किसानों ने आज ‘भारत बंद’ का आह्वान किया था। किसान संगठनों ने सोच-समझकर सुबह 11 बजे से लेकर 3 बजे तक बंद का समय रखा जिससे कार्यालय आने-जाने वालों को परेशानी का सामना न करना पड़े। भारत बंद सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। यानी सरकारी मंशा के विपरीत कहीं भी किसी बड़ी हिंसक वारदात की सूचना नहीं आयी, जिससे आंदोलन को और बदनाम किया जा सके।
सिवाय अरविंद केजरीवाल के “तथाकथित नजरबंदी”के, जो भारत बंद की सफलता की खबर को मीडिया कवरेज से हटाने के लिये मोदी सरकार के इशारे पर रची गयी थी। इस लिहाज से भारत बंद और किसानों का अनुशासन अभूतपूर्व रहा। सरकार की भाषा में बंद ‘बेअसर’ औऱ मीडिया की भाषा में बंद का ‘मिला-जुला असर’ रहा। लेकिन सरकार, मौसम और मीडिया के प्रतिकूल रहने के बावजूद किसानों ने अपने फौलादी संकल्प का देशव्यापी संदेश दिया है।
देश भर में किसान आंदोलन के प्रति उमड़े समर्थन को देखकर केंद्र सरकार ने एक और कदम उठाया है। यह कदम केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का किसान नेताओं को बातचीत के लिये आमंत्रित करना है। कहा जा सकता है कि किसानों की यह पहली जीत है। अब तक प्रधानमंत्री और गृहमंत्री इस मुद्दे पर बातचीत करने को ही तैयार नहीं थे। लेकिन दिखावे के लिये ही सही सरकार बहादुर को किसानों के सामने झुकना पड़ा है।
गृहमंत्री अमित शाह यूं ही नहीं किसानों से बातचीत करने को सहमत हुये हैं। हर तरीका इस्तेमाल करने और किसान नेताओं को भय-लालच देकर भी जब सरकार आंदोलन को नहीं तोड़ सकी तो उसकी नजर आंदोलन की सबसे कमजोर कड़ी राकेश टिकैत पर जा टिकी है। राकेश टिकैत की राजनीतिक महत्वाकांक्षा हैं और कुछ प्रदेश स्तरीय राजनीतिक दलों में शामिल होकर वह माननीय बनने की कोशिश भी कर चुके हैं, लेकिन अभी तक सफल नहीं हो सके हैं। ऐसे में यह आशंका जरूर है कि सरकार राकेश टिकैत को तोड़कर आंदोलन में फूट पड़ने का ऐलान कर सकती है।
“छोटे लौह पुरुष” ने किसानों को वार्ता के लिये बुलाया है। इससे पहले केंद्र सरकार और किसानों के बीच हुई पांच वार्ताएं असफल रही हैं। गृहमंत्री और किसानों के बीच होने वाले वार्ता से क्या निष्कर्ष निकलेगा, इसका अनुमान लगाना बहुत कठिन नहीं है। लेकिन किसानों ने बिना किसी राजनीतिक दल का सहारा लिये सरकार और शासक वर्ग और मीडिया को यह दिखा दिया कि कृषि कानून कारपोरेट के हित में है। किसानों की लड़ाई कारपोरेट से है, सरकार तो इसमें बिचौलिये की भूमिका में है। किसान इस कानून को खत्म करने के लिये लंबी लड़ाई लड़ने को भी तैयार हैं। अब बात न्यूनतम समर्थन मूल्य तक सीमित नहीं है। यह कारपोरेट खेती और कांट्रैक्ट खेती के विरोध तक जायेगा।
कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन का आज 13वां दिन है। हरियाणा से लगते दिल्ली के 4 बॉर्डर- टिकरी, सिंघु, झारोदा और धनसा पूरी तरह बंद हैं। यह सब अचानक नहीं हुआ है। देश के किसान लंबे समय से आंदोलित हैं। जब प्रधानमंत्री मोदी ने कारपोरेट के हित में कानून बना कर किसानों के हित का बताना शुरू किया तभी से देश भर में जगह-जगह किसान धरना-प्रदर्शन करते आ रहे हैं।
मोदी सरकार द्वारा बनाये गये तीन कृषि कानून- कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020, कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन-कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 को किसान अपने लिए नुकसानदेह बता रहे हैं। लेकिन मोदी सरकार और मोदी समर्थित मीडिया कृषि कानूनों को किसानों के हित में बताते हुये विरोध औऱ धरना-प्रदर्शन करने वालों को करने वालों को बिचौलिया, आढ़ती और विपक्ष का एजेंट बता रही है।
सरकार कृषि कानून का विरोध करने वालों को किसान मानने से ही इनकार करती रही है। इस काम में स्वयं प्रधानमंत्री, उनका कैबिनेट, भाजपा शासित राज्य सरकारें, आरएसएस, भाजपा किसान मोर्चा से लेकर सारे फ्रंटल संगठन और देश का मीडिया भी सहयोगी बना रहा।
अपनी मांगों के प्रति सरकार अड़ियल रवैये को देखते हुये किसानों ने 26 नवंबर को दिल्ली के जंतर-मंतर पर तीन दिवसीय धरना-प्रदर्शन करने का ऐलान किया था। और पंजाब-हरियाणा से आये किसान राजधानी की सीमा पर दस्तक दे दिये। मोदी सरकार अब भी अपने अहंकार में ही डूबी रही। सरकार का मानना था कि सर्दी को मौसम में किसानों का दोलन लंबा नहीं चल पायेगा। उनको सीमा पर कुछ दिनों रोक कर थका दिया जायेगा।
इस दौरान सरकार ने किसान आंदोलन को समाप्त करने के लिये हर हथकंडे को अपनाया। सिंघु बार्डर पर चल रहे लंगर और खर्च पर सवाल उठाये गये। किसानों को खालिस्तानी बताकर बदनाम करने की कोशिश हुई। इस दौरान दिल्ली पुलिस ने दो-दो बार राजधानी से बब्बर खालसा जैसे खालिस्तानी आतंकी संगठन के संदिग्ध आतंकी भी पकड़े गये। यह सब जनता में भ्रम फैलाने का सरकारी षडयंत्र का ही एक हिस्सा था।
आंदोलित किसानों को सिर्फ पंजाब का बता कर बाकी देश के किसानों को अलग करने का भी षडयंत्र रचा गया। चूंकि केन्द्र सरकार के नये कृषि कानून बनाने के बाद से ही पंजाब-हरियाणा के किसान आंदोलनरत हैं। इस दौरान एक बात बहुत तेजी से फैली कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर खरीद न होने के कारण सबसे ज्यादा नुकसान पंजाब-हरियाणा के किसानों को ही होने वाला है। दूसरी चर्चा ये गर्म रही कि पंजाब में कांग्रेस की सरकार है और राज्य के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह इस आंदोलन को प्रायोजित कर रहे हैं। इसलिए इसे बहुत महत्व नहीं देना चाहिए।
दरअसल, पंजाब-हरियाणा के किसानों के पास दूसरे राज्यों के किसानों से औसतन ज्यादा जमीन है। हरित क्रांति के लाभ के साथ ही सरकारी खरीद का लाभ उक्त दोनों राज्यों के ज्यादा मिलता रहा है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के तहत देश भर में गरीबों को बंटने वाला गेहूं-चावल इन्हीं दोनों राज्यों से खरीदा जाता है। इसलिए भारी संख्या में पंजाब के किसान 26 नवंबर को दिल्ली के बॉर्डर पर पहुंच रहे हैं। लेकिन सरकार का कोई हथकंडा काम नहीं आया।
मीडिया के माध्यम से किसानों के हित में कृषि कानून होने के प्रचार तो अब तक चल रहा है। सरकार तो कृषि कानून बनने के बाद से ही इसका विरोध करने वालों को विपक्ष का एजेंट बता रही है। अब सवाल सरकार के साथ ही मीडिया, बुद्धिजीवी और विपक्ष की भूमिका पर भी उठ रहे हैं। भारत बंद के एक दिन पहले जिस तरह से कांग्रेस समेत अधिकांश राजनीति दलों ने बंद को समर्थन दिया वह अभूतपूर्व है। लेकिन पंजाब में किसानों ने किसी भी राजनीतिक दल को मंच पर चढ़ने से मना कर बता दिया कि उसकी नजर में सारे राजनीतिक दल एक समान हैं।
किसान आंदोलन को मिल रहे समर्थन से भाजपा-आरएसएस सकते में हैं। देश के तमाम क्षेत्रीय दलों ने किसानों का समर्थन किया है, यह भविष्य में नये राजनीतिक समीकरण का संकेत है। फिलहाल दिल्ली के चारों बॉर्डर पर किसानों की भारी भीड़ है। दिल्ली को रोहतक से जोड़ने वाले इस हाईवे पर कई किलोमीटर तक ट्रैक्टर ट्रॉलियां खड़े हैं। सड़क के दोनों ओर किसान अपनी यूनियन के झंडे लिए नारेबाजी करते हुए चल रहे हैं। सभी किसानों का यही कहना है कि तीनों कानून रद्द करने से कम वो किसी बात पर नहीं मानेंगे।