रविवार की कविता : नफ़रतों का दौर


वाज़दा ख़ान कवयित्री एवं चित्रकार हैं। एम. ए. (पेन्टिंग), डी. फिल. (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)। 2009 में ‘जिस तरह घुलती है काया’ कविता संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली और 2015 में ‘समय के चेहरे पर’ कविता संग्रह शिल्पायन प्रकाशन से प्रकाशित। नया ज्ञानोदय, हंस, दोआबा, बहुवचन, साक्षात्कार, उत्तर प्रदेश, युवा संवाद, इंडिया, पाखी, संडे पोस्ट, जनसत्ता समेत सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें व रेखांकन प्रकाशित।
कुछ कविताओं का अंग्रेजी, पंजाबी व कन्नड़ में अनुवाद। जन्म- सिद्धार्थ नगर (उत्तर प्रदेश)



बदल गयी है सदी, बदल गया है युग
अब नजदीकियों और दूरियों में
घुली, नफरतों का दौर है
तुम सिर्फ अमावस्या
और बुद्ध पूर्णिमा का चांद नहीं हो
न ही चांद तारीख हो
इसलिये कोई तुम्हें पुकारे
चाहे पृथ्वी ही क्यों न हो
तुम पागलों की तरह
दौड़कर तो अब बिल्कुल मत आना चांद

लोग तुम्हें अपनी शायरी
नज्मों और जीवन में रखें
तो यकीन मत करना
कब किताबों, जीवन और आकाश से
निकाल कर फेंक दिये जाओ

हम जानते हैं
सूर्य तुम्हारा दूसरा रूप है
चाहे जितना तेज हो उसका ताप, उसका गुस्सा
फिर भी कभी मनमानी नहीं करता तुम्हारे साथ

और तुम भी तो सूर्य से
लेते हो रोशनी
कितना ख्याल भी रखते हो उसका
उतर जाता है जब झीलों
पहाड़ों के बीच सूर्य
तब तुम उतरते हो बीच आसमान में

तुम रात वह दिन, फिर भी कितना
एका है आपस में तुम्हारा
और फिर क्या तुम्हारे और सूर्य के बिना
पृथ्वी का जीवन सम्भव है ?

मगर इससे क्या
आजकल समय
विज्ञान की थ्योरी और गणित के फॉर्मूले की
तरह सिद्ध करने में लगा है
तुम अलग अलग उपग्रह हो
तुम्हारा रंग, मिजाज, तासीर
अलग अलग है

अन्तरिक्ष तुम्हारा कुल नहीं
तुम अलग अलग समयों के
अलग अलग सृष्टि के निवासी हो

और धरती तुम तो
अपने ही स्थान पर बहिष्कृत हो
और तो और नफरत की प्रयोगशालाओं में
जारी है तुम्हारा रेशा रेशा
रंग रंग अलग करने की
यहां तक कि पेड़, पौधे, कीट, पतंगे, आकाश
समुद्र, नदियां तक को चिन्हित करने की

अनायास ही हृदय में फूट पड़ती पंक्तियां
“मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना”
कसकर जिह्वा दबा लेती हूं दांतों के बीच
सुनती हूं अब केवल
यह प्रतिध्वनियां
“मजहब सिखाता है आपस में बैर रखना”
कब, कैसे, कहां “नहीं” शब्द की
हत्या हो गयी, किसी को खबर न हुयी?



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