूर्ण इत्तफ़ाक़ देखिए, जब भारत दिल्ली में 1975 के आपातकाल में 15 अगस्त को अपना 28 वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा था, ठीक उसी भोर में ढाका में प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान और उनके परिवार के समूल सफाया की साजिश को अंजाम दिया जा रहा था।

स्वतंत्र बांग्लादेश की सेना की एक टुकड़ी ने विद्रोह कर दिया और धानमंडी स्थित प्रधानमंत्री -निवास पर धावा बोल दिया। विद्रोही सैनिकों ने सबसे पहले शेख कमाल को ही गोली मारी जिन्होनें 1971 के स्वतंत्रता संघर्ष में मुक्ति वाहिनी के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वे अपने मकान की पहली मंज़िल पर थे जहां उन्हें गोलियों से भून डाला गया । फिर विद्रोहियों ने अगली मंज़िल में रह रहे देश के प्रथम राष्ट्रपति और बाद में प्रधानमंत्री मुजीबुर्रहमान की परिवार सहित नृशंस हत्या कर दी। देश से बाहर रहने के कारण पुत्री व वर्तमान प्रधानमंत्री शेख हसीना जीवित रह गईं। उन्हें भारत में शरण लेकर सालों रहना पड़ा।

वापस अगरतला लौट रहा हूँ। त्रिपुरा की सीमान्त राजधानी अगरतला में रिपोर्टिंग करते हुए कुछ घटनाएं भुलाई नहीं जा सकतीं। आँखों में आज भी विस्थापितों का सैलाब मौज़ूद है ; रोज़ हज़ारों में अपनी ज़मीन, अपनी जड़ें, अपने वतन से उजड़े लोग; अर्ध नंग-चीथड़ों से ढकीं संवेदनशील लज्जायें ; बोरियों-गढ़रियों में समेटे जीने की मोहलतें; बगल में दबाये-कन्धों पर लादे बच्चे-बूढ़े; सयाने-सयाने चलते मवेशी और बैल गाड़ियां-साइकिल रिक्शा ठेलते मर्द व औरतें; कारों-टैक्सियों-ट्रकों में ठुंसे-लदे भद्र जन।

मेरी यहीं मुलाक़ात काबूरी चौधरी से भी हुई। पूर्वी पाकिस्तान में काबूरी को उस दौर की बांग्ला फिल्मों की सबसे चर्चित हीरोइन माना जाता था। वे भी अपने पति के साथ कुछ दिनों के लिए मेरे बगलवाले कमरे में रुकी थीं। बिलकुल बिखरी-बिखरी, बेनूर। फिर उन्हें बॉलीवुड में अपनी किस्मत आज़माने के लिए तबकी बंबई भिजवा दिया गया। बाद में उन्होंने आईएस जौहर की एक फिल्म में काम भी किया। लेकिन हिंदी फिल्मों की चमक-दमक में वे अधिक समय तक टिक नई सकीं।

इसी गेस्ट हाउस में बंग बंधु के बेहद करीबी कानूनी सलाहकार सिराजुल हक़ भी टकराये। भारत के विभाजन पर उनकी संक्षिप्त टिप्पणी आज भी अटकी हुई है ज़ेहन में। बंटवारे को लेकर जब भी चर्चा होती, वे कहा करते “जोशी जी, इस भारतीय उपमहाद्वीप का विभाजन मानव- भूगोल के साथ बलात्कार है।” (The partition of Indian sub-continent is a rape of human geography)।

दूसरा अनुभव प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से सम्बंधित है। हुआ यह कि इंदिरा जी दो दिन की त्रिपुरा यात्रा पर अगरतला पहुंचीं। पहले उन्होंने सर्किट हाउस में प्रेस कांफ्रेंस की। संयोग से मैं पत्रकारों की पहली कतार में कुर्सी पर ज़म गया। युवा था, जोश से भरपूर। प्रधानमंत्री पर कई सवाल हिंदी में दाग दिए। दो-तीन अंग्रेजी में। इंदिरा जी मुस्कराते हुए हिंदी व इंग्लिश में सहजभाव से उत्तर देती रहीं।

चूंकि, अधिकांश पत्रकार गैर-हिंदी भाषी थे। हिंदी में दिए उत्तरों को लेकर वे चिल्लाने लगे। इंदिरा जी ने मेरी तरफ देखा। मैं उनका भाव समझ गया। मैंने तपाक से कहा ; मैडम, आप चिंता न करें। मैं इनको इंग्लिश में ब्रीफ कर देता हूँ। मैंने नोट ले रखे हैं। “वे फिर मुस्कराईं और बोलीं,: ओके। डू इट”।

प्रधानमंत्री उठकर अपने विशिष्ट रूम में चली गईं और मैंने अपने नोट से पत्रकारों को हिंदी-उत्तरों को ब्रीफ कर दिया। मैं उन क्षणों में गर्व व आत्मविश्वास से भरा अनुभव करने लगा। इस घटनाचक्र को याद करते समय देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मीडिया के साथ रवैया भी जाने क्यों याद आ रहा है।

2019 में चुनावों से ठीक पहले पुलवामा-विस्फोट, 2020 में भारत -चीन सीमा झड़पें और जम्मू-कश्मीर में निरंतर आतंकवादी घटनाएं, दोनों पड़ोसी देशों (पाकिस्तान व चीन) के साथ निरंतर अशांत-तनावपूर्ण रिश्तों के बावजूद मोदी जी ने एक दफा भी प्रेस वार्ता नहीं की है जबकि अशांत क्षेत्र में इंदिरा जी बेखौफ मीडिया से टकराती रही हैं।

क्या वर्तमान प्रधानमंत्री में आत्मविश्वास का अभाव है या मीडिया को हीन भाव से देखते हैं? इसका जवाब तो मोदी जी ही दे सकते हैं। मैं इतना ही कह सकता हूँ कि युद्ध के दौर में भी इंदिरा गाँधी लगातार प्रेस से बवास्ता रहीं। इसका जीवंत अनुभव सुना ही चुका हूँ।

प्रेस कांफ्रेंस की समाप्ति के कुछ देर बाद इंदिरा जी अपने कमरे से बाहर निकलीं और विस्थापितों के शिविरों को देखना चाहती थीं। शिविर अगरतला से बीस -पच्चीस किलोमीटर या इससे अधिक के फासले पर थे। यह रास्ता तनावग्रस्त भारत-पाक सीमा से सट कर जा रहा था। दिन ढलने में अधिक वक़्त नहीं था। सुरक्षाकर्मी चाहते थे कि प्रधानमंत्री अगली सुबह शिविरों की यात्रा करें, लेकिन वे अपने इरादे पर अडिग थीं। उनके साथ पश्चिम बंगाल की राज्यपाल पद्मजा नायडू भी थीं। प्रधानमंत्री अपनी कुर्सी से उठीं और सीधे एम्बेसडर कार में जा बैठीं। यह देख कर सुश्री नायडू भी पीछे पीछे चलीं। वे काफी भारी भरकम थीं। चलने में कुछ दिक्क्त भी थी।

फिर हम पत्रकार भी जीपों में लद गए। लेकिन, सभी भयभीत थे। कुछ भी अनहोनी घट सकती थी। प्रधानमंत्री का काफिला चला। रास्ते में पाक सैनिक अपनी सरहद पर तने हुए थे, हाथों में हथियार लिए। सब दिखाई दे रहा था। हमारी साँसे अधर में थीं। प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की मनोदशा का वर्णन करना केवल काल्पनिक रहेगा। इसका सहारा लेना नकलीपन होगा। सर्किट हाउस से उठ कर कार में बैठने का फैसला ही उनकी निर्भीकता को दर्शाता है। यह दृश्य भी स्मृति पटल पर चिपका हुआ है सैदव के लिए।

शिविरों में हज़ारों विस्थापितों ने इंदिरा गाँधी का परम्परागत ढंग से सहज-स्वाभाविक भाव व भावनाओं से स्वागत किया। इंदिरा जी ने हिंदी में कुछ शब्द भी कहे जिनका बांग्ला में अनुवाद भी होता रहा। शब्दों से विस्थापित गदगद थे, आश्वस्त थे अपनी सुरक्षा को लेकर। मेरे लिए शिविरों की पहली यात्रा नहीं थी। जनवरी (1971) में ही रायपुर के माना शिविर और दंडकारण्य में बसाये गए बंगाली विस्थापितों के क्षेत्रों का दौरा कर चुका था। दिनमान में इसकी व्यापक रिपोर्टिंग की थी। लेकिन छत्तीसगढ़ के शिविर पुराने थे। 1947 में विभाजन और बाद के सालों में पाक सेना के अत्याचारों व सांप्रदायिक दंगों से त्रस्त हिन्दू बंगाली विस्थापितों की बसाहट थी। लेकिन, उनके दिल -दिमागों में ‘आमार सोनार बांग्ला’ देश अब तक ज़िंदा मिला था; ढाका-कुमिल्ला-जैसोर-खुलना के खेत-बाजार-गलियों में वे भटकते हुए मिले। त्रिपुरा के शिविरों में ताज़ा जख्मों की चीखें सुनाई दीं।

लौटते हुए देखा, चारों तरफ दूर दूर तक अँधेरा पसरा हुआ है। सेना की बीच बीच में सर्चलाइट ज़रूर आँखों को चुंधिया जाती हैं। मोटी-खुरदरी मटमैली खादी की साड़ी में ढकी इंदिरा गाँधी की कार सीधे अगरतला बेखौफ जा रही है, और पीछे पीछे हम लोग।

अगरतला के बाद विस्थापितों के दारुण दृश्य 1983 में रामेश्वरम में देखने को मिले। श्रीलंका में चल रहे गृह युद्ध (तमिलों का मुक्ति संघर्ष) के मारे हज़ारों तमिल विस्थापितों की गाथा भी अलहदा कहां थी; एक तरफ तमिल टाइगर (लिट्टे) और दूसरी तरफ थी सिंहली प्रभुत्ववाली श्रीलंका सेना। तमिल टाइगर तमिलों के लिए अपना स्वतंत्र राष्ट्र (तमिल इलम) चाहते थे जिसकी राजधानी ‘जाफना’ रहे।

सिंहल बहुसंख्यक वाले राष्ट्र श्रीलंका विभाजन के लिए बिलकुल तैयार नहीं था। लम्बे समय से जातीय संघर्ष ( इथनिक कॉनफ्लिक्ट्स ) से श्रीलंका घिरा हुआ था। किसी प्रकार हिन्दू तमिल विस्थापित रामेश्वरम तट तक पहुँच रहे थे। इनमें तमिल मुस्लिम भी थे। उम्मीद थी कि भारत उनके मुक्ति संघर्ष में मदद करेगा। उनका भी एक आज़ाद देश होगा, ठीक बांग्लादेश की तरह।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

जारी….