इतिहास में आज : विश्व को धर्म का मर्म समझाने वाले स्वामी विवेकानंद का जन्मदिन…और क्या-क्या हुआ था 12 जनवरी के दिन ख़ास!


4 जून 1891 को उनकी युवा संन्यासी विवेकानन्द से पहली बार मुलाकात हुई। इस पहली मुलाकात में ही अजीतसिंह उस युवा संन्यासी से इतने प्रभावित हुए कि राजा ने उस युवा संन्यासी को अपना गुरु बना लिया तथा अपने साथ खेतड़ी चलने का आग्रह किया जिसे स्वामीजी ठुकरा नहीं सके।


प्रदीप सिंह प्रदीप सिंह
देश Updated On :

कहा जाता है कि यदि खेतड़ी नरेश राजा अजीत सिंह से स्वामी विवेकानन्द की मुलाकात न होती तो उनका शिकागो जाना संभव नहीं होता। राजा और संन्यासी के अटूट सम्बन्धों की अनेक कथाएं आज भी खेतड़ी के लोगों की जुबान पर सहज ही सुनने को मिल जाती हैं। स्वामी जी ने माना था कि राजा अजीतसिंह ही उनके जीवन में एकमात्र मित्र थे।

राजा और संन्यासी की यह मित्रता महज संयोग था या विधि का विधान, इसे दोनों के जीवन की कुछ घटनाओं से समझा जा सकता है। स्वामी जी का जन्म 12 जनवरी 1863 में व मृत्यु 4 जुलाई 1902 को हुयी थी। इसी तरह राजा अजीत सिंह का जन्म 10 अक्टूबर 1861 में व मृत्यु 18 जनवरी 1901 को हुयी थी। दोनों का निधन 39 वर्ष की उम्र में हो गया था व दोनों के जन्म व मृत्यु के समय में भी ज्यादा अन्तर नहीं था। इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता है।

राजस्थान के शेखावाटी अंचल में स्थित खेतड़ी एक छोटी किन्तु सुविकसित रियासत थी। खेतड़ी नरेश राजा अजीत सिंह एक धार्मिक व आध्यात्मिक प्रवृत्ति वाले शासक थे। राजा अजीत सिंह ने माऊन्ट आबू में एक नया महल खरीदा था जिसे उन्होंने खेतड़ी महल नाम दिया था।

गर्मी में राजा उसी महल में ठहरे हुये थे उसी दौरान 4 जून 1891 को उनकी युवा संन्यासी विवेकानन्द से पहली बार मुलाकात हुई। इस पहली मुलाकात में ही अजीत सिंह उस युवा संन्यासी से इतने प्रभावित हुए कि राजा ने उस युवा संन्यासी को अपना गुरु बना लिया तथा अपने साथ खेतड़ी चलने का आग्रह किया जिसे स्वामीजी ठुकरा नहीं सके।

स्वामी विवेकानन्द 7 अगस्त 1891 को प्रथम बार खेतड़ी आये। खेतड़ी में स्वामीजी 27 अक्टूबर 1891 तक रहे। यह स्वामी विवेकानन्द जी की प्रथम खेतड़ी यात्रा थी तथा किसी एक स्थान पर स्वामीजी का यह सबसे बड़ा ठहराव था।

स्वामीजी का सर्वजन विदित ‘स्वामी विवेकानन्द’ नाम भी राजा अजीत सिंह ने रखा था। इससे पूर्व स्वामीजी का अपना नाम विविदिषानन्द था। शिकागो जाने से पूर्व राजा अजीत सिंह ने स्वामीजी से कहा कि आपका नाम बड़ा कठिन है। उसी दिन राजा अजीत सिंह ने उनके सिर पर साफा बांधा व भगवा चोगा पहना कर नया वेश व नया नाम स्वामी विवेकानन्द प्रदान किया जिसे स्वामीजी ने जीवन पर्यन्त धारण किया। आज भी हम उन्हें राजा अजीत सिंह द्वारा दिये गये नाम स्वामी विवेकानन्द से ही जानते हैं।

अमेरिका जाने से पूर्व राजा अजीतसिंह के निमंत्रण पर 21 अप्रैल, 1893 को स्वामीजी दूसरी बार खेतड़ी पहुंचे। स्वामी जी ने इस दौरान 10 मई 1893 तक खेतड़ी में प्रवास किया। यह स्वामी जी की दूसरी खेतड़ी यात्रा थी।

महाराजा अजीतसिंह के आर्थिक सहयोग से ही 10 मई 1893 को स्वामीजी ने मात्र 28 वर्ष की अल्पायु में खेतड़ी से अमेरिका जाने को प्रस्थान किया। स्वामी विवेकानन्द अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित विश्वधर्म सम्मेलन में शामिल हुए और वेदान्त की पताका फहराकर भारत को विश्व धर्मगुरु का सम्मान दिलाया।

स्वामी विवेकानंद का नाम इतिहास में एक ऐसे विद्वान के रूप में दर्ज है, जिन्होंने मानवता की सेवा को अपना सर्वोपरि धर्म माना। अमेरिका के शिकागो में धर्म सभा में अपने धाराप्रवाह भाषण के कारण अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में आए भारतीय संन्यासी स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को बंगाल में हुआ था। स्वामी विवेकानंद अपने ओजपूर्ण और बेबाक भाषणों के कारण काफी लोकप्रिय हुए, विशेषकर युवाओं में। इसी कारण उनके जन्मदिन को पूरा राष्ट्र ‘युवा दिवस’ के रूप में मनाता है।

उन्होंने मानवता की सेवा एवं परोपकार के लिए 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। इस मिशन का नाम विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के नाम पर रखा।

शिकागो जाने के बाद विवेकानंद को पता चला कि धर्म संसद में हिस्सा लेने के लिए आधिकारिक अनुमति नहीं मिली है और सितंबर के पहले हफ्ते के बाद ही धर्म संसद शुरू होगी। उन्होंने बीच की अवधि के लिए बोस्टन जाने का फैसला किया।

बोस्टन में उनकी मुलाकात हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट से हुई। राइट ने विवेकानंद को यूनिवर्सिटी में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया और भाषण से वह काफी प्रभावित हुए। जब राइट को पता चला कि विवेकानंद के पास धर्म संसद में शामिल होने के लिए आधिकारिक अनुमति नहीं है और कोई परिचय पत्र भी नहीं है तो उन्होंने कहा, ‘आपका परिचय मांगना ठीक उसी तरह है जैसे सूर्य से स्वर्ग में चमकने के लिए उसके अधिकार का सबूत मांगना है।’

स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था। विवेकानंद का जब भी जिक्र आता है उनके इस भाषण की चर्चा जरूर होती है। पढ़ें विवेकानंद का वह विश्व प्रसिद्ध भाषण…

अमेरिका के बहनो और भाइयो,
“आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिंदुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं।

मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।

मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इजरायलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है।

भाइयो, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है: जिस तरह अलग-अलग स्त्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं।

वर्तमान सम्मेलन जो कि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है: जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं।

सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधमिर्ता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं।

अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।”

देश दुनिया के इतिहास में 12 जनवरी की तारीख पर दर्ज अन्य महत्‍वपूर्ण घटनाओं का सिलसिलेवार ब्योरा इस प्रकार है :

1708 : शाहू को मराठा शासक बनाया गया।

1757 : पश्चिम बंगाल के बंदेल को ब्रिटिश शासको ने पुर्तगालियों से छीना।

1863 : स्वामी विवेकानंद का जन्म।

1931: पाकिस्तान के मशहूर उर्दू शायर अहमद फराज का जन्म।

1934: भारत की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले क्रांतिकारी सूर्यसेन को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया।

1976: जासूसी उपन्यासों की मशहूर लेखिका अगाथा क्रिस्टी का निधन।

1984 : स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के तौर पर मनाने का ऐलान।

1991: अमेरिकी संसद ने इराक के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की मंजूर दी।

2008: कोलकाता के बाजार में भीषण आग लगने से सैकड़ों दुकानें क्षतिग्रस्त।



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