महिला किसान: खेती-किसानी में अदृश्य किसानों का योगदान

नागरिक न्यूज नागरिक न्यूज
देश Updated On :

कई आर्थिक और सामाजिक अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि कृषिप्रधान देश भारत में महिला किसानों के बारे में अलग से चर्चा नहीं की जाती। पूरी मुस्तैदी के साथ खेती-किसानी में जुटी महिलाओं को किसान के रूप में परिभाषित नहीं किया जाता। महिला सशक्तीकरण और नारीवाद से संबंधित सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, और राजनीतिक चर्चाओं में उनका जिक्र नगण्य होता है।

महिलाओं को किसान क्यों नहीं माना जाता?

यह एक यक्ष प्रश्न है, क्योंकि महिलाएं भारतीय कृषि व्यवस्था की रीढ़ हैं। न केवल भारत में, बल्कि विश्व भर में लगभग 900 मिलियन महिलाएं कृषि क्षेत्र से जुड़ी हैं। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण 2019-20 की रिपोर्ट के अनुसार, 75.7% ग्रामीण महिलाएं किसी न किसी रूप में कृषि कार्य करती हैं। हालांकि, कृषि समुदायों से संबंधित केवल 13.87% महिलाओं के पास कृषि योग्य भूमि पर कानूनी अधिकार है। गैर-कृषि समुदायों की महिलाओं की स्थिति और भी दयनीय है, क्योंकि केवल 2% महिलाओं के पास भूमि का मालिकाना हक है। दूसरे शब्दों में, कृषि समुदायों की लगभग 86% और गैर-कृषि श्रमिक समुदायों की 98% महिलाओं के पास भूमि संबंधी कोई संपत्ति नहीं है।

कृषि समुदायों की महिलाएं अधिकतर अपनी पारिवारिक भूमि पर काम करती हैं, जबकि गैर-कृषि समुदायों की महिलाएं श्रमिक के रूप में ग्रामीण किसानों की भूमि पर कार्य करती हैं। महिला किसान अधिकार मंच (MAKAAM) की संस्थापक अध्यक्ष डॉ. रुक्मिणी राव के अनुसार, प्रत्येक एकड़ पर 70% कार्य महिलाएं करती हैं, जबकि पुरुष केवल 30% कार्य करते हैं। एक अनुमान के अनुसार, एक महिला किसान खेतों में प्रतिवर्ष 3,485 घंटे काम करती है, जबकि एक पुरुष किसान 1,212 घंटे काम करता है।

भारत के विभिन्न क्षेत्रों-पूर्वोत्तर से दक्षिण भारत, कश्मीर से कन्याकुमारी तक-कृषि क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को उनके कार्यों के आधार पर तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:

  1. पहला वर्ग: वह महिलाएं जो बिना किसी भूमि के अधिकार के दिहाड़ी मजदूरी पर कृषि कार्य करती हैं।
  2. दूसरा वर्ग: वह महिलाएं जो स्वयं भूमि की मालकिन हैं या अपने परिवार की भूमि पर काम करती हैं।
  3. तीसरा वर्ग: वह महिलाएं जो कृषि संबंधी प्रबंधन कार्य करती हैं।

कृषि संबंधी कार्यों में महिलाओं का योगदान

महिलाएं भारतीय कृषि की रीढ़ हैं और कृषि विकास में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है। वे निम्नलिखित कार्य करती हैं:

  • बुवाई के लिए जमीन तैयार करने में सहयोग, बुवाई, रोपाई, सिंचाई, छंटाई, उर्वरकों का प्रयोग, बंधाई, भराई, पौध संरक्षण, और भंडारण।
  • खेत में काम करने वाले पुरुषों और श्रमिकों के लिए चाय व भोजन ले जाना।
  • पुरुषों की अनुपस्थिति में खेतों की सुरक्षा।
  • आर्थिक रूप से संपन्न महिलाएं ट्रैक्टर और आधुनिक उपकरणों का उपयोग करती हैं, जबकि गरीब महिलाएं बैल जोतकर हल चलाने, झोटा-बुग्गी, या बैलगाड़ी चलाने का काम करती हैं।

कृषि क्षेत्र में लैंगिक भेदभाव

आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के अनुसार, पुरुषों के रोजगार की तलाश में गाँवों से शहरों या अन्य राज्यों में पलायन के बाद कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका और बढ़ गई है। इसके बावजूद, भूमि, कृषि ऋण, बीज, और बाजार जैसे संसाधनों में लैंगिक भेदभाव बढ़ रहा है। परिणामस्वरूप, महिलाएं सरकारी योजनाओं और नीतियों का पूरा लाभ नहीं उठा पातीं और न ही बदलाव के लिए दबाव बना पाती हैं। मीडिया में भी महिला किसान ‘कृषि नायिकाओं’ (एग्रीकल्चरल हीरोइन्स) के रूप में लगभग अदृश्य हैं। समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, मास मीडिया, और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में महिला किसानों का उल्लेख न के बराबर होता है।

महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में महिला अध्ययन केंद्र स्थापित किए गए हैं, और महिला सशक्तीकरण के नाम पर सेमिनार व भाषण आयोजित होते हैं। फिर भी, राष्ट्रीय मुख्यधारा मीडिया, प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, और मास मीडिया में महिला किसानों और कृषि श्रमिक महिलाओं की समस्याओं पर विशेष चर्चा नहीं होती। यही कारण है कि राजनेता, अधिकारी, शिक्षक, और शोधकर्ता इनकी समस्याओं को नजरअंदाज करते हैं।

शोध कार्यों में भी महिला सशक्तीकरण के नाम पर उन महिलाओं पर ध्यान दिया जाता है जो पहले से ही शक्तिशाली हैं। महिला किसानों और कृषि श्रमिकों पर शोध नगण्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनका राष्ट्रीय विकास में कोई योगदान नहीं है। कृषि कार्यों के दौरान महिलाओं के शरीर पर गहरा प्रभाव पड़ता है। चिलचिलाती धूप, कड़कड़ाती सर्दी, और बारिश में काम करने से कई स्वास्थ्य समस्याएं और बीमारियां उत्पन्न होती हैं। उदाहरण के लिए, अभी तक यह शोध नहीं हुआ कि कृषि कार्यों से जुड़ी महिलाओं के कितने गर्भपात हुए हैं।

महिला किसान भी करती हैं आत्महत्या

आम धारणा है कि खेती में बढ़ती लागत और घटती आय के कारण केवल पुरुष किसान आत्महत्या करते हैं, लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है। स्वामीनाथन रिपोर्ट 2006 में न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को लागत से 50% अधिक करने की सिफारिश की गई थी, जिसे सरकारों ने लागू नहीं किया। परिणामस्वरूप, किसानों का शोषण जारी है, और प्रति एकड़ 8,000 से 10,000 रुपये का नुकसान होता है। बाढ़, सूखा, ओलावृष्टि, फसल रोग, ऋण चुकाने में असमर्थता, और घरेलू खर्चों की कठिनाइयों जैसे कारणों से महिलाएं भी पुरुषों की तरह हताश होती हैं और आत्महत्या का रास्ता चुनती हैं।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार, 1995 से 2018 के बीच 50,188 महिला किसानों ने आत्महत्या की, जो कुल किसान आत्महत्याओं का 14.82% है।

विधवा किसानों की समस्याएं

पति की मृत्यु के बाद विधवा महिलाओं को भूमि का उत्तराधिकार प्राप्त करने में भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। महिला किसान अधिकार मंच की रिपोर्ट (2012-2018) के अनुसार, भारत में हर 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है। पति की मृत्यु के बाद विधवाओं का जीवन अंधकारमय हो जाता है। कोटा नीलिमा की पुस्तक Widows of Vidarbha: Making of Shadows (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2018) में उनकी मार्मिक स्थिति का वर्णन है।

रिपोर्ट के अनुसार, 2012-2018 के बीच 40% विधवा महिलाओं को भूमि का अधिकार नहीं मिला। पटवारी से लेकर राजस्व विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों तक दौड़ लगाना उनके लिए कठिन है, क्योंकि पति की मृत्यु के बाद कृषि कार्य के साथ-साथ अन्य जिम्मेदारियां भी उन पर आ पड़ती हैं। इसके अलावा, उन्हें सामाजिक तिरस्कार और अपमानजनक टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है। कोर्ट में मुकदमों के लिए वकील की फीस और बार-बार लगने वाले खर्चे भी उनकी परेशानियों को बढ़ाते हैं।

ग्रामीण महिलाएं और उनके अन्य कार्य

पशुपालन संबंधी कार्य: महिलाएं पशुओं के लिए खेतों और जंगलों से चारा/घास काटकर लाती हैं, उसे मशीन से काटती हैं, चारा खिलाती हैं, दूध निकालती हैं, दूध का प्रसंस्करण करती हैं, गोबर उठाती हैं, उपले बनाती हैं, पशुओं (विशेषकर भैंसों) को नहलाती हैं, और बीमार पशुओं का इलाज कराने में सहयोग करती हैं। पति या पुरुषों की अनुपस्थिति में वे पशुओं की सुरक्षा भी करती हैं। संक्षेप में, पशुपालन में महिलाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।

घरेलू कार्य: कृषि और पशुपालन के अतिरिक्त, महिलाएं घरेलू कार्य भी करती हैं। आम धारणा है कि घरेलू कार्यों की पूरी जिम्मेदारी महिलाओं की है। वे सुबह सबसे पहले उठती हैं और रात को सबसे अंत में सोती हैं। घरेलू कार्यों में शामिल हैं:

  • घर और आंगन की सफाई, भोजन बनाना, बर्तन साफ करना, कपड़े धोना, पानी लाना (पोखरों, कुओं, या तालाबों से), बच्चों का पालन-पोषण, उन्हें स्कूल के लिए तैयार करना, उनकी शिक्षा का ध्यान रखना, जंगलों से ईंधन लाना, परिवार के सदस्यों के स्वास्थ्य की देखभाल, मेहमानों और रिश्तेदारों की सेवा, और विवाह जैसे अवसरों पर खरीद-फरोख्त में सहयोग।

इन सभी कार्यों के बावजूद, यदि कोई गृहस्वामी से पूछे कि उनकी पत्नी क्या करती है, तो जवाब होता है, “कोई काम नहीं, बस घर संभालती है।” घरेलू कार्यों को काम नहीं माना जाता, और कृषि व पशुपालन से जुड़े उनके योगदान का कहीं उल्लेख नहीं होता। इतना बोझ उठाने के बावजूद, महिलाएं परिवार के सदस्यों द्वारा प्रताड़ना और घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं। ऐसा लगता है मानो वे गृहस्वामिनी नहीं, बल्कि घर में कोई शत्रु हों।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व के 64 देशों में महिलाएं 1,640 करोड़ घंटे बिना वेतन के काम करती हैं, जिसका मूल्य वैश्विक GDP का 9% (11 ट्रिलियन डॉलर) है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के आर्थिक अनुसंधान विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में घरेलू कार्य करने वाली महिलाओं का GDP में 22.7 लाख करोड़ रुपये का योगदान है। भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, यदि कामकाजी महिलाओं को वेतन मिले, तो यह भारतीय GDP का 7.5% होगा।

निष्कर्ष

इसके बावजूद, महिलाएं ‘किसान’ की श्रेणी में अदृश्य हैं। परिणामस्वरूप, वे सरकारी योजनाओं और नीतियों-जैसे कर्ज, क्रेडिट, तकनीकी सहायता, निवेश, बीज, सब्सिडी, और यूरिया-से वंचित रहती हैं। महिला किसान अधिकार मंच (MAKAAM) की संस्थापक अध्यक्ष डॉ. रुक्मिणी राव कहती हैं, “हमारा सिस्टम महिलाओं को अदृश्य और अस्तित्वहीन मानता है।”

(लेखक: डॉ. रामजीलाल, सामाजिक वैज्ञानिक, पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल, हरियाणा)



Related