अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं, संविधान पीठ देगी फैसला


कोर्ट यह तय करेगा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा दिया जाए या नहीं। एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे का मामला पिछले कई दशकों से कानूनी चक्रव्यूह में फंसा हुआ है।


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अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक संस्‍थान का दर्ज रहेगा या नहीं, इस मामले में आठ दिनों तक सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों की दलील सुनने के बाद फैसला सुरक्ष‍ित रख लिया है। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की 7 न्यायाधीशों की संविधान पीठ इस मामले की सुनवाई की है।

कोर्ट यह तय करेगा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा दिया जाए या नहीं। एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे का मामला पिछले कई दशकों से कानूनी चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। शीर्ष अदालत ने 12 फरवरी 2019 को विवादास्पद मुद्दे को सात न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज दिया था। ऐसा ही एक संदर्भ 1981 में भी दिया गया था। 1967 में एस अजीज  पाशा बनाम भारत संघ मामले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा था कि चूंकि एएमयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता है। हालांकि, जब संसद ने 1981 में एएमयू (संशोधन) अधिनियम पारित किया तो इस प्रतिष्ठित संस्थान को अपना अल्पसंख्यक दर्जा वापस मिल गया।

जनवरी 2006 में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1981 के कानून के उस प्रावधान को रद्द कर दिया जिसके द्वारा विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा दिया गया था। केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील दायर की। यूनिवर्सिटी ने इसके खिलाफ अलग से याचिका भी दायर की। भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने 2016 में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वह पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा दायर अपील वापस ले लेगी। इसने बाशा मामले में शीर्ष अदालत के 1967 के फैसले का हवाला देते हुए दावा किया था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है क्योंकि यह सरकार द्वारा वित्त पोषित एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है।