विद्यालयों को दिव्यांगों के अनुकूल होना चाहिए- के. श्रीलता


दिव्यांग बेटी के अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि दिव्यांग बच्चों के लिए सबसे मुश्किल स्कूली शिक्षा होती है। अतः हमारे स्कूलों को दिव्यांगों के अनुकूल बनाया जाना बेहद ज़रूरी है। उन्होंने दिव्यांग विद्यार्थियों के लिए विशेष तरह के पुस्तकालय, किताबें और गतिविधियाँ शामिल करने के लिए भी कहा।


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साहित्य Updated On :

नई दिल्ली। साहित्य अकादेमी द्वारा आज अपनी तरह के पहले अखिल भारतीय दिव्यांग लेखक सम्म्लिन का आयोजन किया गया। सम्मिलन का उद्घाटन करते हुए संस्कृति राज्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा कि वर्तमान सरकार ‘सबका साथ सबका विकास‘ का उद्देश्य लेकर चल रही है। अतः राष्ट्र के निर्माण में दिव्यांग जनों का भी समुचित सम्मान और उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो रही है। इस तरह के सम्मिलन इन सबको एक मंच प्रदान करने के लिए श्रेष्ठ कदम साबित होंगे।

उन्होंने कई दिव्यांग साहित्यकारों का उल्लेख करते हुए कहा कि वे अपने जीवन में कुछ रंगों की कमी की चिंता न करते हुए रंगों का एक दूसरा इंद्रधनुष तैयार कर लेते हैं, जो हम सबके जीवन में एक नया उजाला भर देता है। उन्होंने सूरदास के प्रिय भजन – ‘प्रभु जी, मेरो अवगुन चित न धरो‘ को प्रस्तुत करते हुए कहा कि सूरदास द्वारा वर्णित कृष्ण लीलाएँ मानो उन्होंने किसी दिव्यदृष्टि से प्रस्तुत की हैं। आगे उन्होंने कहा कि संस्कृति मंत्रालय प्रयास करेगा कि इस तरह के कार्यक्रम सभी राज्यों में आयोजित किए जाएँ।

उद्घाटन सत्र की विशिष्ट अतिथि प्रख्यात अंग्रेजी लेखिका एवं विदुषी के. श्रीलता ने दिव्यांग लोगों के सामने आने वाली मुश्किलों को साझा करते हुए कहा कि हमें दिव्यांगों के प्रति अपना नज़रिया बदलना होगा, जिससे कि वे हमारे साथ मुख्यधारा में शामिल हो सकें। उन्होंने अपनी दिव्यांग बेटी के अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि दिव्यांग बच्चों के लिए सबसे मुश्किल स्कूली शिक्षा होती है। अतः हमारे स्कूलों को दिव्यांगों के अनुकूल बनाया जाना बेहद ज़रूरी है। उन्होंने दिव्यांग विद्यार्थियों के लिए विशेष तरह के पुस्तकालय, किताबें और गतिविधियाँ शामिल करने के लिए भी कहा।

आगे उन्होंने कहा कि विकलांगता केवल शारीरिक नहीं होती, इसका एक स्वरूप मानसिक भी है। हम स्वस्थ और सक्रिय होते हुए भी विकलांग मानसिकता रखते हैं जो सबसे अधिक चिंता का विषय है और यही हतोत्साहित करती है। अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए अकादेमी के अध्यक्ष माधव कौशिक ने कहा कि साहित्य अकादेमी किसी भी साहित्यिक अभिव्यक्ति और संवेदना को अलग-अलग भागों में विभाजित न करके, एक मंच पर लाने के लिए प्रयासरत है, और आने वाले समय में यह संभव होगा कि इस तरह के विशेष सम्मिलनों के स्थान पर सबको एक ही मंच पर प्रस्तुत किया जा सकेगा। उन्होंने दिव्यांग लोगों की असीमित क्षमताओं का ज़िक्र करते हुए स्टीफन हॉकिंग्स का उदाहरण दिया और कहा कि प्रकृति हमेशा दिव्यांग लोगों को एक अलग गुण देकर क्षतिपूर्ति करती है और उनके गुण हम सामान्य लोगों से भी उत्कृष्ट हो जाते हैं।

समापन वक्तव्य में साहित्य अकादेमी की उपाध्यक्ष कुमुद शर्मा ने धर्मवीर भारती की कहानी ‘गुल की बन्नो‘ एवं निराला की कविता ‘रानी और कानी’ का ज़िक्र करते हुए कहा कि साहित्य में दिव्यांग चरित्र हमेशा रहे हैं। लेकिन अब उनके प्रति हमारा नज़रिया व्यापक रूप से परिवर्तित हुआ है। इस तरह के सम्मिलन उस चेतना के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँगे, जिनकी अपेक्षा हमारे दिव्यांग लेखकों को है। इससे पहले सभी का स्वागत करते हुए साहित्य अकादेमी के सचिव के. श्रीनिवासराव ने कहा कि प्राचीन काल से अब तक के साहित्य में हम दिव्यांगों के प्रति अपने बदलते नज़रिए को देख सकते हैं। साहित्य अकादेमी हमेशा साहित्य के विभिन्न विद्वान साहित्यकारों को विशेष मंच प्रदान करती रही है और आगे भी इसी तरह की पहल करती रहेगी।

अगला सत्र कवि सम्मिलन था, जिसकी अध्यक्षता विनोद आसुदानी ने की और सुरभि चटर्जी (बाङ्ला), साहिसुली ब्रह्म (बोडो), कुसुमलता मलिक (हिंदी), नितिन वी. मेहता (गुजराती), एस. रघुनाथ (कन्नड), रिलिन गेम्मा लिङ्दोह (खासी), सुखबीर मोहबत (पंजाबी) तथा मोहम्मद असलम बद्र (उर्दू) ने अपनी-अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कीं।

अगला सत्र ‘मेरी साहित्यिक यात्रा’ विषयक था, जिसकी अध्यक्षता अनिल कुमार अनेजा (अंग्रेज़ी) ने की तथा धु्रव ज्योति दास (असमिया), मारियथ सी.एच. (मलयाळम्) तथा बिराज राउतराय (ओड़िआ) ने अपने-अपने अनुभव प्रस्तुत किए। इन सभी ने कहा कि उन्होंने अपनी दिव्यांगता से उभरने के लिए साहित्य का सहारा लिया जिसके चलते उनका जीवन सहज और सरल होता गया है। सत्र के अध्यक्ष अनिल कुमार अनेजा ने कहा कि इस सम्मिलन से दो बातें बहुत स्पष्ट रूप से समझ में आती हैं कि दिव्यांगता से लड़ने के लिए शरीर के अंगों की नहीं, बल्कि हौसले की जरूरत होती है और जिसे हम भावनाओं के पंख से हासिल कर सकते हैं। दिव्यांग लेखकों की साहित्यिक यात्रा आम रचनाकारों से बिलकुल अलग और विशिष्ट होती है। उन्होंने पूर्व में हुए अनेक दिव्यांग लेखकों का उल्लेख करते हुए कहा कि हमें उन्हें भी प्रकाश में लाने की ज़रूरत है।

सम्मिलन का अंतिम सत्र भी कवि सम्मिलन था, जिसकी अध्यक्षता च. नागराजु ने की तथा संजय विद्रोही (डोगरी), प्रेम सिंह (हिंदी), तौसीफ़ रज़ा (कश्मीरी), रमाकांत राय रमा (मैथिली), चैतन्य डुम्ब्रे (मराठी), लालरामपाना (मिज़ो), अर्जुन शर्मा (नेपाली), आर. अभिलाष (तमिऴ) और बिल्ला महेंदर (तेलुगु) ने अपनी-अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कीं।



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