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दिल्ली जैसे छोटे से राज्य के चुनावी नतीजों का संख्या के लिहाज से कोई खास महत्व नहीं है, लेकिन देश की राजधानी होने के साथ-साथ आम आदमी पार्टी (AAP) जैसी एक नवोदित पार्टी की जीत-हार को लेकर देश लगातार टकटकी लगाये देख रहा था।
2015 और 2020 में हुए विधानसभा चुनावों में लगभग एकतरफा जीत (70 सीट में क्रमशः 67 और 62 सीट) हासिलकर AAP ने दिल्ली में देश की दोनों राष्ट्रीय दलों को बेहद बौना बना डाला था। कांग्रेस जो इससे पहले लगातार तीन कार्यकाल तक दिल्ली की सत्ता पर काबिज बनी हुई थी, को दोनों ही बार एक भी सीट जीतने का सौभाग्य नहीं मिल पाया था। इसलिए आमतौर पर माना जा रहा था कि तीसरी बार भी अरविंद केजरीवाल को हरा पाना बीजेपी के लिए संभव नहीं हो पायेगा।
लेकिन भाजपा यह करिश्मा संभव कर पाने में कामयाब रही। कई लोग इसका श्रेय कांग्रेस पार्टी को भी दे रहे हैं। कई जगहों पर यह भी देखने को मिल रहा है कि हारे हुए कांग्रेस उम्मीदवार, भाजपा कार्यकर्ताओं से बधाई स्वीकार कर रहे हैं। लेकिन ध्यान से देखने पर हम पाते हैं कि यह मामला इतना सीधा नहीं है।
बीजेपी 70 में से 48 सीटें जीतने में कामयाब रही। भाजपा का वोट प्रतिशत रहा 45.56%। यदि एनडीए सहयोगी दलों जेडीयू (1.06%) और लोजपा (0.53%) को भी जोड़ दें तो कहा जा सकता है कि उसके पक्ष में कुल 47.15% वोट पड़े।
दूसरी तरफ AAP के खाते में आये 43.57% वोट, अर्थात मत प्रतिशत में अंतर था मात्र 3.58% का। लेकिन बीजेपी AAP से 26 सीट ज्यादा जीतने में कामयाब रही। 2020 के चुनाव में AAP 54% वोट के साथ 62 सीट जीतने में कामयाब रही थी, जबकि बीजेपी 38% वोट के साथ मात्र 8 सीटों पर जीत पाई थी।
इस चुनाव में AAP के वोट बैंक से लगभग 10% वोट खिसक गये, जिसका बड़ा हिस्सा बीजेपी के खाते में चला गया है। जिसका नतीजा यह हुआ है कि बीजेपी की सीटें 40 बढ़कर 48 हो चुकी हैं, वहीं AAP की 40 सीटें घटकर 62 से 22 रह गई हैं। कांग्रेस पार्टी को 2020 की तुलना में मात्र 2% वोट ज्यादा प्राप्त हुए हैं, लेकिन कम से कम 13 सीटों के चुनावी नतीजों को देखकर लग रहा है कि कांग्रेस के कारण इन सीटों पर आम आदमी पार्टी उम्मीदवार को हार का सामना करना पड़ा है।
लेकिन सच्चाई यह नहीं है। उल्टा, यदि AAP के खाते से वोट बीजेपी के पक्ष में न जाकर कांग्रेस के खाते में गये होते तो 2025 का चुनावी रिजल्ट पूरी तरह से अलग हो सकता था। विचार करके देखिये कि AAP का मत प्रतिशत जितना अभी है उतना ही होता, लेकिन ये वोट छिटककर बीजेपी के पास जाने के बजाय कांग्रेस को गये होते तो बीजेपी क्या आज सत्ता में होती? नहीं, उस स्थिति में AAP की ही सरकार बनती, हाँ कांग्रेस 2-3 सीट जीतकर दिल्ली में अपने सूखे को खत्म कर सकती थी। मजे की बात यह है कि इस तथ्य पर कोई ध्यान ही नहीं दे रहा, और कांग्रेसी इसी में मगन हैं कि उनकी वजह से अरविंद केजरीवाल को हार का मुहं देखना पड़ा।
वास्तविक हालात तो यह है कि न सिर्फ बीजेपी AAP के वोट बैंक में बड़ी सेंधमारी करने में कामयाब रही, बल्कि उसने अरविंद केजरीवाल की भविष्य की राजनीति को भी भारी अनिश्चितता के गर्त में काफी हद तक पहुंचा दिया है। इस तथ्य को इसी बात से समझा जा सकता है कि ईडी, सीबीआई की मदद से जिन दो राज्यों के मुख्यमंत्रियों को मोदी सरकार जेल में डाल चुकी थी, उसमें से झारखंड मुक्ति मोर्चा के हेमंत सोरेन पहले से भी बड़े बहुमत के साथ झारखंड की सत्ता में लौट चुके हैं, वहीं केजरीवाल अपने वोट बैंक को बचा पाने में नाकामयाब रहे।
उससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि दिल्ली की आरक्षित सीटों और मुस्लिम बहुल सीटों पर इस बार भी अधिकांश मतदाताओं ने अपना वोट आम आदमी पार्टी की झोली में डालकर उसे जिताया है। यह एकमुश्त वोट असल में भावनात्मक रूप से बड़े पैमाने पर राहुल गांधी के पक्ष में झुका हुआ था, और कांग्रेस ने अपना सारा जोर भी इन्हीं सीटों पर लगा रखा था।
लेकिन न चाहते हुए भी इन सीटों पर बड़ी संख्या में मतदाताओं का वोट AAP पार्टी के पक्ष में इसी वजह से गया, क्योंकि आम मतदाता अच्छी तरह से समझ रहा था कि बीजेपी के मुकाबले में फिलहाल AAP ही खड़ी है।
इसलिए, AAP के लिए आगे की राह और भी ज्यादा ढलान पर है। यदि कांग्रेस पार्टी अभी से इस स्पेस को भरने के लिए अपने सांगठनिक ढाँचे में महत्वपूर्ण बदलाव करती है और आर्थिक रूप से कमजोर तबकों और अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर जमीन पर निरंतर संघर्ष में खड़ी होती है तो AAP की स्थिति वही हो सकती है जो अभी कांग्रेस की है।
इसके बारे में जल्द ही बहुत से शोध और विश्लेषण देखने को मिल सकते हैं। लेकिन मोटे तौर पर देखने पर लगता है कि निम्न मध्य वर्ग और मध्य वर्ग का एक हिस्सा AAP से इस बार छिटका है। यह वह तबका है जिसे फ्री पानी, बिजली, स्कूल और मोहल्ला क्लिनिक का लाभ मिला है। लेकिन उसके मन में आम आदमी पार्टी की छवि जो इंडिया अगेंस्ट करप्शन के समय बनी हुई थी, उसे पिछले कुछ वर्षों से गहरा धक्का लगा है।
उसके लिए अब AAP और अन्य दलों के बीच अंतर कर पाना कठिन हो चुका था। शराब घोटाले से भी ज्यादा उसको मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल द्वारा अपने लिए आलिशान निवास और वीआईपी ट्रीटमेंट अखरा।
इसके साथ ही दिल्ली में एक तबका ऐसा भी था, जिसे सिर्फ स्वंय से मतलब था। उसे दिनोंदिन यह महसूस हो रहा था कि अरविंद केजरीवाल और एलजी के बीच की लड़ाई अंतहीन हो चुकी है। ऊपर से केंद्र में मोदी सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटकर दिल्ली राज्य सरकार के अधिकार को पहले से ज्यादा संकुचित कर दिया गया है। ऐसे में यदि केजरीवाल को एक बार और वोट कर जिता देते हैं तो दिल्ली का कोई विकास नहीं होने वाला है।
इसके साथ ही 2025 विधानसभा के चुनाव में 2020 की तुलना में कम मतदान भी एक मुद्दा है, जिस ओर अभी खास ध्यान नहीं गया है। 2020 में दिल्ली चुनाव में 62.82% वोट पड़े थे, जबकि इस बार मत प्रतिशत घटकर 60.54% रह गया है। ये किसके समर्थक वोट थे, जो इस बार के चुनाव में वोट देने नहीं उतरे?
बता दें कि 2020 के विधानसभा चुनाव में AAP पार्टी को कुल 49.74 लाख मत प्राप्त हुए थे, जो इस बार घटकर करीब 41.34 लाख रह गये। दूसरी ओर बीजेपी को 2020 में 39.75 लाख, जबकि इस बार 44.73 लाख मत प्राप्त हुए हैं। चुनाव से पहले झुग्गी-झोपड़ी बहुल क्षेत्रों से इस बात की खबर आ रही थी कि कई लोगों के हाथों में पहले से वोट के निशान लगा दिए गये थे। इसके बदले में उन्हें नकद पैसे दिए जा चुके थे, लेकिन देने वाली पार्टी को शक था कि ये लोग उसके मतदाता नहीं हैं, और मतदान के दिन AAP के पक्ष में वोट कर सकते हैं।
इसके अलावा, बीजेपी ने इस बार अपनी चुनावी रणनीति में भी 2020 के विपरीत बड़ा उलटफेर करते हुए साफ़ शब्दों में मुनादी करा दी थी कि वह AAP पार्टी द्वारा जारी किसी भी जनकल्याणकारी योजना को बाधित नहीं करने जा रही है। उल्टा, वह इसे उससे भी अच्छी तरह से लागू करेगी।
एक और पहलू ध्यान देने लायक है, और वह है दिल्ली में रह रहे लिबरल हिंदू सवर्ण मतदाता को AAP द्वारा धीरे-धीरे हिंदुत्व के फोल्ड में लाने वाला आत्मघाती कदम। हालाँकि अपनी समझ से अरविंद केजरीवाल ने इसे बेहद चतुराई भरा कदम समझा, और उन्होंने श्री श्री रविशंकर के लिए यमुना के तट से लेकर, हर मंगलवार को हनुमान चालीसा पाठ, भारतीय नोटों में गांधी की जगह लक्ष्मी-गणेश जैसे अनेक जुमले इस्तेमाल किये।
लेकिन इस सभी कदमों से केजरीवाल ने दिल्ली जैसे महानगर में उत्तर भारत के कस्बों और गांवों से आने वाले लाखों दिल्ली वासियों को लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और संवैधानिक मूल्यों के प्रति जागरूक बनाने की जगह बीजेपी/आरएसएस की वैचारिकी को ही आगे बढ़ाने में मदद पहुंचाई, जिसका अंत बीजेपी को ही लाभ की स्थिति में ले गया।
वोटों के लिहाज से तो उसे कुछ भी खास फायदा नहीं हुआ है। सीट के लिहाज से भी देखें तो वह एक बार फिर फिसड्डी साबित हुई है। जिन तीन सीटों पर उसके उम्मीदवार जमानत बचा पाने में सफल रहे, वे सभी अपने व्यक्तित्व और अपनी विधानसभा में अपने काम की वजह से सम्मानजनक वोट पाने में कामयाब रहे। कांग्रेस को पुराने बड़े नामों की जगह स्थानीय स्तर पर अपेक्षाकृत नए संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं को वरीयता देनी होगी, तभी दिल्ली का आम मतदाता और दलित-मुस्लिम मतदाता उसे गंभीरता से ले सकता है।
अभी भी ले देकर कांग्रेस के पास अपने पुराने नेताओं के परिवार के पार्ट टाइम नेताओं की सूची तैयार मिलती है। देश की तरह दिल्ली के दलित तबके और मुस्लिम, सिख मतदाताओं में राहुल गांधी के प्रति आकर्षण लगातार बढ़ता जा रहा है। लेकिन इस आकर्षण को वोट में तब्दील करने के लिए उसे अपने संगठन और जमीन पर ठोस बड़े बदलाव की दरकार है।