तकनीक बदलने से नहीं बदलते पत्रकारिता के मूल्य: रामबहादुर राय


मोहनदास करमचंद गांधी को लन्दन जाने के बाद ही अखबार का महत्त्व पता चला। हाई स्कूल पास करके गांधी बैरिस्टर की पढ़ाई करने लन्दन गये। यहां काठियावाड़ में गांधी ने क्या अखबार देखा या पढ़ा। जहां तक मैंने गांधी साहित्य या गांधी वांग्मय पढ़ा है,ऐसा कहीं नहीं है कि लन्दन से पहले गांधी ने अखबार पढ़ा हो।



गांधी की पत्रकारिता पर हम लोग बात करने जा रहे हैं। पहले तो मैं आप लोगों से सवाल पूछता हूं कि गांधी की पत्रकारिता को क्या कहें, और इसका उच्चारण कैसे करें। महात्मा गांधी, गांधी जी, गांधी या बापू चार विकल्प हैं हमारे पास। महात्मा गांधी, गांधी जी, गांधी या बापू जब कहते हैं तो उसका अर्थ होता है एक व्यक्ति। और जब गांधी की पत्रकारिता कहते हैं तो गांधी से आशय है एक धारा से, एक प्रक्रिया से, एक प्रवाह से। गांधी की पत्रकारिता एक व्यक्ति की पत्रकारिता नहीं है, एक युग की पत्रकारिता है, जीवन मूल्यों की पत्रकारिता है। एक ऐसी पत्रकारिता है, जिसमें पत्रकारिता के बुनियादी मूल्य जो चले आ रहे हैं और जो बने रहेंगे। समय बदलेगा परिस्थितियां बदलेंगी लेकिन पत्रकारिता के जो स्थाई मूल्य हैं, वे नहीं बदलेंगे। अब पत्रकारिता के जीवन मूल्य और पत्रकारिता के माध्यम में कई बार हम लोग फर्क करना भूल जाते हैं। पत्रकारिता के माध्यम विविध हो सकते हैं यानी प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, वेब, सोशल मीडिया  तो ये सब पत्रकारिता के माध्यम हैं। लेकिन इनके जरिये से जो पत्रकारिता हो रही है वह है, या जो होनी चाहिए उसमें जो तत्व छुपा हुआ है, उसको हम जीवन मूल्य कहेंगे, पत्रकारिता के मूल्य कहेंगे। माध्यम का अर्थ तकनीक से है। 

अब हम गांधी की पत्रकारिता की बात जब कर रहे हैं, तो उस दौर की तकनीक की भी बात करेंगे।  अब इस दौर में जब तकनीक बदल गई है तो हमारे मन में एक स्वाभाविक सवाल उठता है कि, आज के दौर में गांधी की पत्रकारिता को याद करना प्रासंगिक भी है या नहीं। इसका फैसला आप स्वयं करें। मुझसे पूछेंगे तो मैं कहूंगा की जिस तरह से जीवन मूल्य स्थाई हैं, उसका देश और समाज से सम्बन्ध कम होता है, उसका संबंध सनातनता से होता है। इसी तरह से तकनीक बदलने से ऐसा नहीं होता है कि पत्रकारिता के मूल्य बदल जाएं। जब टेक्नोलॉजी बदलती है तो पत्रकारिता बेहतर होती है। लेकिन पत्रकारिता अपने आप में एक विज्ञान है। और उसी तरह का विज्ञान है जैसा प्योर साइंस हुआ करता है। एक बात और हमारे मन में बड़ी अड़चन पैदा करती है। जब एक महापुरुष को एक खास ढांचे में हम बांधना चाहते हैं। जैसे हम जब गांधी की बात करते हैं तो एक बात हमारे दिमाग में आती है कि गांधी तो राष्ट्रपिता हैं, गांधी तो बापू हैं, गांधी तो वह व्यक्ति है जिसने सबको रास्ता दिखाया और जब आस-पास में पत्रकारों को देखते हैं और गांधी की छवि से उनकी तुलना करते हैं तो हमारे मन में ये अड़चन पैदा होती है कि गांधी को पत्रकार के रूप में कैसे देखें। इस अड़चन को दूर करने के लिए हमको यह समझना चाहिए की शब्दों का मुहावरों का अमुक अर्थों में अगर हम प्रयोग करें तो अड़चन बढ़ जाती है। और अगर शब्दों का मुहावरों का सटीक अर्थों में प्रयोग करना हम सीख लें, उसकी कला समझ लें तो अड़चन दूर हो जाती है। शब्दों के अमुक अर्थों में प्रयोग तीन क्षेत्रें में अक्सर होते है। राजनीति, धर्म और पत्रकारिता। तो गांधी की पत्रकारिता के लिए शब्दों के सटीक अर्थ और सही जगह उसके इस्तेमाल की हमको कोशिश करनी चाहिए।

हम लोगों को पत्रकारिता सिखाया प्रभाष जोशी ने और उन्होंने हमे सिखाया की अपनी भाषा सुधारने के लिए और लिखने के लिए आप लोग उस साहित्य को भी पढ़ने की कोशिश करिए जिसमें कबीर हैं, जिसमें सूरदास हैं, या उपनिषद हैं या इस तरह का कुछ भी। इसलिए क्योंकि इनमें जिस तरह के शब्दों का इस्तेमाल हो रहा है और आज जिस तरह के शब्दों का इस्तेमाल हो रहा है उनके फर्क को समझना जरूरी है। अब शब्दों का प्रयोग मैं समझता हूं कि उसकी आत्मा को समझ के ही किया जाना चाहिए। गांधी की पत्रकारिता सत्य की खोज के लिए एक प्रयोगशाला थी। जैसे आइंस्टाईन, न्यूटन, जेसी बोस, रमन जैसे तमाम वैज्ञानिकों ने ईश्वर में अपनी आस्था तो जताई लेकिन उसको अपनी प्रयोगशाला में नहीं ले कर गये। गांधी की पत्रकारिता में भी, जैसे गांधी की अपनी आस्था थी, लेकिन जब वे प्रयोग करते थे तो आस्था को एक किनारे रख देते थे। पत्रकारिता में भी हमें ये कला सिखानी चाहिए और अपनानी चाहिए। गांधी के लिए सत्य ही ईश्वर रहा है, यहां हम पत्रकार गांधी की बात नहीं कर रहे हैं। पत्रकार गांधी को खोजने में खतरे हैं। क्योंकि हम खोजते वही हैं जो हमारे मन में होता है और हमारे मन में जैसा आपको बताया पत्रकार की एक छवि बनी हुई है। उस चश्मे से गांधी को मत देखें, तो सवाल यह है कि कैसे देखें और कैसे समझे?  

पहला तथ्य यह है कि मोहनदास करमचंद गांधी को लन्दन जाने के बाद ही अखबार का महत्त्व पता चला। हाई स्कूल पास करके गांधी बैरिस्टर की पढ़ाई करने लन्दन गये। यहां काठियावाड़ में गांधी ने क्या अखबार देखा या पढ़ा। जहां तक मैंने गांधी साहित्य या गांधी वांग्मय पढ़ा है, ऐसा कहीं नहीं है कि लन्दन से पहले गांधी ने अखबार पढ़ा हो। गांधी 1888 में लन्दन गये और तीन साल उन्होंने बैरिस्टर की पढ़ाई की। उस दौरान ही गांधी ने अखबार पढ़ा और उसके महत्त्व को समझा। उस दौरान ‘वेजीटेरियन’ नाम के एक अखबार में उन्होंने तीन साल में नौ लेख लिखे। पढ़ने और अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने के प्रयास गांधी ने उन्हीं दिनों शुरू किये। जिन नौ विषयों पर गांधी ने लेख लिखे वे थे रहन-सहन, उत्सव-त्यौहार, खान-पान के विषय। इन लेखों में गांधी की पत्रकारिता दिखती है और इस रूप में दिखती है कि उन्होंने भारत के किसी गुण को बढ़ा-चढ़ा के नहीं लिखा और किसी अवगुण को छुपाया नहीं। जैसे एक लेख में उन्होंने लिखा कि -लन्दन में यह भ्रम अगर किसी को है तो यह दूर हो जाना चाहिए की हर भारतीय शाकाहारी है। लन्दन से लौटने के बाद भी वे वेजीटेरियन में लिखते रहे और छपते रहे। 1893 में वे दक्षिण अफ्रीका गये। एक मिनट के लिए आप गांधी से ख्याल हटाइये और 1893 को याद कीजिये। 1893 को हर पत्रकार को ज्यादा जानना चाहिए क्योंकि यह कई मायने में अनोखा साल है। इस साल कई अनोखी घटनाएं घटी। 1893 में ही विवेकानंद शिकागो जाते है। 1893 ही वह साल है जब एनी बेसेंट लन्दन से भारत आईं। और 1893 ही वह साल है जब अरविंदो आईसीएस छोड़ कर भारत वापस आ गये। 1893 में ही गांधी दक्षिण अफ्रीका जाते हैं। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने देखा की रंग भेद के कारण भारतीय अपमान का जीवन बिता रहे थे। अपमान के विरोध में भारतीयों के साथ खड़े हुए। 1896 में कुछ महीनों के लिए भारत लौटे। तो उसका उल्लेख उन्होंने अपनी जीवनी के पच्चीसवें अध्याय में किया है। जिसमें उन्होंने लिखा है – कलकत्ते से बम्बई जाते हुए प्रयाग बीच मे पड़ता था। वहां ट्रेन 45 मिनट रूकती थी। इस बीच मैने शहर का एक चक्कर लगा आने का विचार किया। मुझे केमिस्ट की दुकान से दवा भी खरीदनी थी। केमिस्ट ऊंघता हुआ बाहर निकला। दवा देने में उसने काफी देर कर दी। मैं स्टेशन पहुंचा तो गाड़ी चलती दिखायी पड़ी। भले स्टेशन-मास्टर ने मेरे लिए गाड़ी एक मिनट के लिए रोकी थी, पर मुझे वापस आते न देखकर उसने मेरा सामान उतरवा लेने की सावधानी बरती।

मैं केलनर के होटल में ठहरा और वहां से अपने काम के श्रीगणेश करने का निश्चय किया। प्रयाग के ‘पायनियर’ पत्र की ख्याति मैंने सुन रखी थी। मैं जानता था कि वह जनता की आकांक्षाओं का विरोधी हैं। मेरा ख्याल है कि उस समय मि. चेजनी (छोटे) सम्पादक थे। मुझे तो सब पक्षवालों से मिलकर प्रत्येक की सहायता लेनी थी। इसलिए मैने मि. चेजनी को मुलाकात के लिए पत्र लिखा। ट्रेन छूट जाने की बात लिखकर यह सूचित किया कि अगले ही दिन मुझे प्रयाग छोड़ देना है। उत्तर में उन्होंने मुझे तुरन्त मिलने के लिए बुलाया। मुझे खुशी हुई। उन्होंने मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनी। बोले, आप जो भी लिखकर भेजेंगे, उस पर मैं तुरन्त टिप्पणी लिखूंगा ‘और साथ ही यह कहा, लेकिन मैं आपको यह नहीं कह सकता कि मैं आपकी सभी मांगो को स्वीकार ही कर सकूंगा। हमें तो कॉलोनियल (उपनिवेश वालों का) दृष्टिकोण भी समझना और देखना होगा।’

मैने उत्तर दिया, ‘आप इस प्रश्न का अध्ययन करेंगे और इसे चर्चा का विषय बनायेंगे, इतना ही मेरे लिए बहुत हैं। मैं शुद्ध न्याय के सिवा न तो कुछ मांगता हूं और न कुछ चाहता हूं।’

यह मैंने आपको इसलिए सुनाया कि गांधी मीडिया के माध्यम से अपनी बात कैसे पहुंचाते थे या पहुंचाना चाहते थे। उसका यह एक उदहारण है। दूसरा उदहारण मैं आपको बताता हूं। 

भारत वापस आने के बाद उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया, मद्रास स्टैण्डर्ड, हिन्दू, अमृत बाजार पत्रिका और कलकत्ता के हिंदी पत्र बंगवासी में अनेक पत्र और टिप्पणियां लिखीं और छपीं। वहीं से गांधी की पत्रकारिता की शुरुआत हुई। साल था 1898 उसके पहले के साल तैयारी के हैं और गांधी के मनोभाव के मंथन के हैं।

1896 में गांधी की पत्रकारिता का अलग पहलू हैं जो गांधी साहित्य में कई बार सामने आता है। वो है ग्रीन पम्फलेट का। 1896 में जब वो भारत आते हैं तो दक्षिण अफ्रीका से लोगों की समस्याओं के लिए उन्होंने ग्रीन पम्फलेट कैसे तैयार किया, यह जानने लायक है। मैं उन्हीं के शब्दों में यानी अपनी आत्मकथा में जो उन्होंने लिखा है, आपको सुनाता हूं। 

“बम्बई में रूके बिना मैं सीधा राजकोट गया और वहां एक पुस्तिका लिखने की तैयारी में लगा। पुस्तिका लिखने और छपाने में लगभग एक महीना बीत गया। उसका आवरण हरा था, इसलिए बाद में वह ‘हरी पुस्तिका’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। उसमें दक्षिण अफ्रीका के हिन्दुस्तानियों की स्थिति का चित्रण मैंने जान-बूझकर नरम भाषा में किया था। नेटाल मे लिखी हुई दो पुस्तिकाओं में, जिसका जिक्र मैं पहले कर चुका हूं, मैंने जिस भाषा का प्रयोग किया था उससे नरम भाषा का प्रयोग इसमें किया था। क्योकि मैं जानता था कि छोटा दुःख भी दूर से देखने पर बड़ा मालूम होता हैं।

‘हरी पुस्तिका’ की दस हजार प्रतियां छपी थीं और उन्हें सारे हिन्दुस्तान के अखबारों और सब पक्षों के प्रसिद्ध लोगों को भेजा था। ‘पायनियर’ में उस पर सबसे पहले लेख निकला। उसका सारांश विलायत गया और सारांश का सारांश रायटर के द्वारा नेटाल पहुंचा। वह तार तो तीन पंक्तियों का था। नेटाल में हिन्दुस्तानियों के साथ होने वाले व्यवहार का जो चित्र मैंने खींचा था, उसका वह लघु संस्करण था। वह मेरे शब्दों में नहीं था। उसका जो असर हुआ उसे हम आगे देखेंगे। धीरे-धीरे सब प्रमुख पत्रों में इस प्रश्न की विस्तृत चर्चा हुई। ”

मैंने इस ग्रीन पम्फलेट का जिक्र सिर्फ इसलिए किया क्योंकि पत्रकारिता का उस जमाने में और आज भी यह एक जरिया है। पत्रकारिता गांधी के रग-रग में थी, इसे हम उदाहरणों से देख और समझ सकते हैं। भारत से दक्षिण अफ्रीका जाने के बाद 1903 में अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए उन्होंने ‘इंडियन ओपिनियन’ नाम का समाचार पत्र निकाला। और हमारी जानकारी में चार भाषाओं में एक साथ। यह प्रयोग पहली बार हुआ। दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह नामक पुस्तिका में उन्होंने लिखा कि ‘मेरा ख्याल है कि ऐसी कोई भी लड़ाई जिसका आधार आत्मबल हो, अखबार की सहायता के बिना नहीं चलाई जा सकती।’ इसमें दो बात मुझे लगती है की कोई भी लड़ाई बिना आत्मबल के नहीं लड़ी जा सकती। कोई भी लड़ाई अखबार के या मीडिया की सहायता से लड़ी जाएगी किन्तु उसमें यदि आत्मबल न हो तो वो लम्बी नहीं चलाई जा सकती।

गांधी ने अपनी पत्रकारिता के उद्देश्य लिखा कर बताये हैं। उन्होंने अपनी पत्रकारिता की दो भुजाएं रखीं- एक कर्त्तव्य की और एक अधिकार की, और इन दोनों का समन्वय उनकी पत्रकारिता में दिखता है। दक्षिण अफ्रीका का संघर्ष अहिंसक उपायों से सत्य की विजय का था जिसमें पत्रकारिता एक जरिया थी। गांधी 1915 में भारत आते हैं और 1948 तक यहां थे, यहां भी चंपारण सत्याग्रह या उसके बाद तक या 28-29 तक गांधी ने जो पत्रकारिता की है वह सत्याग्रही बुलेटिन, बॉम्बे क्रॉनीकल, यंग इंडिया (गांधी जी ने निकला), नवजीवन (गुजरती संस्करण), हरिजन, नई तालीम और उसके बाद वो बोलने लगे यानी उनका बोलना ही माध्यम हो गया था। 1947 में गांधी वर्धा से दिल्ली आते हैं और दिल्ली इसलिए आते हैं, देश आजाद हो गया था, बंटवारा हुआ, दंगे हुए, हिंसा हुई। तो प्रार्थना सभा में वो बोलते थे और वो जो बोलते थे ‘आल इंडिया रेडियो’ उसको रिकॉर्ड करता था। प्रसारित करता था। कहने का मतलब यह है एक स्थिति ऐसी भी आई जब उनको माध्यम की जरूरत नहीं थी। सारे माध्यम उनके लिए उपलब्ध थे। अब उनकी पत्रकारिता का सार अगर मैं कहूं तो एक बड़ा विचार, सेवा और सब्र के जरिये मुनाफे के लिए पत्रकारिता नहीं, सद्भाव, संस्कार और समयानुकूल परिवर्तन। गांधी ने अपनी पत्रकारिता में ज्यादा परहेज जिस चीज से किया, उसमें सबसे बड़ा परहेज था कि मनगढ़ंत खबरों के वो विरोधी थे। द्वेषपूर्ण और चरित्र हनन की खबरों के विरोधी थे। जब हम पत्रकारिता करने लगते हैं तो कोई भी पत्रकार इसको कुछ दिनों के बाद महसूस करने लगता है। उसका नाम हो जाता है। और इस तरह से एक व्यक्ति एक पत्रकार एक रूप में महाकाय हो जाता है। बड़ा ताकतवर हो जाता है। ऐसा अखबारों में चैनलों में दिखता भी है। और तब गांधी से हम सीख सकते हैं कि एक पत्रकार को अपने अन्दर संयम और विवेक भी रखना चाहिए। आखिर में मैं ये कहूं की गांधी की पत्रकारिता से हम क्या सीख सकते हैं। तो मैं ये कहूंगा की दुनिया में जो भी धर्मग्रन्थ हैं, वे पहले बोले गये हैं। किसी भी धर्मग्रन्थ को आप देख लीजिये। यह बात गीता, कुरान, बाइबल सब पर लागू होती है तो बोला हुआ ईश वचन होता है। और लिखा हुआ साक्ष्य वचन होता है। और यही गांधी ने अपनी पत्रकारिता में अपनाया।

आखिरी व्यक्ति की चिंता, हर कीमत पर सत्य का अवलंबन, बोल चाल की भाषा, अपनी भाषा के प्रति लगाव या निष्ठा। यही गांधी की पत्रकारिता का सार है और यही सीखने की बात है।