क्या भाजपा का चक्रव्यूह भेदने में सफल होंगे राहुल गांधी?

हिंदू राष्ट्र का स्वप्न तभी साकार हो सकता है जब मोदी जी निष्कंटक हो कर अपनी सरकार चलाते रहें। इसके लिए जरूरी है कि राहुल गांधी जैसे चुनौतीपूर्ण नेता की ऐसी लगाम कसी जाए जिससे वह कभी मुक्त न हो सकें। निसंदेह, राहुल चक्रव्यूह में घिर चुके हैं।

अभूतपूर्व हंगामों, धक्का-मुक्की और एफआईआर बाज़ी के साथ 18 वीं लोकसभा के पहले शीतकालीन सत्र का अंत हुआ। 25 नवंबर से 20 दिसंबर तक चले इस सत्र से एक बात तो स्प्ष्ट हो गई है कि लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी की भविष्य की राहें बेहद कंटीली और ऊबड़-खाबड़ रहेंगी। भाजपा नेतृत्व का सत्ता पक्ष उन्हें 2029 तक की पांच वर्षीय पारी पूरी करने देगा, इसमें गहरा संदेह है। पिछली 17वीं लोकसभा के दौरान भी सत्ता पक्ष के इरादे साफ़ थे। तब वे विपक्ष के नेता नहीं थे। फिर भी सत्ता पक्ष के लिए राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता कांटे के समान आंखों में चुभती रही थी और भाजपा ने उन्हें संसद से बाहर रखने का सभी सामान जुटा लिया था। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से राहुल गाँधी की सदस्यता बहाल हो सकी थी।

18वीं लोकसभा में कांग्रेस के पास सौ सीटें हैं और संवैधानिक व्यवस्था के दायरे में राहुल गाँधी ने विपक्षी नेता का वैधानिक पद प्राप्त किया है। इसके विपरीत पिछली लोकसभा में भाजपा की 303 सीटें थीं, जो कि अब घट कर 240 रह गई हैं। फिर भी, सत्ता पक्ष ने राहुल गांधी के लिए चक्रव्यूह बिछा दिया है; पुलिस ने हत्या का प्रयास जैसी संगीन धारा लगाई है, भाजपा की एक महिला सांसद ने राहुल गांधी के व्यवहार के विरुद्ध महिला आयोग से शिकायत भी की है। ज़ाहिर है, डॉ आंबेडकर के अपमान के विरुद्ध आंदोलन से देश का ध्यान भटकाने और राहुल को अदालतों में पेशी में हमेशा उलझाए रखने की दृष्टि से भाजपा का यह अचूक चक्रव्यूह सिद्ध हो सकता है!

वास्तव में, प्रधानमन्त्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी के नेतृत्व में सत्ता पक्ष के निशाने पर राहुल गांधी शुरू से ही रहे हैं। प्रधान मंत्री मोदी और उनके जोड़ीदार गृहमंत्री अमित शाह को राहुल गाँधी को विपक्ष के नेता-पद पर होना कतई बरदाश्त नहीं है। इसकी वज़ह साफ़ है। आज कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष का इंडिया गठबंधन जिस मज़बूत स्थित (लोकसभा : 238 सीटें) में है उसका काफी हद तक श्रेय राहुल गांधी की भूमिका को जाता है। उनकी दो यात्राओं (भारत जोड़ो यात्रा और भारत न्याय यात्रा) से देश आंदोलित हुआ और विपक्ष की राजनीति के लिए उपजाऊ ज़मीन तैयार भी हुई।

संक्षेप में, राहुल ने कांग्रेस को पुनर्जीवंत बना दिया और गठबंधन के दूसरे घटकों में आत्मविश्वास का संचार भी हुआ है। मोदी ब्रांड -भाजपा द्वारा रचित मिथ कि वह ‘अजेय’ है, बुरी तरह से टूटा। ‘मोदी है तो मुमकिन है, और सबका साथ -सबका विकास -सबका विश्वास’ जैसे छलावा नैरेटिव भी वर्तमान लोकसभा में विपक्ष के आकार-प्रकार से रंगहीन दिखाई दे रहे हैं। 2014 में मोदी -नेतृत्व में नारा लगा था – कांग्रेस मुक्त भारत, फिर नारा लगा ‘ विपक्ष मुक्त भारत’, दोनों ही नारे पिटे हैं।

विपक्षी दलों ने एकता दिखाई और इंडिया गठबंधन की स्थापना भी की। इसके बाद कर्नाटक और तेलंगाना में कांग्रेस ने विजय प्राप्त भी की। भाजपा के अथक परिश्रम को सबसे बड़ा धक्का इस बात से लगा है कि उसका राहुल गांधी की ‘पप्पू छवि ‘ का नैरेटिव बालू के घरौंदे के समान ढह गया है। इससे मोदी+शाह जोड़ी ब्रांड भाजपा बौखलाई हुई दिखाई दे रही है। उसकी रणनीति है कि यदि राहुल गांधी के नेतृत्व को अशक्त बना दिया जाए, उनकी संसद सदस्यता समाप्त हो जाए और उन्हें सज़ा हो जाए, तो विपक्ष के गठबंधन ’ इंडिया’ को तितर-बितर किया जा सकता है।

राहुल और इंडिया के अवसान के साथ ही मोदी जी का ’निर्वाचित एकतंत्रीय शासन’ बेखटके 2029 तक चल सकेगा। अगले वर्ष से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का शताब्दी वर्ष शुरू होने जा रहा है। ’विश्व गुरु, अखंड भारत और हिंदू राष्ट्र’ का विराट स्वप्न अब भी संघ और उसके राजनैतिक अवतार भाजपा की आंखों में तैर रहा है।

हिंदू राष्ट्र का स्वप्न तभी साकार हो सकता है जब मोदी जी निष्कंटक हो कर अपनी सरकार चलाते रहें। इसके लिए जरूरी है कि राहुल गांधी जैसे चुनौतीपूर्ण नेता की ऐसी लगाम कसी जाए जिससे वह कभी मुक्त न हो सकें। निसंदेह, राहुल चक्रव्यूह में घिर चुके हैं। महाभारत काल का अभिमन्यु निकल नहीं पाया था और उसका अंत हो गया था। लेकिन, लोकतांत्रिक काल के राहुल से अपेक्षा यही है कि वे इसे चीर कर सफलतापूर्वक बाहर निकल आयेंगे।

यह तभी संभव होगा जब कांग्रेस संगठन के स्तर पर मजबूत रहेगी। क्योंकि उत्तर प्रदेश, दिल्ली, बिहार, गुजरात, ओडिशा, पश्चिम बंगाल जैसे प्रदेशों में कांग्रेस संगठन लचर हालत में है। इसलिए कांग्रेस का शिखर नेतृत्व (अध्यक्ष खड़गे, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी आदि) ग्रामीण स्तर तक कांग्रेस संगठन को सुदृढ़ बनाने पर फोकस करे तब ही अच्छे परिणाम सामने आ सकते हैं और जनता को आंदोलन से जोड़ा जा सकता है।

इसके साथ ही जब आंबेडकर-अपमान विरोधी आंदोलन आमजन व दलित से जुड़ेगा और इंडिया घटक के नेता (शरद पवार, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, प्रकाश करात, डी राजा, स्टालिन, तेजस्वी यादव, उद्धव ठाकरे, उमर अब्दुल्ला, अरविंद केजरीवाल आदि) निष्ठा व प्रतिबद्धता के साथ मोदी सत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध के लिए मैदान पर उतरेंगे, तभी मोदी सत्ता को चुनौती दी जा सकती है।

इस पत्रकार की दृष्टि में, भाजपा का चक्रव्यूह राहुल नेतृत्व के अंत तक ही सीमित नहीं रहेगा। बल्कि, इसके घेरे में भारत का आधारभूत चरित्र, लोकतंत्र, संविधान और धर्मनिरपेक्षता भी आयेंगे; इस दिशा में एक राष्ट्र एक चुनाव बड़ा कदम है। अतः, अब राहुल-रक्षा का ही सवाल नहीं रह गया है। बुनियादी सवाल है ’भारत का विचार’ की रक्षा का।

इसलिए, गठबंधन के शिखर नेताओं की बैठक होनी चाहिए और दूरगामी रणनीति बनाई जानी चाहिए। याद रखें, विपक्ष का सामना ऐसे सत्ता पक्ष से है जिसका विश्वास उदार पूंजीवादी लोकतंत्र की आधार– कसौटियों में भी नहीं है। उसे अधिनायकवादी एकतंत्री हुक़ूमत चाहिए।इसलिए, घटक अपने मामूली मतभेदों और सत्ता लोभ से ऊपर उठकर शकुनीपंथी सत्तापक्ष का सामना करें।

याद रहे, राहुल की लड़ाई बहु आयामी बन चुकी है क्योंकि उन्होंने मोदी जी को राजनैतिक रूप से ही असुरक्षित नहीं बना रखा है, बल्कि उनके आर्थिक आधारों (अडानी, अम्बानी आदि) के लिए भी अस्तित्व संकट की स्थिति पैदा कर दी है। हिंदुत्व का नैरेटिव भी अस्थिर दिखाई देता नज़र आ रहा है। अब तो संघ सुप्रीमो मोहन भागवत को भी यह कहने के लिए विवश होना पड़ा है कि आये दिन नये -नये मंदिर-मस्ज़िद के टंटे खड़ा करना ठीक नहीं है। इससे भारत की गरिमा प्रभावित होती है।

भागवत जी समावेशी जीवन के पक्ष में दिखाई देते हैं। कह नहीं सकता कि यह उनका वैचारिक कायाकल्प है या लम्बी रणनीति का एक हिस्सा है! नक़ाब -संस्कृति की दृष्टि से संघ परिवार बेजोड़ रहा है। वैसे नव हिन्दू समृद्ध मध्य वर्ग का युवा हिस्सा शांति, नौकरी, स्थायित्व और सुखद जीवन के लिए लालायित होने लगा है। उसकी दिलचस्पी लव जेहाद, वोट व भूमि जेहाद, गौ रक्षा जैसे मुद्दों में कम होती जा रही है। वह अच्छी पगार चाहता है। हो सकता है ऐसी उभरती प्रवृत्तियों के दबाव को महसूस कर भागवत जी ने ईमानदारी से अपनी बात सामने रखी हो। सो, ‘संदेह का लाभ’ भागवत जी को दिया जाना चाहिए।

इस परिदृश्य में, राहुल गांधी को चक्रव्यूह से सफलतापूर्वक बाहर निकलने की रणनीति पर विचार करना होगा। हो सकता है, कर भी रहे हों! याद रखें, मोदी+शाह नेतृत्व की भाजपा सत्ता की दृढ़ आस्था ‘साम-दाम -दण्ड भेद से विजयश्री’ में है। इसे ध्यान में रख कर पुख्ता तैयारी के साथ ही शकुनि चक्रव्यूह को भेदा जा सकता!

(राम शरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

First Published on: December 23, 2024 9:59 AM
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