
आज के दौर में यदि दुनिया के कोई दो देश युद्ध की ओर बढ़ रहे हों या युद्ध लड़ रहे हों, तो यकीन मानिए, उसमें सिर्फ वे दो देश शामिल नहीं हैं; कई अन्य शक्तिशाली देश भी हिस्सा ले रहे हैं। पूंजीवाद की इस साम्राज्यवादी दुनिया में उनकी उपस्थिति के बिना यह संभव नहीं है। पिछले कुछ हफ्तों में भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ता तनाव गैर-सैन्य ठिकानों पर हमलों से शुरू होकर तेजी से आगे बढ़ रहा है। भारत की ओर से बयान आ रहे हैं कि हम युद्ध नहीं चाहते; हमने आतंकवाद को खत्म करने के लिए उनके ठिकानों पर हमला किया है। लेकिन, स्थितियां अब इससे आगे बढ़ती दिख रही हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के इस संदर्भ में दिए गए बयानों को रेखांकित करना जरूरी है, जिनमें भारत और पाकिस्तान के प्रति हिकारत भरा लहजा झलकता है। उनके अनुसार, भारत और पाकिस्तान हजारों सालों से और सदियों से लड़ रहे हैं, और यदि ये देश चाहें तो वे उनकी मदद कर सकते हैं। यह बयान उन्होंने दो बार दोहराया। इसका अर्थ क्या है?
क्या वे इन दोनों देशों के आधुनिक राष्ट्र बनने के इतिहास से अनजान हैं? क्या वे इन दोनों देशों के प्रति अपनी हिकारत का प्रदर्शन कर रहे हैं? भारत और पाकिस्तान के बीच चल रही सैन्य कार्रवाइयों के प्रसंग में यह बयान मुझे लगातार खटक रहा है। यह भारत की राजनीतिक उपस्थिति को नकारने वाला बयान है। यह हिकारत तब और साफ दिखी, जब अमेरिका ने भारत के नागरिकों को हथकड़ियों में जकड़कर अपने सैन्य विमानों में भरकर भारत की धरती पर उतारा।
दुनिया की राजनीति, अर्थव्यवस्था, और सैन्य रणनीति में निर्णायक भूमिका निभाने वाला अमेरिका भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में इतनी हिकारत भरी रणनीति क्यों अपना रहा है? युद्ध के बदलते माहौल में यह सवाल मेरे सामने बार-बार उभर रहा है। युद्ध की परिभाषा देना शायद इस संदर्भ में अजीब लगे, लेकिन यह समझना जरूरी है कि युद्ध राजनीति की चरम अभिव्यक्ति है, और राजनीति आर्थिक हितों की सामान्य अभिव्यक्ति है, जिसमें हितों का टकराव उसकी तीव्रता को बढ़ाता है।
पिछले 20 वर्षों में राष्ट्रवाद, खासकर धर्म में डूबा राष्ट्रवाद, जिस तरह पूरी दुनिया में उभरा, उसे उदारवाद की जीत माना गया। इसकी एक अभिव्यक्ति ट्रंप की जीत में देखने को मिली। सत्ता में आते ही उन्होंने अमेरिकी हितों को सर्वोपरि रखने की घोषणा करते हुए टैरिफ युद्ध का ऐलान कर दिया। अमेरिका और चीन के बीच आर्थिक सीमा पर छिड़े इस युद्ध का खामियाजा लाखों लोगों ने शेयर बाजार में तबाह होकर चुकाया।
चीन ने अपनी एशियाई नीति के तहत भारत को तवज्जो देते हुए वीजा से लेकर आयात-निर्यात तक कई छूटों की घोषणा की। चीन के रणनीतिकारों की समझ सटीक है कि यूरोप और अमेरिका में उसकी पैठ उतनी ही हो सकती है, जितनी पिछले 100 वर्षों में रूस और जापान की रही है। इस दौरान भारत का झुकाव यूरोप की ओर बना रहा, और व्यापार के स्तर पर चीन के साथ बढ़त की प्रवृत्ति पर कोई रोक नहीं लगी।
चीन अपनी पूंजी के विस्तार के लिए मुख्य रूप से एशियाई और अफ्रीकी देशों पर निर्भर है। वह किसी भी तरह यूरोप और अमेरिका पर अपनी पकड़ नहीं बढ़ा सकता। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि पूंजी की उपलब्धता और उसकी उच्च क्षमता आज भी इन्हीं क्षेत्रों में केंद्रित है। यही कारण है कि रूस लंबे समय से ठहराव की स्थिति में है और अपने पड़ोसी देशों पर कब्जा कर पूंजी की उपलब्धता सुनिश्चित करने में लगा हुआ है।
यहां अमेरिका के टैरिफ युद्ध के साथ उन स्थितियों को देखना जरूरी है, जिनमें भारत की अर्थव्यवस्था के सामने चुनौतियां लगातार विकराल होती जा रही हैं। भारत के ठोस आर्थिक विकास के मानकों में ठहराव और गिरावट के बावजूद अर्थव्यवस्था का कुल आकार बढ़ता दिख रहा है। इसका अंतिम नतीजा सोने के भाव और अंतरराष्ट्रीय बाजार में मुद्रा के गिरते मूल्य में दिखाई देता है। यह भारत के रणनीतिकारों और अर्थशास्त्रियों के लिए एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। यह बात भी खुलकर कही जाने लगी है कि भारत की अर्थव्यवस्था अब चीन से काफी पीछे रह गई है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था की केंद्रीय धुरी पूंजीवाद है, जिसे विश्व-पूंजीवाद, भूमंडलीकृत पूंजीवाद, या पूंजीवादी साम्राज्यवाद जैसे नामों से जाना जाता है। आज भी अमेरिका और यूरोप इसकी केंद्रीय धुरी हैं। रूस पूंजीवाद के खेल में देर से शामिल हुआ, जबकि जापान दूसरे विश्व युद्ध में तबाह होने के बाद खुद को एशियाई देशों तक सीमित कर चुका है। चीन का उभार 1990 के दशक में हुआ, और संकटग्रस्त पूंजीवाद को ऑक्सीजन देने के साथ-साथ उसने इसमें अपनी हिस्सेदारी तेजी से बढ़ाई। इसने न केवल एशिया के अन्य देशों को पीछे छोड़ दिया, बल्कि यूरोप और अमेरिका के बाजार में अपनी ठोस घुसपैठ बनाने में भी जुट गया।
पूंजीवाद का उभार राष्ट्रवादी आकांक्षाओं की पीठ पर हुआ। इसने वतन, देश, और मातृभूमि जैसे भावात्मक शब्दों को राष्ट्र की श्रेणी में बदल दिया। लेकिन, एक बार जब पूंजीवाद ने राष्ट्रों को जन्म दे दिया, तो उसने खुद को उनकी सीमाओं तक सीमित रहने से इनकार कर दिया। इसने उपनिवेश बनाए और अन्य देशों को गुलाम बनाया। युद्ध की सीमाएं राष्ट्रों की सीमाओं से निकलकर विश्व के मानचित्र पर फैल गईं।
पहले और दूसरे विश्व युद्ध का केंद्र यूरोप रहा, लेकिन उसकी तबाही एशियाई देशों तक पहुंची, जहां करोड़ों लोग मारे गए। दूसरे विश्व युद्ध में युद्ध का केंद्र यूरोप से रूस की ओर खिसका, लेकिन अंततः यूरोप स्वयं लहूलुहान हुआ। अमेरिकी नेतृत्व ने इस युद्ध को जापान पर परमाणु बम गिराकर एशिया की ओर धकेल दिया। इसके बाद अमेरिकी नेतृत्व ने पूंजीवादी युद्ध को एशिया की ओर मोड़ दिया।
शुरुआती दौर में लैटिन अमेरिकी देश और फिर अफ्रीका लहूलुहान रहे। लेकिन 1970-80 के दशक से एशिया स्थायी युद्ध के केंद्र में बदल गया। 1990 के दशक में युद्ध मध्य एशिया में आ गया। पिछले 30 वर्षों में इस क्षेत्र का हर देश तबाही के कगार पर पहुंच चुका है, जबकि यूरोप और अमेरिकी पूंजीवाद को तेल की निर्बाध आपूर्ति जारी है, और इससे उत्पन्न होने वाली अर्थव्यवस्था पर उनका ठोस नियंत्रण बना हुआ है। चीन और रूस को एक सीमा से आगे बढ़ने नहीं दिया गया।
आज एक नई स्थिति पैदा हुई है। पिछले 10 वर्षों में बाजार का ठहराव पूंजीवाद के मुनाफे को रोक रहा है। इस मुनाफे में जो जितना हिस्सा हासिल कर लेगा, वह पूंजीवादी बाजार का अंतिम विजेता होगा। अमेरिका यूरोपीय बाजार को सुरक्षित रखना चाहता है, और यूरोप अपनी शर्तों पर एशियाई देशों के साथ पूंजी के बाजार से एक निश्चित दर पर मुनाफा स्थिर रखना चाहता है। इसका कुछ फायदा भारत को मिला है, लेकिन यह इतना नहीं है कि वह विकासशील अवस्था से विकसित अवस्था तक पहुंच सके, जैसा कि पिछले दस वर्षों से दावा किया जा रहा है। चीन ने इस दिशा में तेजी से विस्तार किया और एशियाई बाजार में अपनी स्थिति को मजबूत करने में जुटा है।
चीन के लिए भारत एक बड़ा बाजार है। बांग्लादेश, पाकिस्तान, और श्रीलंका सहित दक्षिण एशियाई देश भी उसके लिए बाजार की तरह हैं, जहां उसे बढ़त मिली है। यदि दक्षिण एशिया में युद्ध के हालात बनते हैं या युद्ध होता है, तो इसका सीधा असर चीन की पूंजी के लिए बने बाजार के नुकसान में तब्दील होगा। चीन के विस्तार को रोकने के लिए उसके बाजार क्षेत्र में युद्ध के हालात पैदा करना एक जरूरी रणनीति है। युद्ध के हालात में, चीन को छोड़कर, अधिकांश एशियाई देश युद्धक हथियारों, विमानों, खाद्य पदार्थों, और दवाइयों के लिए यूरोप और अमेरिका पर निर्भर हैं। ऐसे में, एशियाई बाजार एक बार फिर इनके लिए खुल जाएगा।
किसी भी युद्ध के तात्कालिक और दूरगामी कारण होते हैं। युद्ध एक हिंसक कार्रवाई है, और इसकी ओर बढ़ने के लिए भावनात्मक पक्ष की तीव्रता को बढ़ाना जरूरी होता है। रणनीतिकार कभी भावनाओं से संचालित नहीं होता; वह उनका उपयोग करता है। युद्ध की राजनीति में भावनाओं का जितना भी विस्तार हो, उसमें असहमति की कोई जगह नहीं होती। यह राजनीति की चरम अभिव्यक्ति है, जिसमें अन्य किसी भी राजनीति की जगह न्यूनतम या न के बराबर होती है। ऐसे में, उन हालातों पर बात होनी चाहिए, जिनमें युद्ध की ओर बढ़ रहे देश के रणनीतिकार युद्ध का निर्णय लेते हैं।
हमें इस पर जरूर विचार करना चाहिए कि साम्राज्यवाद के इस दौर में भारत और पाकिस्तान के बीच बन रहे युद्ध के माहौल के पीछे कोई अन्य ताकतें तो नहीं हैं। हमें अमेरिका, यूरोप, रूस, और चीन के बयानों पर ध्यान देना चाहिए और उनकी मंशा को समझना चाहिए। आज की दुनिया के मुख्य रणनीतिकार पूंजीवादी साम्राज्यवादी देश ही हैं। कहीं हम उनकी रणनीतियों के शिकार तो नहीं हो रहे?
पूरी दुनिया में आतंकवाद को बढ़ावा देने में अमेरिका ने सबसे अग्रणी भूमिका निभाई है। एशिया में उसने पाकिस्तान को आतंकवाद का केंद्र बनाया और इस देश की राजनीतिक स्थिति को हद दर्जे तक गिरा दिया। पाकिस्तान स्वयं राजनीतिक अस्थिरता और हिंसा का शिकार हो गया। वहां की राजनीति में अमेरिका द्वारा पैदा किया गया आतंकवाद एक हिस्सा बन चुका है। इस रणनीति का उपयोग आज सभी ताकतवर देश कर रहे हैं। अपने दबदबे को बनाए रखने के लिए यह रणनीति दो देशों के बीच युद्ध पैदा करने, किसी देश को गृहयुद्ध में धकेलने, और वहां तानाशाही व्यवस्था स्थापित करने में इस्तेमाल हो रही है।
जिस तेजी से भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध का माहौल बन रहा है, उसमें ठहरकर विश्व की परिस्थितियों और अपने देश की स्थिति को समझने की जरूरत है। पूंजीवाद ने अपने आगमन के साथ ही युद्ध को अनिवार्य बना दिया। पहले वे स्वयं लड़े और युद्ध की विभीषिका से झुलसकर खुद को इससे बाहर निकाल लिया। उन्होंने युद्ध को लैटिन अमेरिका, अफ्रीका, और फिर एशिया में ला पटका।
उन्होंने जापान को परमाणु बम का शिकार बनाया, फिर वियतनाम और दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर गए। इसके बाद मध्य एशिया में आए और एक के बाद एक देशों को तबाह करते गए। शुरू में यह लगता था कि इराक ने कुवैत पर कब्जा किया, इसलिए युद्ध हुआ, या इराक ने ईरान पर हमला किया, इसलिए युद्ध हुआ। अफगानिस्तान ने अमेरिका पर हमला किया, इसलिए युद्ध हुआ। लेकिन अब यह पूरी तरह स्पष्ट है कि ये सारे बहाने थे। मकसद कुछ और था, और युद्ध के रणनीतिकार यूरोप और अमेरिका में बैठे थे।
आज अमेरिका की सारी कोशिश युद्ध को भारतीय उपमहाद्वीप में लाने की है। जाहिर है, इससे भारत अछूता नहीं रहेगा। एशिया में जापान, चीन, कोरिया, और भारत को उभरता बाजार माना जाता है। पूंजी के मामले में जापान सबसे आगे है, उसके बाद चीन। लेकिन अर्थव्यवस्था के कुल आकार में भारत की गिनती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में होने लगी है।
मंदी और ठहराव के दौर में युद्ध बाजार में पूंजी का संकेंद्रण या एकाधिकार बढ़ा देता है और पूंजी को विस्तार देता है। हमें इस ओर जरूर देखना चाहिए कि कहीं भारत पूंजी के बाजार की इस रणनीति का शिकार तो नहीं हो रहा। हमें हर हाल में साम्राज्यवादी आकांक्षाओं, खासकर अमेरिकी मंसूबों का पुरजोर विरोध करना चाहिए।
(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं)