भारत में दवाइयां इतनी महंगी क्यों?

भारत में असरहीन नियमन के चलते, भारतीय दवा उद्योग बेरोकटोक मुनाफाखोरी में लिप्त है। दवा कंपनियां या तो मोनोपॉली या ओलिगोपॉली (पूर्ण एकाधिकार या कुछ कंपनियों का मिलकर एकाधिकार) के रूप में बनी हैं। इसके चलते उन्हें मूल्य-निर्धारण पर अधिकार मिल जाता है।

अक्सर भारत में दवाइयों की ऊंची कीमतों को लेकर शिकायतें सुनने को मिलती हैं; जिन्हें अधिकांश लोग वहन नहीं कर सकते। देश में अधिकांश दवाइयों की उत्पादन लागत कम होने के बावजूद मरीज़ों को ये दवाइयां महंगे दामों पर क्यों मिलती हैं? भारत में दवाइयों की ऊंची कीमतों के कुछ प्रमुख कारण हैं। दो भागों में प्रस्तुत इस लेख के पहले भाग में हम भारत सरकार द्वारा दवा कीमतों के नियमन की लगभग अनुपस्थिति पर बात करेंगे। और दूसरे भाग में भारत सरकार द्वारा ब्रांड नामों, बेतुके नियत खुराक मिश्रणों, ‘मी टू’ औषधियों को दी जाने वाली अनुमति पर बात करेंगे।

 देश में दवा कीमतों का नाममात्र का नियमन

दर्श दृष्टि से तो दवाइयां देखभाल के स्थान पर मुफ्त मिलनी चाहिए। भारत में सरकारी स्वास्थ्य सेवा केंद्रों पर यही स्थिति होनी चाहिए। लेकिन मात्र करीब 20 प्रतिशत बाह्य रोगी देखभाल तथा 44 प्रतिशत भर्ती रोगी देखभाल ही सरकारी स्वास्थ्य सेवा द्वारा दी जाती है। दूसरी बात यह है कि पिछले तीन दशकों में सरकार की निजीकरण नीतियों के चलते सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों की अनदेखी हुई है, और उनके पास फंड की कमी है। लिहाज़ा, इन केंद्रों पर दवाइयों की उपलब्धता की कमी है। परिणामस्वरूप, कई मर्तबा रोगियों को इन केंद्रों से स्वास्थ्य सेवा लेते समय भी दवाइयों पर खुद की जेब से खर्च करना पड़ता है। मात्र तीन राज्य – तमिलनाडु, केरल और राजस्थान – इसके अपवाद हैं, जहां सरकारी केंद्रों के लिए दवा खरीद व आपूर्ति का सराहनीय मॉडल अपनाया गया है।

कुल मिलाकर देखें, तो भर्ती मरीज़ों के मामले में 29.1 प्रतिशत तथा बाह्य रोगियों के मामले में 60.3 प्रतिशत खर्च जेब से (आउट ऑफ पॉकेट) किया जाता है। इसके अलावा दवाइयों पर किया गया खर्च हर साल 3 प्रतिशत भारतीयों को गरीबी में धकेल देता है। इसके विपरीत, विकसित देशों में जेब से खर्च कम है क्योंकि इसका एक बड़ा हिस्सा बीमा समेत सार्वजनिक वित्तपोषण द्वारा वहन किया जाता है।

भारत में दवाइयों की ऊंची कीमतों के दो कारण हैं। पहला, भारत सरकार द्वारा दवा कीमतों के नियमन की लगभग अनुपस्थिति। दूसरा, भारत सरकार द्वारा ब्रांड नामों, बेतुके नियत खुराक मिश्रणों, ‘मी टू’ औषधियों को दी जाने वाली अनुमति। इस लेख के पहले हिस्से में पहले कारण- यानी भारत में दवा कीमतों के नियमन की लगभग अनुपस्थिति- की चर्चा की गई है।

नियमन क्यों ज़रूरी है

दवाइयां एक मायने में अनोखी वस्तु हैं। इनके सेवन का निर्देश देने वाला-डॉक्टर-उनका भुगतान नहीं करता और इन्हें खरीदने वाला-मरीज़ – दवाइयों के चयन सम्बंधी निर्णय नहीं करता। मरीज़ लिखी गई हर दवा को किसी भी कीमत पर खरीदता है। इस मामले में देरी करने या बातचीत करने का विकल्प नहीं होता क्योंकि मरीज़ दर्द या तकलीफ में होता है। देरी करना या बातचीत में समय गंवाना जानलेवा भी हो सकता है। दवा खरीदार के रूप में विकल्प चुनने की आज़ादी या तो होती ही नहीं, या बहुत सीमित होती है।

इसके अलावा, लिखी गई दवा के बारे में, उसका अन्य विकल्प चुनने के बारे में जानकारी का एक असंतुलन होता है, इसके साथ-साथ दवाइयों की तकनीकी पेचीदगियों को लेकर और दवाइयों के साइड प्रभावों या प्रतिकूल प्रभावों को लेकर डर होता है। नतीजतन, किसी भी अन्य सेक्टर की अपेक्षा स्वास्थ्य सेवा के उपभोक्ता इस डर में रहते हैं कि कोई गड़बड़ न हो जाए। मरीज़ों की यह अनोखी दुर्बलता, और साथ में व्यापक गरीबी मिलकर दवा जैसी अनिवार्य वस्तु की कीमतों पर नियंत्रण की ज़रूरत को उजागर करती हैं।

अलबत्ता, भारत में असरहीन नियमन के चलते, भारतीय दवा उद्योग बेरोकटोक मुनाफाखोरी में लिप्त है। दवा कंपनियां या तो मोनोपॉली या ओलिगोपॉली (पूर्ण एकाधिकार या कुछ कंपनियों का मिलकर एकाधिकार) के रूप में बनी हैं। इसके चलते उन्हें मूल्य-निर्धारण पर अधिकार मिल जाता है। यानी मरीज़ की कमज़ोर स्थिति के अलावा उन्हें बाज़ार में कमज़ोर प्रतिस्पर्धा होने का भी फायदा मिलता है। कई मामलों में तो सर्वोच्च 3-4 ब्रांड मिलकर बाज़ार के बड़े हिस्से पर काबिज़ होते हैं। फिर, बड़ी दवा कंपनियों द्वारा डॉक्टरों को ऊंचे दाम वाले ब्रांड्स लिखने को राज़ी कर लिया जाता है। इन सबका परिणाम भारत में दवाइयों के अनावश्यक रूप से ऊंचे दामों के रूप में सामने आता है। आइए, देखते हैं कि कैसे। 

कीमतों का नाममात्र का नियमन

जो लागत-प्लस सूत्र ज़रूरी सेवाओं (टेलीफोन/सेलफोन की कॉल दरें, बिजली, टैक्सी) की दरें तय करने में काम आता है उसी का इस्तेमाल दवाइयों की कीमतें तय करने में भी होना चाहिए। दरअसल, 1979 से यही तरीका था जब दवाइयों की बड़ी संख्या के मूल्यों का नियमन करने के लिए लागत-प्लस विधि का उपयोग किया गया था। निर्माता की उत्पादन-लागत के आधार पर एक उच्चतम कीमत निर्धारित कर दी जाती थी, और उसके ऊपर 100 प्रतिशत का मार्जिन रखा जाता था। अलबत्ता, दवा कंपनियों ने सरकार पर दबाव बनाया जिसके चलते मूल्य-नियंत्रण के अधीन आने वाली दवाइयों की संख्या 1995 में मात्र 74 रह गई जबकि 1979 में इनकी संख्या 347 थी।

एक जनहित याचिका के संदर्भ में सर्वोच्च अदालत की वजह से सरकार को समस्त अनिवार्य दवाइयों को मूल्य नियंत्रण के अधीन लाने पर विवश होना पड़ा था (विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक ‘अनिवार्य दवाइयां वे हैं जो किसी आबादी की प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की पूर्ति करती हैं।’) 2013 में, राष्ट्रीय अनिवार्य दवा सूची-2011 की सारी 348 दवाइयों को ‘औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश 2013’ के ज़रिए मूल्य नियंत्रण के अधीन लाया गया था।

इस आदेश की वजह से औषधि मूल्य नियंत्रण के अधीन आने वाली दवाइयों की संख्या 1995 की तुलना में कहीं ज़्यादा हो गई। लेकिन ‘औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश (डीपीसीओ) 2013’ के मुताबिक राष्ट्रीय अनिवार्य दवा सूची-2011 में शामिल समस्त दवाइयों की कीमत किसी दवा के उन समस्त ब्रांड की कीमतों का औसत होगी जिनका बाज़ार में हिस्सा 1 प्रतिशत से अधिक है। बाज़ार में हिस्से की गणना उनकी वार्षिक बिक्री के आधार पर की जाएगी।

बाज़ार-आधारित मूल्य (MBP) निर्धारण ने प्रभावी तौर पर अनिवार्य दवाइयों की उस समय प्रचलित निहायत ऊंची कीमतों को वैधता दे दी। औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश 1995 की लागत-आधारित दवा कीमतों को इन अनिवार्य दवाइयों के लिए जारी रखा जाता तो दवाइयों के मूल्य ठीक-ठाक स्तर पर बने रहते। लेकिन जब से नई बाज़ार-आधारित मूल्य-निर्धारण पद्धति को अपनाया गया, तब से मूल्य-नियंत्रण के अधीन आने वाली इन दवाइयों की कीमतें ऊंची बनी हुई हैं।

उदाहरण के लिए, डिक्लोफेनेक 50 मि.ग्रा. की गोली, जिसका उपयोग शोथ व दर्द कम करने के लिए किया जाता है, की कीमत (यदि लागत-आधारित मूल्य निर्धारण लागू किया जाता) डीपीसीओ के तहत 2.81 रुपए प्रति 10 गोली होती (देखें तालिका 1)। लेकिन मूल्य नियंत्रण आदेश-2013 के तहत 10 गोलियों की फुटकर कीमत 19.51 रुपए निकली क्योंकि यह इस गोली के 1 प्रतिशत से ज़्यादा बाज़ार-हिस्से वाले ब्रांड्स की औसत कीमत और उसमें फुटकर विक्रेता का 16 प्रतिशत मार्जिन जोड़कर निकाली गई है।

दरअसल, डीपीसीओ-2013 में बाज़ार-आधारित पद्धति से निकाली गई कीमत उस दवा के उत्पादन की वास्तविक लागत की बजाय ब्रांड मूल्य को प्रतिबंबित करती है। मतलब यह हुआ कि आम तौर पर इस्तेमाल की जानी दवाइयों के मामले में उपभोक्ता पर 290 से लेकर 1729 प्रतिशत का अनावश्यक बोझ पड़ा।

डीपीसीओ-2013 इस तरह से बना था कि यह उच्चतम कीमतों को तो कम करता था लेकिन इसने उन अधिकांश ब्रांड्स की कीमतों को कदापि प्रभावित नहीं किया जो पहले से ही उच्चतम मूल्य से कम पर बिकते थे। आम लोगों के लिहाज़ से तो मूल्य नियंत्रण सिर्फ अधिकतम कीमत पर लागू नहीं होना चाहिए बल्कि सारी अनावश्यक रूप से महंगी दवाइयों पर लागू होना चाहिए।

उपलब्ध आंकड़ों से पता चला है कि डीपीसीओ-2013 में सम्मिलित 370 दवाइयों की बिक्री 11,233 करोड़ रुपए थी। डीपीसीओ-2013 के लागू होने से इन दवाइयों की बिक्री से आमदनी 1280 करोड़ रुपए (लगभग 11 प्रतिशत) कम हो गई। यह कमी इन दवाइयों की कीमत में नाममात्र की कमी ही थी। इतनी कमी की भरपाई तो साल-दर-साल बिक्री में होने वाली वृद्धि से हो जाएगी।

डीपीसीओ-2013 दवा कंपनियों को भारी-भरकम मुनाफे की गुंजाइश देता है, यह इस बात से भी ज़ाहिर होता है कि डीपीसीओ-2013 द्वारा निर्धारित कीमतें जन-औषधि स्टोर्स पर उन्हीं दवाइयों की कीमतों से कहीं ज़्यादा है। जन-औषधि योजना मनमोहन सिंह सरकार द्वारा 2008 में शुरू की गई थी।

इसके अंतर्गत सरकार फुटकर औषधि विक्रेताओं को फर्नीचर व अन्य प्रारंभिक स्थापना के लिए 2 लाख रुपए की प्रोत्साहन राशि देती है। इसके अलावा, जन-औषधि केंद्र चलाने के लिए मासिक बिक्री पर 15 प्रतिशत (अधिकतम 15,000 रुपए) का प्रोत्साहन है, बशर्ते कि वे दवाइयां सिर्फ जेनेरिक नामों से सरकार द्वारा निर्धारित कीमतों पर बेचें।

गुणवत्ता के आश्वासन के साथ जेनेरिक नामों वाली दवाइयां इन जन-औषधि केंद्रों को सरकार द्वारा नियंत्रित व अत्यंत कम दामों पर उपलब्ध कराई जाती हैं, और विक्रेता को 20 प्रतिशत का मार्जिन मिलता है। (भारत में आम तौर पर दवा कंपनियां फुटकर विक्रेताओं के लिए 16 प्रतिशत तक का मार्जिन छोड़ती हैं।) हालांकि इस योजना के लिए बजट अत्यंत सीमित था और यह एक सांकेतिक योजना ही बनी रही, लेकिन यह दर्शाती है कि फुटकर दुकानों पर दवाइयां आजकल के मुकाबले कहीं कम दामों पर बेची जा सकती हैं। यह तालिका 2 में देखा जा सकता है।

निष्कर्ष के तौर पर, कहा जा सकता है कि दवाइयों की उत्पादन लागत की तुलना में उनकी कीमतें बहुत अधिक हैं क्योंकि डीपीसीओ-2013 ने मूल्य-नियंत्रण को नाममात्र का बना दिया है, और दवा कंपनियों को भारी मुनाफाखोरी की छूट दे दी है। तब क्या आश्चर्य कि भारत में उत्पादन लागत के मुकाबले दवाइयों की कीमत बहुत ज़्यादा हैं।  

तालिका -1: दवाइयों की कीमतें (2013)

डीपीसीओ-2013 की बाज़ार-आधारित पद्धति और यदि डीपीसीओ-1995 जारी रहता तो उत्पादन लागत पद्धति की तुलना

(10 गोली की एक पट्टी की कीमत रुपए में)

क्र. दवा का नाम व उपयोग डीपीसीओ-2013 की बाज़ार-आधारित पद्धति से अधिकतम खुदरा मूल्य (सीलिंग मूल्य + 16 प्रतिशत) सीलिंग मूल्य यदि डीपीसीओ-1995 की उत्पादन लागत पदधति जारी रहती बाज़ार-आधारित पद्धति 2013 के कारण उपभोक्ता पर अतिरिक्त बोझ (प्रतिशत)
1 डिक्लोफेनेक सोडियम, 50 मि.ग्रा., दर्दनिवारक 19.50 2.81 693
2 मेटमॉर्फिन, 500 मि.ग्रा. डजायबिटीज़रोधी 15.6 4.75 328
3 एमलोडिपीन, 5 मि.ग्रा., उच्चरक्तचाप रोधी 30.6 1.77 1,729
4 हायड्रोक्लोरथाएज़िड, 5 मि.ग्रा.. उच्चरक्ताचाप रोधी 16.6 2 830
5 गिल्बेन्क्लेमाइड, 5 मि.ग्रा. उच्चरक्तचाप रोधी 9.6 1.42 676
6 एमॉक्सिसिलीन कैप्सूल, 500 मि.ग्रा., एंटीबायोटिक 60.9 21 290
7 एनालेप्रिल मेलिएट, 5 मि.ग्रा., उच्चरक्ताचाप रोधी 29.6 2.4 1,233
8 एज़िथ्रोमायसीन, 500 मि.ग्रा., एंटीबायोटिक 198.6 2 171
9 सेट्रिज़ीन, 10 मि.ग्रा., एलर्जीरोधी 18.10 5.6 905
10 एट्रोवेस्टेटिन, 10 मि.ग्रा., कोलेस्ट्रॉल कम करती है 59.1 12 1,055
11 एलबेंडेज़ोल, 400 मि.ग्रा., हुकवर्म नाशी 91.2 1.7 760
12 डाएज़ेपाम, 5 मि.ग्रा., निद्रालु 13.2 7.3 776
तालिका 2

दवाइयों की कीमतें डीपीसीओ के अंतर्गत और जन औषधि केंद्रों पर, जुलाई 2014

क्र. दवा का नाम डीपीसीओ की वर्तमान सीलिंग कीमत रुपए प्रति गोली जन औषधि अधिकतम खुदरा मूल्य रुपए प्रति गोली दोनों में अंतर (प्रतिशत)
1 एमॉक्सिसिलीन कैप्सूल 500 मि.ग्रा. 7.36 3.50 210
2 एमॉक्सिसिलीन+क्लेवुलिनिक एसिड (500 मि.ग्रा.+125 मि.ग्रा. ) 18.3 9.35 196
3 डॉक्सीसायक्लीन कैपसूल 3.08 1.40 220
4 सिप्रॉफ्लॉक्सेसीन कैप्सूल 500 मि.ग्रा. 4.25 2.00 213
5 एज़िथ्रोमायसीन गोली, 500 मि.ग्रा. 19.03 14.00 136
6 एम्लोडिपीन 5 मि.ग्रा. 2.5 0.55 455
7 एनालाप्रिल गोली, 5 मि.ग्रा. 3.7 0.55 673
8 ग्लाइमप्राइड गोली, 2 मि.ग्रा. 5.8 0.55 1,055
9 मेटफॉर्मिन गेली 500 मि.ग्रा. 2.02 0.66 306
10 एट्रोवेस्टेटिन गोली, 10 मि.ग्रा. 4.94 0.88 561

 (डॉ. अनंत फड़के की रिपोर्ट)

First Published on: March 13, 2025 5:22 PM
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