रविवार की कविता : मुझे अपनी स्मृतियों को नज़र लगने का खतरा था…


विपिन चौधरी का जन्म 2 अप्रैल, 1976 को जिला भिवानी (हरियाणा) के गांव खरकड़ी माखवान में हुआ था। शिक्षा-बी.एस.सी, ( प्राणी विज्ञान ),एम.ए. (लोक प्रशासन), एम.ए.( राष्ट्रीय मानवाधिकार)
कविता संग्रह : अंधेरे के मध्य,(ममता प्रकाशन)-2008, एक बार फिर, (ममता प्रकाशन)-2008, नीली आँखों में नक्षत्र,(बोधि प्रकाशन)-2017।
जीवनी : रोज़ उदित होती हूँ (अश्वेत लेखिका माया एंजेलो की जीवनी), दखल प्रकाशन-2013।
पुरस्कार : प्रेरणा पुरस्कार (हरियाणा साहित्य अकादमी एवं प्रेरणा परिवार (2006), वीरांगना सावित्री बाई फुले पुरस्कार, भारतीय दलित साहित्य अकादमी, दिल्ली (2007), साहित्यिक कार्यों के लिए काव्य संध्या मंच, उकलाना मंडी द्वारा पुरस्कृत (2006), प्रेरणा पुरस्कार वागर्थ पत्रिका, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता (2008)।
संप्रति : स्वतंत्र लेखन।



स्मृतियाँ

इस बार भी
स्मृतियों ने
चुने हैं कुछ दृश्य

यह जानते हुए भी कि
किसी दिन
ये भी
धुँधले हो ज़हन से हट जाएंगे

स्मृतियों का
एक पुराना संसार खाली होगा
नई संसार को भरने के लिए

मेरे करीब ऐसी सुविधा नहीं
मुझे अपनी सबसे हसीन स्मृतियां बहा देनी पड़ी है
बार-बार मन के सतह पर उभर आने वाली स्मृतियों को
चुपके से इकट्ठा कर एक दिन उनकी समाधि बनाने को बाध्य होना पड़ा है

मुझे अपनी स्मृतियों को नज़र लगने का खतरा था
स्मृतियों पर किसी जादू-टोने से मैं डरती थी कभी

इसी बीच मैंने अपनी एक पुरानी
मगर प्रिय स्मृति को कह दिया है
‘अलविदा’

मगर मैं समेटती रखूंगी स्मृतियाँ
जल में बहा देने के लिए
समाधि बना देने के लिए।

विलास की वस्तु

अभी-अभी अंजाने में
दो सपनों आपस में टकरा गए हैं

चोट तो है,
मगर फूल जैसी मुलायम

नींद में कोई सपना दूसरे सपने से आगे निकलने की होड़ में नहीं दिखता

एक सपना पूरा समय लेकर उकेरता है
नींद में सतरंगी इंद्रधनुष
दूसरे को अपने पंख फैलाकर
नींद के आकाश में फड़फड़ाने का पूरा अवसर मिलता है

शायद यही सपना
नींद से बाहर आकर
अपनी बाकी की उम्र जिएगा

यह कवि सिर्फ इतना ही जानता है सपनों और नींद के बारे में

वो जो तकिया बगल में लेकर बिस्तर पर जाने की जल्दी में है
शायद वह ही ज्यादा बता सकेगा
नींद की तलब के बारे में
नींद के जल की तासीर के बारे में
जरूर वह सपनों के बारे में भी कवि से अधिक जानता होगा

कवि तो दिवास्वप्नों का अभ्यस्त है
नींद
उसके लिए विलास है।

धूल पर भरोसा

हमारी उछल-कूद ही
उन बेहद संकरी गलियों को
उदार बनाती थी

इन गलियों से गुज़रते हुए
हमारी जेबों में हमेशा प्रेम-पत्र रहते थे
जिन्हें उनके ठिकाने पर पहुंचा हम
गली की ओट से प्रेमियों के चेहरे की
मुस्कुराहट देखा करते थे

गलियों की महीन तंग सांसें
बड़े से बड़े बोझ से भी दबा नहीं करती थी
दादी इसका कारण
गलियों का बड़ा ज़िगरा होना बताया करती थी

हमारी मसें इन्हीं गलियों में फूटी थी
चौड़ी सड़कों पर ठीक वैसे ही चौंक जाया करते थे
जैसे गलियों से निकल
अचानक चौराहे पर पहुँच कर
गाय चौंक जाती है

चौंकना भी अब गुज़रे ज़माने की बात हुई
बचपन की गलियों की याद पर भी
जैसे कोई झाड़ू लगा गया है

उन गलियों की धूल का ही अब भरोसा है
शायद धूल ही लौटा लाए
वे स्मृतियां
जहाँ गलियां ही हमारी गोद थी
महकते थे जहां गुलाबों से प्रेम पत्र

सचमुच अब सिर्फ
धूल पर ही भरोसा बचा हुआ है।



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