हॉस्टलर लड़की की ज़िदंगी से रूबरू कराती पुस्तक ‘हॉस्टल डायरी’


हॉस्टल में सेलिब्रेशन भी है,विषाद और उदासी का माहौल भी। घर से चिट्ठी मिलने की ख़ुशी भी है तो सहेलियों से बिछड़ने का ग़म भी। लड़ाई-झगड़ों का एक्शन है तो हॉस्टलर लड़कियों और स्त्री को लेकर समाज का सतही सोच का ड्रामा भी।



शकील अख़्तर
वह स्वतंत्र है. स्वच्छंद नहीं !
हर पल अविश्वास, असुरक्षा के बीच जीती हुई
न जाने कितनी बार अग्निपरीक्षा देती हुई
*वो लड़की / एक हॉस्टलर! *

यह पंक्तियां डॉ.क्षिप्रा नत्थानी की नई किताब ‘हॉस्टल डायरी’ से है और इसमें दी गई उनकी कविता की यह पंक्तियां क़िताब के परिपेक्ष्य को काफ़ी हद तक रेखांकित कर देती है। लेखिका जयपुर की जानी-पहचानी आयुर्वेद चिकित्सक हैं। उन्होंने यह किताब हॉस्टल में बिताये 8 साल के अपने खट्टे-मीठे अपने अनुभवों के आधार पर लिखी है।

क़िताब डायरी शैली में ही लिखी गई है,जिसमें लेखिका डायरी से ही हॉस्टल की बातें करती हैं। डायरी 26 जून 1999 की रात में लिखे गये पहले पन्ने से शुरू होकर 12 दिसंबर 2003 के आख़िरी पन्ने तक करीब 5 साल का सफ़र तय करती है। इस दौरान पाठक ‘स्वराजंलि वर्किंग वूमेन’ हॉस्टल की विशिष्ट घटनाओं और प्रसंगों से रूबरू होते हैं।

हालांकि परिवेश करीब 20 साल पुराना है। तब लेखिका की उम्र महज़ 19 साल की थी। उन्होंने उस वक्त के अपने अनुभवों को डायरी में बेहद दिलचस्प तरीके से प्रस्तुत किया है। पाठक खुद ब खुद हॉस्टल के किरदारों को अपनी आँखों के सामने देखने लगते हैं।

एक ख़ास बात यह भी है कि डॉ. क्षिप्रा ने अपने पिता प्रख्यात मूर्तिकार श्री सुभाष अरोरा की प्रेरणा से यह क़िताब पब्लिश की है। क़िताब में वे इस बात का ज़िक्र भी करती हैं। किताब में वे लिखती हैं -‘पापा कहते हैं, तुम अच्छा लिखने का प्रयास करो, ख़ूब लिखो,हॉस्टल छोड़ने के बाद तुम्हारे अनुभवों को किताब की शक्ल दे देंगे लेकिन दुविधा में पड़ जाती हूं। क्या मुझे अधिकार है कि लोगों की व्यक्तिगत बातें, उनकी निजी ज़िदंगी को आगे भी कभी भविष्य में सार्वजनिक बनाऊं?’

किताब की बहुत बड़ी ख़ूबी घर घटनाक्रम या प्रसंग से मिलने वो अनुभूतियां हैं जो जीवन को अंतत: गहराई से देखने और समझने की सीख देते हैं। हॉस्टल में सेलिब्रेशन भी है,विषाद और उदासी का माहौल भी। घर से चिट्ठी मिलने की ख़ुशी भी है तो सहेलियों से बिछड़ने का ग़म भी। लड़ाई-झगड़ों का एक्शन है तो हॉस्टलर लड़कियों और स्त्री को लेकर समाज का सतही सोच का ड्रामा भी।

इन सारे संदर्भ अनुभवों के आईने में डॉ.क्षिप्रा लिखती हैं -‘प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में एक बार हॉस्टल में ज़रूर रहना चाहिए। केवल महिला होना अनिवार्य शर्त नहीं है वरन स्वयं को समझने के लिये भी अकेले रहना बहुत आवश्यक है। यहां का जीवन एक तरफ़ जहां सारे बंधनों से मुक्त होने का अहसास देता है,वहीं दूसरी तरफ़ अनुशासित रहने के लिये सचेत भी रखता है।’

यद्धपि उनका युवा मन डायरी के अंत में यह भी लिखता है- ‘हॉस्टल के सारे सकारात्मक बदलावों के साथ-साथ एक कमी भी मैं अपने अंदर महसूस करती हूं और वो है अविश्वास ! घर से दूर असुरक्षा की भावना ने कहीं भीतर तक अविश्वास को घर बनाने की जगह दी है। इस अविश्वास ने कई मायनों में हमें सुरक्षित तो रखा है किन्तु कई स्थान पर रिश्तों की सूक्ष्म अनुभूतियों से वंचित भी किया है।’ बिलाशक हॉस्टल में रहने वाली किसी भी लड़की का यह कटु सत्य है। विशेषकर उनके लिये जो संस्कारों का साथ नहीं छोड़ती।

यह किताब हॉस्टल लाइफ़ को जानने और समझने की जिज्ञासा रखने वाले पाठकों से लेकर खुद हॉस्टल में रह चुकी लड़कियों और वर्किंग वूमेन को बेहद पसंद आयेगी। वे भी इसे पढ़ते हुए अपने अनुभवों की दुनिया से रूबरू होंगी । जयपुर के बोधि प्रकाशन ने यह किताब प्रकाशित की है।



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