रविवार की कविता : ढाई आख़र छोड़ कर सब कुछ पढ़ा जा रहा है…


जूही शुक्ला प्रयाग महिला विद्यापीठ डिग्री कॉलेज इलाहाबाद में चित्रकला विभाग की अध्यक्ष हैं। उनकी शिक्षा -दीक्षा इलाहाबाद में हुई और इलाहाबाद विश्वविद्यालय इलाहाबाद से ही उन्होंने पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। वे चित्रकार और कवयित्री के तौर पर जानी जाती हैं। उन्हें कई पुरस्कार और सम्मान भी मिले हैं। उनकी कविताएं किसी अनाम बेचैनी को मुखरित करती हैं।



आशा

ढलते सूरज से भी मिलती है
रोशनी मुझे
मुलायम, पारदर्शी, और गुलाबी आभा वाली
व्यक्ति चित्र के लिए सबसे मुफीद

जब जब मेरे जीवन में आता है
तेज उजाले वाला अंधेरा
जो बहुसंख्यक समाज को घेर लेता है अपनी चकाचौंध में करता है मनमानी
अपने ओहदे से डरवाता है
धूप से जलाता है
छाता लेकर जाने को मज़बूर करता है, ऐसा लगता है
हम खिंचते जा रहे हैं
किसी अज्ञात ब्लैक होल में….

तब ये संझा का सूरज
मुझे सुकून देता है
मैं चुरा लेना चाहती हूं
अस्त होती रोशनी से
एक रौशन अदद रौशनाई
जो मददगार हो
सच्चा अक्स उकेरने में
और जो अंधेरे में भी
उजाला बिखेर दे..

प्रेम

ढाई आख़र छोड़ कर
सब कुछ पढ़ा जा रहा है
राष्ट्रवाद
आतंकवाद
फाँसीवाद
घनवाद
फाववाद
यथार्थवाद
अभिव्यंजनावाद
यह वाद,वह वाद
वाद ही वाद
और फ़िर विवाद

प्रेम बेधक नहीं
बेधड़क भी नहीं
यक ब यक भी नहीं
बक बक भी नहीं
प्रेम आज क्या है
सुविधा से किया गया समझौता या समझौते के साथ तराशी गई सुविधा

नहीं बिल्कुल नहीं
प्रेम कला भी नहीं है
हाँ कलाएं प्रेम की मानिंद महत्वपूर्ण हो सकती हैं
फिर…



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