वनवासियों के राम ही विश्व के राम हैं


धर्म और राजनीति का रिश्ता बिगड़ गया है। धर्म दीर्घकालीन राजनीति हैं और राजनीति अल्पकालीन धर्म हैं। धर्म श्रेयम की उपलब्धि का प्रयत्न करता है। राजनीति बुराई से लड़ती हैं। हम आज एक दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति में है, जिसमें कि बुराई से विरोध की लड़ाई में धर्म का कोई वास्ता नहीं रह गया है और वह निर्जीव हो गया है, जबकि राजनीति अत्यधिक कलही और बेकार हो गई हैं।


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हुक्मदेव नारायण यादव
डॉ.राममनोहर लोहिया 1961 में चित्रकूट में रामायण मेला लगाना चाहते थे। विश्व में राम से जुड़े जितने देश हैं और वहां जो राम लीलाएं होती हैं, उस सभी को चित्रकूट के रामायण मेला में आमंत्रित करना चाहते थे। उसी प्रसंग में विश्व के विख्यात रामचरित के मर्मज्ञों को वहां आमंत्रित करना चाहते थे। कई बैठकें तैयारी के लिए हुई। भारत सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय की स्वीकृति और सहयोग नहीं मिलने के कारण रामायण मेला का कार्यक्रम स्थगित हो गया। 

उसी क्रम में बैठकों में राम के बहुआयामी व्यक्तित्व पर जो विचार उन्होंने व्यक्त किया था, वह पुस्तक में संकलित किया गया था। रामायण मेला नाम से प्रकाशित पुस्तक में डॉ. लोहिया ने कहा था- “धर्म और राजनीति का रिश्ता बिगड़ गया है। धर्म दीर्घकालीन राजनीति हैं और राजनीति अल्पकालीन धर्म हैं। धर्म श्रेयम की उपलब्धि का प्रयत्न करता है। राजनीति बुराई से लड़ती हैं। हम आज एक दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति में है, जिसमें कि बुराई से विरोध की लड़ाई में धर्म का कोई वास्ता नहीं रह गया है और वह निर्जीव हो गया है, जबकि राजनीति अत्यधिक कलही और बेकार हो गई हैं।” आगे वह लिखते हैं “अच्छे की स्तुति और बुरे की निंदा तथा अच्छाई करने और बुरे से लड़ने में फर्क है।” 

आज समग्रता में सोचने की आवश्यकता है। उसी प्रकार राम और कृष्ण के सम्बंध में उनके विचार को समझने और जानने की आवश्यकता है। उन्होंने उसी पुस्तक में कहा है- “राम हिन्दुस्तान की उत्तर-दक्षिण एकता के देवता थे। कृष्ण थे पश्चिम-पूर्व एकता के। राम और कृष्ण के अनेकों और गुण थे, लेकिन एकीकरण के गुण से बढ़कर किसी का महात्म्य नही है।” 

राम कृष्ण शिव पुस्तक के अंत में उन्होंने भारत माता से प्रार्थना की है-“भारत माता हमें असीम मस्तिष्क दो,  कृष्ण का हृदय दो तथा राम का कर्म और वचन दो। हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रचो।”  आज उसी राष्ट्रनीति की आवश्यकता है। केवल सरकार इस काम को नहीं कर सकती है। इसके लिए व्यापक जनसमर्थन चाहिए। सभी सम्प्रदायों के धर्माचार्य, चिंतक, विद्वान और संत इस पर आत्मचिंतन, आत्ममंथन और आत्मशोधन करें। जन-जन के राम की पूजा ही राष्ट्रीय एकता हैं। निषादराज, केवट, शबरी माता, जटायू, सुग्रीव, जामवन्त और वनवासी के राम ही विश्व के राम हैं। राम के वे भक्त आज भी उपेक्षित और उपहासिक हैं। धर्म और राजनीति के तत्त्व को समझने की आवश्यकता है।

(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं।)