रविवार की कविता : खुद के खिलाफ…


राजेंद्र राजन का नाम हिन्दी के उन चंद कवियों में शामिल हैं, जो प्रचार के शोरगुल से दूर रहकर चुपचाप बेहतर लिख रहे हैं। गूंगे वक्त को आवाज़ दे रहे हैं। उनकी कविताएं सच से मुंह नहीं मोड़ती बल्कि उससे टकराती है और समाज को सचेतन करती है।

लंबे समय तक जनसत्ता में वरिष्ठ संपादक के पद पर कार्यरत रहे और सामयिक वार्ता की संपादकीय जिम्मेदारी से जुड़े रहे। उनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं और सोशल मीडिया में प्रकाशित होती रहती हैं। पहला काव्य संग्रह ’बामियान में बुद्ध’ काफी चर्चित रहा। यहां प्रस्तुत उनकी कविताओं में आज के हालात का कितना प्रभावी चित्रण है, आप खुद पढ़कर महसूस कीजिए।



मैं बार-बार ठगा गया हूं

रोजाना परेशानहाल

और खौफ़ज़दा रहता हूं

फिर भी मैं कितना खुश दिखता हूं

इस कमर्शियल ब्रेक में

अखबार के इस पन्ने पर

इस होर्डिंग में

किसानों के कर्ज से लदे होने

और खुदकुशी करने के सिलसिले के बरअक्स

मैं एक किसान का चेहरा हूं

लहलहाती फसलों के बीच प्रसन्न मुद्रा में

किसानों की खुशहाली बयान करता हुआ

रोज बलात्कार की घटनाओं से परे

मैं एक औरत का चेहरा हूं

दर्प और आश्वस्ति से भरा

महिला सुरक्षा और

सम्मान का भरोसा दिलाता हुआ

काम की तलाश में दर-दर भटकते

करोड़ों अनुभवों के बीच

पुलक और उमंग से भरा

मैं एक नौजवान का चेहरा हूं

नित रोजगार-वृद्धि के आंकड़े बताता हुआ

पुलिस की वर्दी देख

मैं दूर भागता हूं

किसी भी सरकारी दफ्तर में

जाते मैं डरता हूं

सरकार के बारे में

कहीं भी कुछ कहने से बचता हूं

लेकिन इधर देखिए इस होर्डिंग में

मैं सीधे सरकार की बगल में खड़ा हूं

शान से मुस्कराता हुआ

इतने खुश तो साहब लोग भी नहीं दिखते

जितना खुश मैं दिखता हूं

हर सरकारी विज्ञापन में

अपनी तकलीफों को झुठलाता हुआ

खुद के खिलाफ गवाही देता हुआ।

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