एक चित्रकार की पेंटिंग में कबीर के दर्शन और रहस्य का ‘रंग’  


कबीर के विचार मुख्यतः उनके आस्तिक दर्शन पर आधारित थे। कबीर ब्रह्म से शुरू होकर जीव तक जाते हैं या जीव से शुरू होकर ब्रह्म तक यह कहना कठिन है।


प्रदीप सिंह प्रदीप सिंह
साहित्य Updated On :

नई दिल्ली। साहित्य और ललित कलाओं के लिए समर्पित भोपाल की स्पंदन संस्था ने वर्ष 2022 का स्पंदन ललित कला सम्मान (पेंटिंग) गोकर्ण सिंह को देने का निर्णय किया है। स्पंदन संस्था की संयोजक डॉ. उर्मिला शिरीष (Urmila Shirish) ने वर्ष 2021 और 2022 के लिए संयुक्त रूप से स्पंदन सम्मानों की घोषणा करते हुए कहा कि ये पुरस्‍कार दिसंबर में भोपाल में एक समारोह में प्रदान किए जाएंगे। पुरस्‍कार के अंतर्गत नकद धनराशि, शॉल, श्रीफल तथा स्‍मृति चिह्न प्रदान किया जाता है।  ‘स्पन्दन’ हिंदी साहित्य और प्रदर्शनकारी कलाओं के क्षेत्र में योगदान करने वाले महत्वपूर्ण साहित्यकारों एवं कलाकारों को हर वर्ष  सम्मानित  करता है।

चित्रकार गोकर्ण सिंह को स्पंदन ललित कला सम्मान देने की घोषणा ऐसे समय हुई है जब उनके पेंटिंग की कबीर श्रृंखला व्यापक चर्चा का विषय बनी है। यह पेंटिंग श्रृंखला एक चित्रकार का कबीर को अपने नजरिए से देखने की कोशिश है।

भारतीय ज्ञान-दर्शन परंपरा में कबीर का स्थान अद्वितीय है। कबीर सीधे-सपाट कहने के आदी थे। जो चीज उन्हें अमानवीय और अतार्किक लगी, उसका विरोध करने में कोई संकोच नहीं किया। कबीर धर्म और जाति के आडंबर से मुक्त थे। कबीर के जीवनकाल में और आज भी उनको अपना मानने वालों की कमी नहीं है। लेकिन सबके अपने-अपने कबीर है।

चित्रकार गोकर्ण सिंह कबीर के काव्य में मौजूद दर्शन और अध्यात्म को अपने जीवन अनुभव से व्याख्या करने की कोशिश की है। उनका कबीर पर पेंटिंग श्रृंखला ऐसे समय में हमारे बीच आया है जब हमारे समाज को कबीर के सीख की बहुत आवश्यकता है। होना तो यह चाहिए था कि कबीर के समय का समाज यानि 6 सौ वर्षों पूर्व का समाज अतीत की चीज होती। लेकिन आज भी हम उन्हीं सब बुराइयों का सामना कर रहे हैं, जिससे कबीर को दो-चार होना पड़ा था।

चित्रकार गोकर्ण सिंह ने अपनी पेंटिंग में कबीर के काव्य में मौजूद दर्शन और अध्यात्म के रंग को भरा है। उनका कबीर के काव्य पर आधारित वर्तमान श्रृंखला ऐसे समय में आई है जब हम उनके और उनके समकालीन बाबा नानक के जन्म के 500 साल पूरे होने का जश्न मना रहे हैं।

कबीर के विचार मुख्यतः उनके आस्तिक दर्शन पर आधारित थे। कबीर ब्रह्म से शुरू होकर जीव तक जाते हैं या जीव से शुरू होकर ब्रह्म तक यह कहना कठिन है। लेकिन उनके काव्य में ब्रह्म, जीव और जगत के बीच पारस्परिक दौड़ बहुत अधिक है। कबीर का जीव माया रहित होकर ही ब्रह्म हो जाता है। जगत भी जीव और ब्रह्म से पृथक सत्ता नहीं है। एक ओर जहां जगत ब्रह्म की अभिव्यक्ति है वहीं दूसरी ओर वह पंचभौतिक रूपों में जीव के अस्तित्व का नियामक है। इस तरह एक बिन्दु पर ब्रह्म, जीव और जगत एक-दूसरे से अभिन्न हो जाते हैं।

कबीर प्रेम का संदेश देने वाले थे। सभी धर्मों को आपस में प्रेम करने का संदेश। यह उनके धर्म की पराकाष्ठा और जीवन-अनुभव से प्राप्त ज्ञान था। कबीर का पेशा बुनकर का था। करघे को ही उन्होंने सृष्टि का रूप समझा और जीवन की चदरिया बुनते रहे।  गृहस्थ जीवन निभाते और बुनकरी करते हुए जीवन और समाज का कोई आयाम उनसे नहीं छूटा।

कबीर के कई रूप है। समाज सुधारक, दार्शनिक, गृहस्थ, बुनकर और खरी-खरी कहने वाला कबीर। कबीर पर पेंटिंग श्रृंखला बनाने वाले गोकर्ण सिंह के व्यक्तित्व के भी कई आयाम है। पेशे से पत्रकार गोकर्णँ सिंह साहित्य, रंगकर्म और पेंटिंग से जुड़े है। गोकर्ण सिंह जीवन, समय और संसारिक दुनिया से मिले अनुभवों को अपनी पेंटिंग का विषय बनाते हैं। धर्म, दर्शन औऱ रहस्य उनके पसंदीदा विषय हैं। कबीर पेंटिंग श्रृंखला में उन्होंने कबीर के काव्य दर्शन को रंगों-चित्रों में उकेरा है।

1.मन न रँगाये

रँगाये जोगी कपड़ा

आसन मारि मंदिर में बैठे

नाम छॉड़ि पूजन लागे पथरा

2.हम न मरैं मरिहैं संसारा

हमको मिला जियावनहारा

हरि मरिहैं तो हमहूँ मरिहैं

हरि न मरै हम काहे कूँ मरिहैं

3.मोको कहाँ ढूँढ़े रे बन्दे

मैं तो तेरे पास में

ना तीरथ में ना मूरत में,

ना एकान्त निवास में

ना मंदिर में ना मस्जिद में,

ना काशी कैलाश में

4.धोबिया जल बिच मरत पियासा

दाग पुराना छूटत नाहीं धोवत बारहमासा

5.साधो हम वासी वा देश के

सुरत निरत का ताना पूरा

कपड़े बुनें अलेख के हमरा

कपड़ा मँहगा बिकत है

पहरे सन्त विवेक के

6.सुना है हमने निर्बल के बल राम

दीन होय जब द्रोपदी टेरी

बसन रूप धरयो श्याम

7.भीजै चुनिरया प्रेमरस बूँदन

8.हमें कोई कातन देइ सिखाय

तन के काते कहा भए

जे मन ही कात न जाय

9.चरखा चले सुरत बिरहन का

काया नगरी बनी अति सुंदर

महल बना चेतन का

महीन सूत संत जन कातें

मांझर प्रेम भगित का

कहे कबीर सुनो भाई साधो

जुगन जुगन सत मत का

10.जा कारण जग ढूंढ़िया

सो तो हिरदय मांहि।

परदा किया भरम का

तोहे सूझे नाहि॥



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