जनतंत्र की जड़ें: भारतीय लोकतंत्र के दशा-दिशा की पड़ताल


कानपुर की एक अनपढ़ महिला ने बता दिया कि हर किसी के लिए लोकतंत्र और संविधान अलग-अलग है। भूखे के लिए संविधान भोजन तो अनपढ़ के लिए शिक्षा का द्वार है। अभी उसे लोकतंत्र की पहली सीढ़ी पर पहुंचने के लिए ही लंबा सफर तय करना है।


प्रदीप सिंह प्रदीप सिंह
साहित्य Updated On :

आजादी के बाद देश ने जिस शासन प्रणाली को चुना-वह संसदीय लोकतंत्र है। राजनीतिक विमर्श में यह कहा जाता है कि अभी तक के ज्ञात शासन प्रणाली में संसदीय लोकतंत्र सबसे उत्तम व्यवस्था है। इसमें जनता अपना शासक चुनती है और संविधान के अनुसार शासन-प्रशासन संचालित होता है।

भारत में संसदीय लोकतंत्र की यात्रा 78 वर्ष पूरे करने जा रही है। ऐसे में हमने इस संसदीय प्रणाली से क्या पाया, और इस प्रणाली की दशा-दिशा का मूल्यांकन करना जरूरी हो जाता है। 78 वर्ष की यात्रा में संसदीय जनतंत्र हमारे समाज को कितना प्रभावित-लाभान्वित किया और उसकी जड़ें जीवन व्यवहार में कितने गहरे तक पहुंची, जनतंत्र के समाने क्या चुनौतियां और खतरे हैं, इसकी पड़ताल करते हुए लेखक द्वय अरुण कुमार त्रिपाठी और डॉ. ए. के. अरुण ने “जनतंत्र की जड़ें” नामक पुस्तक संपादित की है। 352 पृष्ठ की पुस्तक में 18 लेखकों-विशेषज्ञों के लेख हैं। पुस्तक युवा संवाद प्रकाशन, पश्चिम विहार से प्रकाशित हुई है। और इसका मूल्य 360 रुपये है।

यह पुस्तक ऐसे समय में हमारे सामने हैं जब देश में चहुंओर संविधान और लोकतंत्र खतरे में है, की बात की जा रही है। आज हमारे जनतंत्र के समक्ष हिंदुत्व, कॉर्पोरेट, बहुसंख्यकवाद के रूप में अधिनायकवाद का खतरा है।

‘जनतंत्र की जड़ें’ पुस्तक के प्राक्कथन की शुरुआत होती है, “भारतीय लोकतंत्र उस समय उम्मीदों से भरा था जब दावा किया जा रहा था कि यूनान लोकतंत्र की जननी है। लेकिन आज जब यह दावा किया जा रहा है कि भारत लोकतंत्र की जननी है तो यह आशंकाओं से घिरा है।”

जनतंत्र की जड़ें पुस्तक के बारे में लिखते हुए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे लिखते हैं, “आज, जबकि कुछ सर्वज्ञात शक्तियां संविधान और लोकतंत्र को गंभीर चुनौती दे रही हैं ऐसे समय में यह पुस्तक एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी”

ऐसा नहीं है कि भारत के लोकतंत्र पर आशंकाओं के बादल पहली बार घिरे हैं। समय-समय पर हमारे देश के लोकतंत्र पर संकट के बादल मंडराते रहे हैं लेकिन तब वह अवधि छोटी थी। विगत एक दशक से देश में एक ऐसी विचारधारा वाली पार्टी की सरकार है जो देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था, संस्थाओं और संविधान पर हमला कर रही है। आश्चर्य की बात यह है कि यह हमला उनकी ही तरफ है जिनको जनता ने देश और संविधान की हिफाजत का कार्यभार सौंपा है।

ऐसे में वर्तमान समय में लोकतंत्र पर संकट बहुत गहरा और जटिल है। सबसे बड़ी बात यह है कि हम लोकतंत्र और संविधान के विरोध में काम करते हुए लोगों, संस्थाओं, शक्तियों और व्यक्तियों को देख रहे हैं, उन्हें ऐसा करने से टोक भी रहे हैं, लेकिन टोकने के बावजूद वह बड़ी धृष्टता से जनतंत्र विरोधी कार्य को ही लोकतांत्रिक व्यवहार बता-समझा रहा है। दूसरी बात यह है कि वह लोकतंत्र, संविधान, जनता और देश के हित में काम करने वालों को ही संविधाान और देश विरोधी बता कर जेल में डाल रहा है।

समाज विज्ञानी एवं लेखक अभय कुमार दुबे लिखते हैं कि “लोक और तंत्र का संबंध बनते-बनते बिगड़ता रहता है। जब चुनाव संख्याओं के खेल में फंस जाए, बहुमत की जगह बहुसंख्यकवाद का बोलबाला हो, अर्थतंत्र बाजार के शिकंजे में फंसा दिखे, न्याय मिलने की संभावनाएं दूरस्थ हों, नागरिकता पर समुदाय और जाति के आग्रह हावी हो जाएं, मीडिया सरकारपरस्ती करने लगे और सूचनाओं के कोलाहल में सत्य की तलाश नामुमकिन हो जाए-तो समझ लेना चाहिए हमारा लोकतंत्र एक बेहद रेडिकल संशोधन की मांग कर रहा है।”

जनतंत्र की जड़ें पुस्तक में भारत के लोकतंत्र, संविधान और जनता के साथ उसके संबंधों की पड़ताल के साथ ही यह भी खोज करता है कि क्या हर किसी व्यक्ति और समुदाय के लिए लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ एक ही है?

युवा समाज विज्ञानी एवं इतिहासकार रमाशंकर सिंह इसी पुस्तक में लिखते हैं कि “मैंने कानपुर की एक चालीस-पैंतालीस वर्षीय धरकार (बांस के बर्तन बनाने वाले समुदाय) महिला से पूछा कि आपका जीवन इतने कम संसाधनों से कैसे चल पाता है? उन्होंने जवाब दिया कि “चल जाता है किसी तरह। हमारा क्या, हमारा तो चल ही जाता है लेकिन मुश्किल हमारे बच्चों के साथ आएगी।” उन्होंने कुछ क्षणों के लिए चुप्पी साध ली और फिर कहा, “एक न एक दिन जरूर हमारा देश बन जाएगा। और हमारे भी बच्चे पढ़ लिख जाएंगे तो उनका जीवन ठीक से चलने लगेगा।”

यह मेरे लिए चौंकाने वाली बात थी। थोड़ा सा इधर-उधर की बात करने के बाद मैंने उनसे फिर पूछा कि ” क्या यह आपका देश नहीं है? यह भी तो आपका ही देश हैं। जितना औरों का, उतना ही आपका।”

उन्होंने एक सपाट स्वर में कहा, “नहीं। जो परेशानी हमारी है वह आप लोगों की नहीं है। अभी हमारा देश नहीं बना है।”

मैंने उनसे पूछा कि, आपका देश कब तक बन जाएगा? उन्होंने कहा कि यह तो पता नहीं लेकिन बन जाएगा एक दिन। फिर वे अंदर गईं। एक मुड़ा-तुड़ा कैलेंडर जैसा कुछ ले आईं। उसमें बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की फोटो छपी थी। टाई और कोट पहने अंबेडकर। “इन्होंने यही कहा था कि बच्चों को पढ़ाना चाहिए। डॉ. अंबेडकर ने हमें भारत का संविधान दिया था। जो कुछ होगा, इसी से होगा।”

कानपुर की एक अनपढ़ महिला ने बता दिया कि हर किसी के लिए लोकतंत्र और संविधान अलग-अलग है। भूखे के लिए संविधान भोजन तो अनपढ़ के लिए शिक्षा का द्वार है। अभी उसे लोकतंत्र की पहली सीढ़ी पर पहुंचने के लिए ही लंबा सफर तय करना है। इसीलिए जब हम संविधान और लोकतंत्र बचाने की बात करते हैं तो सबसे पहले हमें समानता, स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और मौलिक अधिकारों को बचाने की कोशिश तो करनी ही होगी। साथ ही आम लोगों की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करना भी सुनिश्चित करना होगा।

वास्तव में जो कमजोर, बहिष्कृत और गरीब हैं उनके सामने प्रोफेसर, वकील, न्यायाधीश और बुद्धिजीवियों वाला संविधान संकट नहीं बल्कि जीवन चलाने वाले संविधान पर संकट है।

‘स्त्रियों की स्थिति: लोकतंत्र का बैरोमीटर’ अध्याय में सुप्रिया पाठक लिखती हैं “हर व्यक्ति की दृष्टि एवं देश को लेकर उसकी परिकल्पना भिन्न-भिन्न हो सकती है। साथ ही उसके साथ अपने अंतर्संबंध के हमारे अनुभव भी अलग-अलग होते हैं। किसी बच्चे के मन में राष्ट्र की परिकल्पना झण्डा, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, सेना, सैन्य उपकरण, नेता, दो देशों के बीच होने वाले क्रिकेट मैच, बापू, भारतमाता, मां, राष्ट्रगान के रूप में साकार होती है तो किसी वयस्क के लिए संविधान, चुनाव तथा सरकार जैसे जटिल प्रश्न में। परंतु किसी स्त्री के लिए राष्ट्र का मायने क्या है? क्या उसका कोई राष्ट्र है? एक नागरिक के रूप में स्त्री अपने राष्ट्र से क्या अपेक्षा रखती है?”

ठीक यही सवाल एक दलित, अल्पसंख्यक, गरीब और कमजोर वर्ग का भी है। जिनका ‘देश’ अभी देश के अंदर बनने की प्रक्रिया में है। यह बात अलग है कि वर्तमान में उस पर ब्रेक लग गया है।

सच बात तो यह है कि हमारे दौर का शासक लोकतंत्र के हथियार से ही लोकतंत्र की हत्या करने में लगा है। आजादी के बाद स्थापित सभी संस्थाओं और संवैधानिक मूल्यों को हिंदुत्व के हथौड़े से लहूलुहान करने में लगा है। ऐसे में ‘जनतंत्र की जड़ें’ पुस्तक ने लोकतंत्र पर मंडराते संकट को पहचानने और उस खतरे से निपटने के सूत्र ढूंढने की कोशिश भी की है। इसके लिए पुस्तक के लेखक-संपादक द्वय अरुण कुमार त्रिपाठी और ए. के. अरुण बधाई के पात्र हैं।



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