
सुंदर से सुंदर शरीर भी आत्मा के बिना निर्जीव है। हिंदुओं के लिए मंदिर उस देवता का स्थान है जो विश्व की अंतरात्मा है। सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच मध्यस्थों और मानवीय उद्देश्यों की पूर्ति के लिये दैविक अथवा धार्मिक शक्ति को काम में लाना आदि को नकारा नहीं जा सकता है। राम-मन्दिर इसी अलौकिक शक्ति को समझने के प्रयासों से संबंधित है।
शायद कहने की आवश्यकता नहीं है कि मन्दिर समाज से संबंधित है और लगभग सभी समाजों में पाया जाता है। इसलिए मंदिर को मनुष्य के सामाजिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत जीवन के उस पक्ष के रूप में देखा जाता है जिसमें मनुष्य की उदात्त आकांक्षाएं होती हैं। यह किसी भी समाज की नियामक सरंचना का आधार स्तम्भ है। याद रहे यह समाज की सभी नैतिक मान्यताओं, मूल्यों और आचार की मर्यादा रखता है। इस प्रकार यह समाज में सार्वजनिक व्यवस्था का आधार है और सभी आम जनता के लिये अन्तः चेतना का उद्गम है।
समाज को सूत्रबद्ध करने के लिए मन्दिर सबसे बड़ा सूत्र है। लेकिन इसके कारण ही सांप्रदायिक तनाव भी पैदा हुए हैं। भारतीय राजनीतिक विचारधारा के रूप में धार्मिक कट्टरवाद और अपने लक्ष्यों की पूर्ति के लिए साम्प्रदायिक उदय होने से देश के सामाजिक, आर्थिक आधार के नष्ट होने और राजनीतिक आधुनिकीकरण की अनिश्चितता की सम्भावना बढ़ गई है।
इस मन्दिर को लेकर कई प्रकार के राजनीतिक कयास लगाया जा रहा है। सबसे पहले यह है कि राम मन्दिर को ब्रह्म अस्त्र के रूप में देखा जा रहा है। सत्तारूढ़ दल लम्बे समय तक सत्ता में बने रहने के रूप में देखा जा रहा है। हिन्दुत्त्व विचारधारा को मजबूत करने का सबसे बड़ा मुहिम के रूप में देखा जा रहा है। कुछ महीनों के बाद राज्य के चुनावों में एक तरफ़ा जीत माना जा रहा है। वहीं बुद्धिजीवी इसका प्रमुख कारण विपक्ष पार्टीयों के गत कार्यों का ही परिणाम मान रही है।
भारतीय राजनीति में सभी जातियों और धर्मों से संबंधित धाराओं का समावेश है। इसलिए हम यहां इस समाजशास्त्रीय अध्ययन के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं कि इस राम-मन्दिर की स्थापना हिन्दू संस्कृति के वर्चस्व का है। यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि हिन्दू संस्कृति इस देश की सबसे अधिक व्यापक और समृद्ध संस्कृति है जिसे अनेक उप धाराओं ने पुष्ट और सम्पन्न किया है। इसके विस्तार के और भी अनेक कारण हैं।
यह हिन्दू संस्कृति जिसका उत्थान प्रमुख रूप से उत्तर भारत के कुछ भागों में हुआ और धीरे-धीरे इस देश की समूची लम्बाई और चौड़ाई में फैल गई। अनेक प्रकार की आवश्यकताओं और स्वभाव वाले लोगों के बीच उसका प्रचार-प्रसार हुआ और कई प्रकार के जन समुदाय के बीच यह शताब्दियों तक विकसित होती रही। इन कारणों से यह नितांत आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति का रूप नितांत विविध बन जाय।
हम इस बात से साफ़ अवगत हैं कि धर्म अत्यंत संवेदनशील विषय है। इसे राष्ट्र और विश्व के सन्दर्भ में समझने की आवश्यकता है। ताकि इसे नियंत्रित किया जा सके और विभिन्न धर्मों के बीच आपसी सेतु बनाए जा सके। जैसा कि स्पष्ट है कि हमलोग बहु-धार्मिक समाजों में रहते हैं और दुनिया समाज तो बहु-धार्मिक है ही। वर्तमान की कई घटनाएं दर्शाता है कि धर्म को हटाया या कामना रहित नहीं किया जा सकता है। लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि धर्म के प्रति अति उत्साहित होने से भारतीय समाज के लिए गंभीर परिणाम हो सकते हैं। शायद यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक का समूचा काल धर्म की परिधि में रहता है।
धर्म जीवन के कई प्रकार के लक्ष्यों को स्पष्ट करने में सहायता करता है और उनकी प्राप्ति की भूमिका में समाजीकरण की प्रक्रियाओं पर सशक्त प्रभाव डालता है। इस प्रकार धर्म सामाजिक एकता लाने में सहायक होता है लेकिन कुछ परिस्तिथियों में कभी-कभी धर्म संघर्ष का कारण भी बन जाता है। अलग-अलग जगहों पर धर्म का प्रभाव भी अलग-अलग होता है। प्रश्न यह उठता है कि यदि धार्मिक विश्वास एक जैसे हैं तो फिर समाज के विभिन्न हिस्सों में उनका प्रभाव अलग-अलग क्यों है? सभी धर्म तो प्रेम और विश्व-बन्धुत्त्व का ही सन्देश देते हैं । फिर भी लोग धर्म के नाम पर क्यों लड़-मर रहे हैं।
बहरहाल, विचारधारा का राजनीतिक, आर्थिक या धार्मिक आधार हो सकता है। कभी-कभी जातीय और सांस्कृतिक तत्त्व भी विचारधारा के आधार पर बन सकते हैं। हम जानते हैं कि भारतीय लोकतंत्र एक राजनीतिक विचारधारा है। राजनीति और धर्म बहुत से क्षेत्रों में एक-दूसरे के ऊपर छा जाते हैं और ऐसा विशेषकर हमारे समाज में होता है क्योंकि यहां संबंधों में भारी बिखराव है। इसलिए हमारे यहाँ धार्मिक विचारधारा का प्रभाव हो जाता है। जबकि हमारा लोकतंत्र सभी नागरिकों के कल्याण की अपेक्षा रखती है ।
हम में से बहुत लोगों की लोकतंत्र को स्थायी मानने की प्रवृत्ति है और हम में से बहुत कम लोग इस बात को समझते हैं कि लोकतंत्र सरकार का ऐसा प्रकार है जो तभी तक कायम रह सकता है जब तक इसके नागरिक चेतन और सावधान हों। लोकतंत्र को भीड़तंत्र या तानाशाही से बहुत खतरा रहता है। इन दोनों ही खतरों में सचेत नागरिक कानून के शासन में बदल देते हैं। अतः यह बहुत आवश्यक है कि भारतीय लोकतंत्र को दो अतिवादी प्रकारों से दूर रखा जाये। और यह उसी हालात में संभव है जब नागरिक सचेत और चौकन्ने हों।
सचेत होने का अर्थ है कि नागरिक राजनीतिक प्रक्रिया में बढ़ चढ़कर हिस्सा लें। विशेषकर वोट डालने के अपने अधिकार के प्रति सचेत रहें, विपक्ष को और विपक्षी दृष्टिकोण, विचारों के प्रति सहमत न होते हुए भी उन्हें सुनने की शक्ति हो, अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सचेत हों। अपने अधिकारों और कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन करते हों और किसी भी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए असंवैधानिक और ऐसे दूसरे किसी तरीकों को इस्तेमाल न करें।