एससी-एसटी उपवर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय तथ्यों पर आधारित नहीं : प्रो. सुखदेव थोरट


भारतीय समाज श्रेणीबद्ध असमानता पर आधारित है और इसका विस्तार अनुसूचित जाति में भी है। लेकिन उनके बीच जो असमानता है उसके पारस्परिक संबंध का आधार आर्थिक शोषण नहीं है।


प्रदीप सिंह प्रदीप सिंह
देश Updated On :

नई दिल्ली। अनुसूचित जाति और जनजाति के उप वर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट के 1 अगस्त 2024 को आए फैसले के संदर्भ में ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट द्वारा दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में लिए गए प्रस्ताव में कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद भाजपा-आरएसएस दलितों में एक जाति से दूसरी जाति को लड़ाने, उनके बीच में विभाजन और वैमनस्य पैदा करने का लगातार प्रयास कर रही है। जिससे दलितों को सचेत रहने की जरूरत है।

प्रस्ताव में आगे कहा गया कि कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ की विनाशकारी नीतियों की चुनौती से निपटने के लिए दलितों की एकता बेहद जरूरी है। आज अनुसूचित जनजाति के ऊपर भी पूरे देश में भीषण दमन ढाया जा रहा है और जीवन के लिए बेहद जरूरी संवैधानिक अधिकारों से भी उन्हें वंचित किया जा रहा है। देश में प्राकृतिक संपत्ति व सार्वजनिक संपदा की बड़े पैमाने पर लूट हो रही है। इन सबके विरुद्ध दलितों, आदिवासियों के सालिडेरिर्टी फोरम जैसे संगठनों का गठन करना जरूरी है।

प्रस्ताव में यह भी मांग की गई कि भारत सरकार को सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की जातिवार भागीदारी के आंकड़े देश के सामने लाना चाहिए, दलित जातियों के प्रतिनिधित्व को सरकारी नौकरी में विशेष अभियान चलाकर पूरा करना चाहिए, सभी सरकारी विभागों में खाली पद तत्काल भरे जाने चाहिए और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति उप वर्गीकरण के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर देश की संसद में चर्चा होनी चाहिए। सम्मेलन की अध्यक्षता ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय अध्यक्ष एस. आर. दारापुरी, एनडीएमसी दिल्ली में पूर्व एसीएमओ डॉ राहुल दास, उत्तर प्रदेश में एसीएमओ रहे डॉक्टर बी. आर. गौतम, आदिवासी नेत्री सविता गोंड ने की।

सम्मेलन के उद्देश्य के संदर्भ में लिखित वक्तव्य एआईपीएफ के संस्थापक सदस्य अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने रखते हुए कहा कि कोई नया दलित आंदोलन अथवा संगठन खड़ा करना इस सम्मेलन का मकसद नहीं है। यह देश की राजनीति में अनुसूचित जाति और जनजाति की राजनीतिक एकता का एक वैचारिक राजनीतिक प्रयास है, जिसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।

उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की मंशा चाहे जो भी रही हो लेकिन इस निर्णय के बाद कॉरपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ ने दलितों को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने का अभियान तेज कर दिया है। साहू जी महाराज, ज्योतिबा फुले और डॉक्टर अंबेडकर परंपरा ने समाज के इन तबकों के बीच जो वैचारिक राजनीतिक एकता कायम की, उसे सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से खंडित नहीं होने देना है।

आनंद तेलतुम्बड़े और प्रोफेसर सुखदेव थोरट के विचारों के आलोक में उन्होंने अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण में किए गए क्रीमी लेयर के प्रावधानों पर भी पुनर्विचार करने की आवश्यकता को रेखांकित किया। उन्होंनें आंकड़ो के साथ रखा कि एससी-एसटी सब प्लान में मनरेगा, सार्वजनिक राशन वितरण में बजट घटा दिया और शिक्षा जैसे अत्यधिक महत्वपूर्ण मद में एससी के लिए 18121 करोड़ रूपए और एसटी के लिए महज 9831 करोड़ रूपए खर्च रूपए आवंटित किए गए हैं। श्री अखिलेंद्र प्रताप सिंह के लिखित वक्तव्य का समर्थन सभी डेलीगेट वक्ताओं ने किया।

सम्मेलन के मुख्य वक्ता यूजीसी के पूर्व चेयरमैन प्रोफेसर सुखदेव थोरट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय तथ्यों पर आधारित नहीं है। कहा वाल्मीकि समुदाय के लोगों की सरकारी नौकरियों के चतुर्थ व तृतीय श्रेणी पदों पर दलितों की अगड़ी मानी गई प्रमुख जातियों से प्रतिनिधित्व कम नहीं है। आगे कहा कि यह निर्णय डॉक्टर अंबेडकर के विचारों के भी विरुद्ध है। डॉक्टर अंबेडकर दलितों को समग्र समरूप (होमोजेनियस) ईकाई के बतौर संगठित करना चाहते थे।

उनका स्पष्ट मत था कि भारतीय समाज श्रेणीबद्ध असमानता पर आधारित है और इसका विस्तार अनुसूचित जाति में भी है। लेकिन उनके बीच जो असमानता है उसके पारस्परिक संबंध का आधार आर्थिक शोषण नहीं है। डॉ अंबेडकर ने दलितों के विकास के लिए दोहरी नीति पर काम किया था एक सामाजिक अधिकारिता और दूसरा आर्थिक सशक्तिकरण। सामाजिक आधिकारिता से मिले आरक्षण से दलितों को ताकत मिली लेकिन उनके शैक्षिक और आर्थिक प्रश्नों पर अभी तक पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है।

सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे एआईपीएफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष एस. आर. दारापुरी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में कहा कि दलितों के विभिन्न समुदायों के बीच में वार्ता व संवाद होना चाहिए और आर्थिक सशक्तिकरण का एजेंडा तैयार कर पूरे देश में अभियान चलाया जाना चाहिए। बाल एवं शिशु रोग विशेषज्ञ डॉक्टर नंद किशोर ने उपवर्गीकरण के फैसले का समर्थन करते हुए कहा कि इससे दलितों की अति पिछड़ी जातियों के सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व हासिल होने मदद मिलेगी। सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अरुण कुमार मांझी ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को संवैधानिक प्रावधानों के विरुद्ध बताते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत सुप्रीम कोर्ट को अनुसूचित जाति के आरक्षण में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।

पूर्व एसीएमओ डॉ राहुल दास ने कहा कि वर्गीकरण जैसे सवालों के जरिए दलितों को उलझाया जा रहा है ताकि लगातार बढ़ रही महंगाई और बेरोजगारी पर चर्चा ही न हो सके। आज दलित आंदोलन को जमीन, रोजगार, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे सवालों और कारपोरेट परस्त विनाशकारी नीतियों पर जोर बढ़ाना होगा। कलाकर्मी हिम्मत सिंह ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता का आधार सहअस्तित्व है जिस पर लगातार राज्य मशीनरी द्वारा हमला किया जा रहा है।

आदिवासी युवा सविता गोंड ने कहा कि आदिवासी इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार का बेहद अभाव है। उत्तर प्रदेश में तो हालत इतनी बुरी है कि 69000 शिक्षक भर्ती में अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 13 सौ से अधिक सीटों में से लगभग 1100 सीटें खाली रह गई। आदिवासी नेता इंद्रदेव खरवार ने कहा कि पूरे इलाके में मनरेगा ठप पड़ी हुई है और लोगों को पलायन करना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश के आदिवासी इलाकों से बड़ी संख्या में लड़कियों भी अन्य राज्यों में काम करने जा रही हैं जहां 12-12 घंटे काम के लिए महज दस हजार रुपए महीने का वेतन दिया जा रहा है। आदिवासी नेता कृपा शंकर पनिका ने कहा कि आदिवासियों की पुश्तैनी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है और वनाधिकार कानून को भी लागू नहीं किया गया है।

सम्मेलन में एआईपीएफ की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शगुफ्ता यासमीन, डाक्टर बृज बिहारी,अशोक धनगड, वामपंथी कार्यकर्ता उमाकांत, पूर्व डीआइओएस शिव चंद राम, राम शंकर, नन्हेलाल, करन राम अशोक, राघवेंद्र आदि ने अपनी बात रखी। सम्मेलन के प्रस्ताव को राम भुवन राम ने रखा। सम्मेलन में वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्राचार विभाग की पूर्व कार्यवाहक डायरेक्टर रेखा सिंह, सामाजिक कार्यकर्ता अशोक भारती भी उपस्थित रहे।



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