मोदी सरकार एक तरफ किसानों को बातचीत के लिए बुला रही है और दूसरी तरफ सरकार देश भर में कृषि बिल के समर्थन में अभियान छेड़ चुकी है। सरकार के मंत्रियों के बयान बातचीत के माहौल को खराब करने वाले है। इधऱ किसान भी पीछे हटने को तैयार नहीं है।
दिल्ली सीमा पर किसानों का जमावड़ा बढ़ रहा है। पंजाब से प्रतिदिन किसानों का जत्था जा रहा है। हालांकि इस बीच सरकार को राहत यह मिली है कि कुछ किसान संगठनों ने तीनों नए कृषि कानूनों का समर्थन किया है।
कभी हरियाणा के कुछ किसान संगठनों के नेताओं को दिल्ली ले जाकर कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से मिलवाया जा रहा है तो कभी उत्तराखंड के किसान संगठनों के नेताओं को कृषि मत्री से मिलवाया जा रहा है। ये संगठन केंद्र सरकार की तारीफ कर रहा है। सरकार की मंशा स्पष्ट है।
सरकार कृषि कानूनों को वापस नहीं लेगी। लेकिन संकट यह है कि किसान संगठन भी पीछे हटने को तैयार नहीं है। इस कारण हरियाणा की भाजपा सरकार संकट में है। सीमावर्ती राज्य पंजाब में भाजपा नेताओं को अब अपना भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है।
हालांकि किसान आंदोलन कितना सफल रहेगा यह समय बताएगा। लेकिन किसान संगठनों के आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता यह है कि देश भऱ में मोनोपोली कैप्टलिज्म पर बहस शुरू हो गई है। देश के कई बड़े कारपोरेट घराने मोनोपोली कैप्टलिज्म के शिकार हो सकते है। इस संभावना पर विचार विमर्श शुरू हो गया है।
कई कारपोपेट घराने किसानों के आंदोलन से प्रसन्न है। क्योंकि किसानों ने अदानी और अंबानी के मोनोपोली कैप्टलिज्म को निशाना बनाया है। किसान अदानी और अंबानी के उत्पादों के बहिष्कार का अपील कर चुके है।
दरअसल इस समय किसान आंदोलन के बहाने अदानी और अंबानी के कारोबार इस समय चर्चा का विषय है। अदानी और अंबानी दूसरे कारपोरेट घरानों के लिए भारी खतरा बन चुके है। कई कारपोरेट घरानों को यह डर हो गया है कि आज नहीं तो कल उनका भी नंबर आएगा।
जब सरकार की परिसंपत्तियां और सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्तियां पूरी तरह से बिक जाएगी तो अगला नंबर कारपोरेट घरानों का आएगा। अदानी और अंबानी कई दूसरे कारपोरेट घरानों को निशाने पर लेंगे।
टेलीकॉम सेक्टर में मुकेश अंबानी के जियो और सुनील भारती मित्तल के एयरटेल के बीच संघर्ष जगजाहिर है। एयरटेल अच्छी तरह से समझ रहा है कि जियो ने सिर्फ भारत संचार निगम लिमिटेड को ही नहीं खत्म किया। बल्कि एयरटेल के कारोबार को भी भारी नुकसान पहुंचाया।
रिटेल कारोबार में देश की एक बड़ी कंपनी फ्यूचर ग्रुप के अधिग्रहण को लेकर आमेजन और मुकेश अंबानी की रिलांयस कंपनी आमने सामने हो गए है।
यही नहीं स्टील सेक्टर में अपनी पहचान रखने वाला टाटा भी मोनोपोली कैप्टलिज्म के खतरे को समझ रहा है। कई और कारपोरेट घरानों को अपने कारोबार पर आने वाले खतरे को लेकर सतर्क है। उन्हें डर है कि अदानी और अंबानी से संबंधित कारपोरेट भविष्य में दूसरे कारपोरेट घरानों के कारोबार को टारगेट करेंगे।
दरअसल किसान आंदोलन ने जिस तरह से अदानी और अंबानी के कारोबार और प्रोडक्ट के बहिष्कार की अपील की है कि उससे खुद अदानी और अंबानी भी परेशान है। क्योंकि पिछले चालीस सालों में अदानी और अंबानी ने देश भऱ में प्राकृतिक संसाधनों का जमकर दोहन किया, पर वे इस कदर निशाने पर नहीं आए थे।
अदानी और अंबानी के कारोबार हर सरकार के कार्यकाल में बढ़ा। दोनों राष्ट्रीय दलों की पसंद अगर अंबानी और अदानी रहे तो क्षेत्रीए दलों की पसंद भी अदानी और अंबानी रहे है।
किसान आंदोलनकारियों की मांगों के प्रति केंद्र सरकार कतई गंभीर नजर नहीं आ रही है। एक तरफ केंद्र सरकार किसानों को बातचीत के लिए आमंत्रित कर रही है, दूसरी तरफ किसान संगठनों में फूट डालने की कोशिश कर रही है। अलग-अलग किसान संगठनों के नेताओं से सरकार अलग-अलग तरीके से संपर्क करने की कोशिश कर रही है।
सरकार ने किसान संगठनों में फूट डालने के लिए एक को दूसरे के खिलाफ भड़काने की कोशिश भी की है। यही नहीं किसान संगठनों में फूट डालने के लिए किसान संगठनों के साथ अलग-अलग बैठक भी की गई।
सरकार की यही कोशिश सरकार की मंशा और नीयत पर सवाल पैदा करता है। आंदोलन को बदनाम करने के लिए कभी किसान आंदोलनकारियों को खालिस्तानी कहा गया, तो कभी माओवादी कहा गया। निश्चित तौर पर किसान आंदोलन में शामिल किसान संगठनों की विचारधारा भिन्न-भिन्न है।
लेकिन फिलहाल वे कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन कर है। सरकार ने सबसे पहले आंदोलन को खालिस्तानी रंग देने की कोशिश की, लेकिन किसान संगठनों ने सरकार का प्रयास विफल कर दिया। सरकार अब आंदोलन को माओवादी करार देने लगी है। लेकिन किसान संगठनों ने सरकार का यह प्रयास भी विफल कर दिया है।
दिल्ली सीमा पर चल रहे किसान आंदोलन अभी तक सफल इसलिए है कि आंदोलन पुरी तरह से गांधीवादी है। अहिंसात्मक है। किसान आंदोलन ने आंदोलन स्थल के आसपास के निवासियों को नाराज नहीं किया है। स्थानीय लोगों को अपने साथ जोड़ा है।
आंदोलन वाले स्थान पर निवास करने वालों को समझाया है कि किसान सिर्फ अपने हितों के लिए आंदोलन नहीं कर रहा है, बल्कि पूरे देश की आबादी के हितों की रक्षा के लिए आंदोलन कर रहा है। उन्होंने देश भर में मैसेज दिया है कि किसानों का आंदोलन आने वाली पीढ़ियों की सुरक्षा के लिए है।
शहरी आबादी को किसानों ने महसूस कराया है कि अभी तक नियंत्रित मूल्यों पर अरबन मिडल क्लास को खाद्य पदार्थ इसलिए मिल रहा है कि खेती पर किसानों का कंट्रोल है। खेती कारपोरेट के नियंत्रण में चला गया तो शहरी मिडल क्लास पर भारी मार पड़ेगी।
शहरी मध्यम वर्ग को 50 रुपए किलो वाला चावल 200 रुपये किलो मिलेगा। 30 रुपए किलो वाला आटा 150 रुपये किलो मिलेगा। आलू और प्याज जैसे महत्वपूर्ण खाद्य पदार्थ पहले ही जमाखोरी के कारण महंगे हो चुके है। शहरी मध्यम वर्ग जो अपने बच्चों की पढ़ाई की फीस और गाड़ी के डीजल और पेट्रोल पर होने वाले खर्च के लिए जद्दोजहद कर रहा है, उसे किसानों के तर्क में दम नजर आ रहा है।