रविवार की कविता : दुनिया के हर पिता को…


नरेन्द्र पुण्डरीक का जन्म 15 जुलाई 1953 को बांदा जिला के कनवारा गांव में हुआ। यह गांव केन किनारे बसा है। पुण्डरीक का नाम समकालीन हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण कवियों में शामिल है।

कविता संकलन-‘नंगे पांव का रास्ता’ 1992,’ सातों आकाशों की लाड़ली’, 2000, ‘इन्हे देखनें दो इतनी ही दुनिया’, 2014, ‘इस पृथ्वी की विराटता में’, 2015, ‘इन हाथों के बिना’, 2018 में प्रकाशित हुआ।

केरल राज्य सरकार की केरलपाठावली में हाईस्कूल के पाठयक्रम कविता संग्रहीत वर्ष 2016, शंकराचार्य विवि कालड़ी में एमए में चुनीं हुई कवितायें और केदार : शेष-अशेष, पाठयक्रम में स्वीकृत। पंजाबी, बांगला, अंग्रेजी एवं मलयालम आदि भाषाओं में कविताओं का अनुवाद प्रकाशित।

आलोचना-‘साहित्य: सर्वण या दलित’ 2010, मेरा बल जनता का बल है, 2015 केदार नाथ अग्रवाल के कृतित्व पर केन्द्रित।



दांत पहले उगते हैं और पहले
गिर कर हमारी
सूरत को खराब कर देते हैं
दाढ़े बाद में निकलती हैं और
मरनें के बाद तक टिकी रहती हैं,

दांत केवल काटतें भर हैं लेकिन
दाढ़ को हमारे कौर को
पचानें की चिन्ता रहती है
दांत आप से आप
सामनें आ खडे़ होते हैं और
दांढ़े बहुत कोशिश के बाद सामनें आती हैं
दांत किट किटाते हैं
दांढ़े चुप रह कर इन्तजार करती हैं
अपने नीचे आने का,

दांतों की इस मजबूत चौखट के भीतर तो
और भी अजब-गजब है
बाहर से रंगा पुता सत्यवादी मन
कमाल का चोर होता है जो
कभी बाहर हंसता है
भीतर बिलखता है और
कभी बाहर बिलखता है
भीतर हंसता है,

टूटे हुये दांतों के लिए
चुहिया का बिल
सुन कर हंसी आती है
पिता अपने दांतों को
चुहिया के बिल में न डाल कर
एक काली डिबिया में
बडे़ सुभीते से रखते थे
लम्बे काले
कत्थे चूनें से सने
पक्के रंग के,

पिता मरे तो मां को
उनके दांतों की चिन्ता हुई कि
पिता चले गये और
उनके दांत अभी धरे हैं,

बुध्द के दांत लंका में हैं
जापान में है या चीन में
या सारनाथ में धरे हैं
मुझे नहीं मालूम,

मां को मालूम था कि मैं
पिता के दांतों से बहुत डरता था
चूंकि वह पीसनें का काम दाढों से नहीं
दांतों से करते थे सो
मां ने मुझे बुला कर कहा
काली डिबिया में रखे
पिता के दांत तुम्हें मालूम हैं

मैं चुप रहा चूंकि मैं
इधर कुछ दिनों से
पिता के दबंग मन से
प्यार करनें लगा था और
लगा था कि
दुनियां के हर पिता को
मेरे पिता जैसा होना चाहिए।

चवन्नी

लम्बे समय तक मेरे लिये
कमीज में जेब होनें का
कोई खास मतलब नहीं था
पैसों की जगह उसमें
दुख ही भरे रहते थे और
दुखों की संख्या इतनी अधिक होती थी कि
उन्हीं के विलोनें में
सारे सुख दही हो जाते थे,

हालाकि दुखों से सुन्दर स्त्रियां
पसीजती रहती थाी
सो अपने दुखों का मैं
हमेशा कर्जदार रहा,

मेरे गांव में एक नदी है
मेरे जीवन से नदी का रिश्ता
सिर्फ पानी का नहीं
उन पत्थरों का भी था
जिनसे लम्बे समय तक मैं
अपनें कपड़े पछीटता रहा,

दुखों के इन दिनों में
मेरी सबसे अधिक संगत
उन आदमियों से रही
जो दिन भर सूरज के साथ बतियाते हुये
अपने दुखों को बीनते रहते थे,

सूरज के साथ बतियाते हुये
दुखों को बीननें की कला
मैनें इनसे ही सीखी थी,

हर आदमी के सिर में
इतनी जगह तो होती ही है कि वह
कुछ देर उसमें टिक कर सुस्ता सके और
कल के लिए उससे कुछ पूछ सके,

कहते हैं मेरे जन्म के समय
पिता घर में नहीं थे सो
जीवन में खुशी का प्रतिशत
जन्म से ही कम था
जो पंडित पूजा कराने आयें थे
वे मिली हुई चवन्नियां
पूजा की थाल में ही छोड़ कर चले गये थे,

लम्बे समय तक मैं उन चवन्नियों से
अपनें दुखों को एक्सचेंज करता रहा
यही कारण था कि सभी सिक्कों से
मुझे चवन्नी सबसे अधिक प्रिय थी
क्योंकि वही मुझे हर किसी से
सबसे अधिक मिलती थी
जब चवन्नी बन्द हुई तो
सबसे अधिक दुख मुझे हुआ था
क्योंकि सबसे पहले मेरी जेब में वही आयी थी,

आप कुछ भी कहे
चवन्नी हमारी सौ साल की
सम्पन्नता का प्रतीक थी
जब बन्द हुई तो
हमारे कंगाल होनें का
खुला बयान थी।



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