समान नागरिक संहिता पर क्या है संविधान निर्माताओं की राय?


देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाते समय, यह याद रखना चाहिए कि “सांस्कृतिक विविधता से इस हद तक समझौता नहीं किया जा सकता है कि एकरूपता के लिए हमारा आग्रह ही राष्ट्र की क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरे का कारण बन जाए।”


प्रदीप सिंह प्रदीप सिंह
देश Updated On :

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर समान नागरिक संहिता को देश के लिए जरूरी बताया है। मध्य प्रदेश में भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि “संविधान में सभी नागरिकों के लिए एक समान अधिकार मिला है। दो अलग-अलग कानूनों से घर तक नहीं चलता तो देश कैसे चलेगा। आजकल समान नागरिक संहिता पर लोगों को भड़काने का काम हो रहा है। भाजपा तुष्टीकरण का रास्ता नहीं अपनाएगी और वोट बैंक की राजनीति नहीं करेगी। विपक्ष समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर मुस्लिम समुदाय को गुमराह करके भड़का रहा है।”

यह पहली बार नहीं है जब पीएम मोदी और संघ-भाजपा समान नागिरक संहिता की पैरवी कर रहे हैं। संघ-भाजपा के लिए यह मुद्दा नागरिकों पर एक समान कानून लागू करने का प्रयास नहीं बल्कि मुसलमानों को अलगाव में डालने का हथियार है। राजस्थान, मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों को देखते हुए मोदी ने यह राग फिर से अलाप रहे हैं। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान भी भाजपा समान नागरिक संहिता के मुद्दे को उठा चुकी है।

समान नागरिक संहिता को हाल फिलहाल में उठाने के पीछे 22वें विधि आयोग की नोटिस है। भारत के 22वें विधि आयोग ने 14 जून को समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के मुद्दे पर धार्मिक संगठनों और जनता से राय मांगी थी। इस आयोग के अध्यक्ष कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रितुराज अवस्थी हैं। उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति के टी शंकरन, प्रोफेसर आनंद पालीवाल, प्रोफेसर डीपी वर्मा, प्रोफेसर राका आर्य और एम करुणानिधि इसके सदस्य हैं। आयोग के नोटिस में कहा गया है कि इच्छुक   लोग 30 दिनों के भीतर अपने विचार प्रस्तुत कर सकते हैं।

मोदी सरकार ने आठ महीने पहले इस मुद्दे पर अपनी राय को उजागर कर दिया था। तलाक, उत्तराधिकार, विरासत, गोद लेने और संरक्षकता  के मामलों को नियंत्रित करने वाले कानूनों में एकरूपता के लिए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष याचिकाओं का जवाब देते हुए, केंद्र सरकार ने अक्टूबर 2022 में शीर्ष अदालत को बताया था कि संविधान राज्य को अपने नागरिकों के लिए यूसीसी रखने के लिए बाध्य करता है। केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के लोग अलग-अलग संपत्ति और वैवाहिक कानूनों का पालन करते हैं, यह “देश की एकता का अपमान” है।

संघ-भाजपा लंबे समय से समान नागरिक संहिता का राग अलापती रही है। लेकिन उनकों भारतीय समाज में प्रचलित विभिन्न रीति-रिवाजों और विभिन्न धर्मों में प्रचलित पारिवारिक-सामाजिक रूढ़ियों की जानकारी नहीं है। अलग-अलग धर्मों में ही नहीं बल्कि एक ही धर्म-संप्रदाय के लोगों में विवाह, उत्तराधिकार और अन्य धार्मिक रीति-रिवाजों की अलग-अलग परंपराएं मौजूद हैं।

संविधान विशेषज्ञ फैजान मुस्तफा कहते हैं कि, विभिन्न समुदायों के भीतर भी विविधता है। देश के सभी हिंदू एक कानून द्वारा शासित नहीं हैं, न ही सभी मुस्लिम या सभी ईसाई एक कानून द्वारा शासित हैं। पूर्वोत्तर में 200 से अधिक जनजातियां हैं जिनके अपने अलग-अलग प्रथागत कानून हैं। संविधान ही नागालैंड में स्थानीय रीति-रिवाजों की रक्षा करता है। मेघालय और मिजोरम को भी इसी तरह की सुरक्षा प्राप्त है। यहां तक कि संशोधित हिंदू कानून के लागू होने के बावजूद, कुछ पुरानी प्रथाओं की रक्षा करता है। इस नियम का अपवाद गोवा राज्य है, जहां सभी धर्मों में विवाह, तलाक और गोद लेने के संबंध में एक समान कानून है।

यूसीसी के बारे में संविधान क्या कहता है?

संविधान के अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि राज्य पूरे भारत में नागरिकों के लिए यूसीसी सुरक्षित करने का प्रयास करेगा। अनुच्छेद 44 राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में से एक है। निर्देशक सिद्धांत अदालत द्वारा लागू नहीं किए जा सकते, लेकिन उनसे शासन को सूचित करने और मार्गदर्शन करने की अपेक्षा की जाती है। हालांकि अनुच्छेद 44 में “राज्य प्रयास करेगा” शब्दों का उपयोग किया गया है।

अनुच्छेद 25 किसी व्यक्ति के धर्म के मौलिक अधिकार का वर्णन करता है; अनुच्छेद 26(बी) प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी भी वर्ग के “धर्म के मामलों में अपने स्वयं के मामलों का प्रबंधन” करने के अधिकार को बरकरार रखता है; अनुच्छेद 29 विशिष्ट संस्कृति के संरक्षण के अधिकार को परिभाषित करता है। अनुच्छेद 25 के तहत किसी व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता “सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य, नैतिकता” और मौलिक अधिकारों से संबंधित अन्य प्रावधानों के अधीन है, लेकिन अनुच्छेद 26 के तहत एक समूह की स्वतंत्रता अन्य मौलिक अधिकारों के अधीन नहीं है।

समान नागरिक संहिता क्या है?

समान नागिरक संहिता सभी धर्मों के लोगों के व्यक्तिगत कानूनों की एक समान कानून रखने का विचार है। व्यक्तिगत कानून में उत्तराधिकार, विवाह, तलाक, बच्चे की अभिरक्षा और गुजारा भत्ता के पहलू शामिल हैं। हालांकि, वर्तमान में भारत के व्यक्तिगत कानून काफी जटिल और विविध हैं, प्रत्येक धर्म अपने विशिष्ट नियमों का पालन करता है।

भारतीय संविधान का भाग IV राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों से संबंधित है, जो हालांकि अदालतों द्वारा लागू नहीं किए जा सकते हैं, लेकिन माना जाता है कि वे मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में कार्य करते हैं जो देश पर शासन करने में मौलिक भूमिका निभाते हैं। अनुच्छेद 44 में उल्लेख किया गया है कि राज्य को “भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करना चाहिए।”

संविधान सभा में क्या बहस हुई?

संविधान सभा में समान नागरिक संहिता को निर्देशक सिद्धांत के रूप में अपनाते हुए इस पर लंबी चर्चा हुई। जब 23 नवंबर, 1948 को उक्त अनुच्छेद पर चर्चा हो रही थी, तो कई मुस्लिम सदस्यों ने एक चेतावनी के साथ समान नागरिक संहिता अपनाने का सुझाव दिया कि यह पूर्व सहमति से नागरिकों पर लागू होगा। हालांकि, बीआर अंबेडकर संशोधनों के सख्त विरोधी थे।

मद्रास के एक सदस्य मोहम्मद इस्माइल ने इसमें एक प्रावधान जोड़ने का प्रस्ताव रखा, जिसमें कहा गया कि “किसी भी समुदाय का व्यक्तिगत कानून, जिसे क़ानून द्वारा गारंटी दी गई है, समुदाय की पिछली मंजूरी के अलावा इस तरह से सुनिश्चित नहीं किया जाएगा। संघ विधानमंडल कानून द्वारा निर्धारित कर सकता है।”

इस्माइल ने यह भी कहा कि किसी समूह या समुदाय का अपने व्यक्तिगत कानून का पालन करने का अधिकार मौलिक है और इसके साथ कोई भी छेड़छाड़ “उन लोगों के जीवन के तरीके में हस्तक्षेप के समान होगी जो पीढ़ियों से इन कानूनों का पालन कर रहे हैं।”

इसके बाद, पश्चिम बंगाल के नजीरुद्दीन अहमद ने कहा कि यूसीसी से सिर्फ मुसलमानों को असुविधा नहीं होगी, क्योंकि प्रत्येक धार्मिक समुदाय की अपनी धार्मिक मान्यताएं और प्रथाएं हैं।

इस बातचीत की कड़ी को आगे बढ़ाते हुए मद्रास के बी पोकर साहिब बहादुर ने कहा, “मैं पूछता हूं कि समान नागरिक संहिता से आपका क्या मतलब है, और आप किस विशेष कानून को, किस समुदाय के मानक के रूप में लेने जा रहे हैं?”  हिंदू कानून के भीतर अलग-अलग मिताक्षरा और दायभाग प्रणालियों का संदर्भ देते हुए उन्होंने कहा, “विभिन्न समुदायों द्वारा कई अन्य प्रणालियों का पालन किया जाता है। आप किस चीज़ को आधार बना रहे हैं?”

इसी तरह, वकील और शिक्षक केएम मुंशी, जिन्होंने भारतीय विद्या भवन की स्थापना की, ने कहा कि हिंदुओं के पास स्वयं अपने अलग-अलग कानून हैं और पूछा, “क्या हम इस आधार पर इस टुकड़े-टुकड़े कानून की अनुमति देने जा रहे हैं कि यह देश के व्यक्तिगत कानून को प्रभावित करता है? इसलिए यह सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए ही सवाल नहीं है बल्कि बहुसंख्यकों को भी प्रभावित करता है।”

अंत में, मसौदा समिति के तत्कालीन अध्यक्ष अम्बेडकर ने बताया कि उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत को छोड़कर, भारत के विभिन्न हिस्सों जैसे बॉम्बे और संयुक्त प्रांत में मुसलमान 1937 तक उत्तराधिकार के मामलों में हिंदू कानून द्वारा शासित थे। आश्वासन दिया गया कि यूसीसी को लोगों पर लागू नहीं किया जाएगा क्योंकि अनुच्छेद 44 “केवल यह प्रस्ताव करता है कि राज्य एक नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा।”

अम्बेडकर ने इस संभावना को भी रेखांकित किया कि भविष्य की संसद यूसीसी को “विशुद्ध स्वैच्छिक” तरीके से लागू करने के लिए प्रावधान कर सकती है।

देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाते समय, यह याद रखना चाहिए कि “सांस्कृतिक विविधता से इस हद तक समझौता नहीं किया जा सकता है कि एकरूपता के लिए हमारा आग्रह ही राष्ट्र की क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरे का कारण बन जाए।”