वैसे तो मानव एक सामाजिक प्राणी है और मनुष्य अपने अस्तित्व को निजी व्यक्तित्व, परिवार, नातेदारों, समुदाय, और देश के बीच समन्वय के जरिए बनाए रखता है। हम मूलतः अनेक हैं और अनेकता में एकता की स्थापना हमारी सामाजिकता की आधारशिला है। अन्यता और एकता के ताने-बाने के जरिए हम सभी स्त्री -पुरुष अपने जीवन यात्रा को पूरा करने में जुटे हुए हैं।
अस्मिता का व्याकरण
इसमें अस्मिता की चेतना का बड़ा महत्व होता है। एक असुरक्षित व्यक्ति अपनी पहचान के बारे में संकुचित आधार का आग्रह रखता है जैसे परिवार, जाति, भाषा और संप्रदाय आदि। जबकि आत्म विश्वासी व्यक्ति और समुदायों में ‘वसुधैव कुटुम्बकम ‘ और मानवमात्र के प्रति अपनत्व का आदर्श आचार संहिता का आधार होता है। एक ही समुदाय के सदस्य अलग अलग परिस्थितियों में संकीर्ण और उदार आदर्शों से प्रेरित हो सकते हैं। कभी ‘अन्यता’ आकर्षक लगती है। कभी ‘अन्यता’ आतंकित करती है।
समाज और राजनीति और आर्थिकी
वैसे यह सच है कि दुनिया का राजनैतिक संगठन मूलतः राष्ट्र – राज्यों के महासंघ के रुप में चल रहा है। हमारे आर्थिक अस्तित्व का संचालन उत्पादन, उपभोग, वितरण और लेन-देन के जरिए बनाए रखा जाता है। इसके लिए बाजार और सरकार के बीच जिम्मेदारी का बंटवारा है। कुछ समाज बाजार से सरकार और कुछ समाज सरकार से बाजार की तरफ झुकते दिखते हैं। हमारे समाज में 1990 से बाजारवादी झुकाव है।
समाज संचालन में धर्म और संस्कृति
समाज व्यवस्था में सभी वर्गों और समुदायों का योगदान होता है। इनकी आचार संहिता की व्यवस्था में धर्म और संस्कृति की मुख्य भूमिका है। किसी भी धर्म और संस्कृति में कभी भी एकत्व नहीं संभव है। बहुलता की प्रवृत्ति होती है। इसे परंपरा और परिवर्तन की निरंतरता के जरिए संतुलन में रखा जाता है। सुविधा प्राप्त अंश परंपरा का आग्रह रखता है और वंचित हिस्सों में परिवर्तन के लिए रुझान होता है। हमारी स्त्री -पुरुष संबंधित असमानता और जाति व्यवस्था में निहित विषमता के उदाहरण से इस दुविधा को समझने में आसानी होगी। आजकल परंपरावादी और परिवर्तनवादी एक दूसरे को शंका की दृष्टि से देखते हैं।
सांप्रदायिकता की समस्या
दुनिया में शुभ और अशुभ की शक्तियों के बीच सनातन संघर्ष एक बुनियादी सच है। इसे न्याय और नीति से नियंत्रित करने की जरूरत होती है। न्याय और नीति को सत्य के रास्ते ही स्थापित किया जा सकता है। लेकिन दबंग अन्याय में कुछ भी अनुचित नहीं देखते। हालांकि अन्याय पर बनी व्यवस्था टिकाऊ नहीं होती। रावण राज से लेकर कौरव शासन और ब्रिटिश साम्राज्य तक के उदाहरण सामने हैं। फिर भी बलवान अविवेकी आचरण करते रहते हैं।
सांप्रदायिकता बहुधर्मी समाज का दोष है। हम अन्य धर्मों के अनुयायियों को हीन मानकर दूरी रखने में जुटे रहते हैं। इससे समाज लगातार कमजोर होता है। क्योंकि सांप्रदायिक तनाव अन्याय को बढ़ावा देता है। अन्याय से पीड़ित अलगाव में ही समाधान देखते हैं। ज्ञान-विज्ञान के व्यापक प्रसार के मौजूदा दौर में भी हर बहुसंख्यक समुदाय में यह दोष प्रबल हो जाता है। अमरीका में रंगभेद से लेकर चीन में भाषाई अल्पसंख्यकों की दुर्दशा तक तमाम दुःखद प्रसंगों का एक चिंताजनक सिलसिला है। दुनिया के अधिकांश देशों में किसी एक धर्म की प्रबलता हो। राज्य का संरक्षण प्राप्त है। इससे अन्य धर्मावलंबी दोयम दर्जे की नागरिकता में जीने को विवश रहते हैं।
सांप्रदायिक सद्भावना और श्रमजीवी वर्ग
क्या सांप्रदायिक ताकतों से श्रमजीवी समाज को कोई लाभ मिलता है? कहीं नहीं। न पाकिस्तान में, न म्यांमार में, न इजरायल में, न चीन में। मजदूर एकता सांप्रदायिकता के माहौल में असंभव हो जाती है। जब एक देश में मजदूर हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई में बंटते जाएंगे तो ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो!’ का समर्थन कौन करेगा?
एक धर्म वाले देश के श्रमिकों को ज्यादा मजदूरी या पेंशन नहीं मिलती। वहां के लोग भी बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से मुक्त होने की लडाई में जुटे रहते हैं। लेकिन सांप्रदायिक ताकतों की वजह से परस्पर संवाद नहीं रहता। एकता में बाधा उत्पन्न हो जाती है। अस्तित्व के सवाल को अस्मिता की चिंता के आगे महत्व नहीं दिया जाता। ऐसे देशों में ‘मज़दूर एकता जिंदाबाद!’ का नारा खोखला हो जाता है। बिना एकता के हमारी कौन सुनेगा?
( प्रो. आनंद कुमार समाजशास्त्री हैं।)