रविवार की कविता : दलाईलामा…


अनामिका का जन्म 17 अगस्त 1961, मुजफ्फरपुर (बिहार) में हुआ था। पिता प्रो. श्यामनंदन किशोर और मां प्रो. आशा किशोर भी साहित्यकार थे इसलिए उनको साहित्यिक परिवेश विरासत में मिला। हिंदी साहित्य में विशिष्ट योगदान के कारण राजभाषा परिषद् पुरस्कार, साहित्य सम्मान, भारतभूषण अग्रवाल एवं केदार सम्मान से सम्मानित हो चुकी हैं। वर्तमान में वह सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य की प्राध्यापिका हैं।



दलाईलामा लगातार हँसते हुए

संबोधित कर रहे थे

एक बड़ी जनसभा!

दुभाषिया बहुत गंभीर था।

उसको हँसने की फुर्सत ही नहीं थी!

अंग्रेजी के जाल में सावधानी से

पकड़ रहा था तिब्बती भाषा की तितलियाँ

जो लामा के फूल जैसे होंठों से उड़ती-उड़ती

कभी तिब्बती बच्चों के कान पर बैठ जाती थीं

कभी उनकी माँओं के चमकीले परिधानों पर

जो उनकी शादी के जोड़े थे शायद!

(गिने-चुने आयोजनों पर निकलते थे,

फिर भी किनारों से फटने लगे थे!

वैसे, चमक उन पर

खूब महीन जरी के काम की

अभी बरकरार थी

बूढ़ी आँखों में उम्मीद की इक टिमक जितनी!)

आर्य सत्य समझा रहे थे दलाई लामा!

कुछ कहते-कहते जो हाथ उठाया

उनकी बाईं बाँह पर मुझको दीखा

बचपन में कभी पड़ा चेचक का टीका,

और फिर सहसा ही कौंधा-

अरे-अरे, यह ऐसी बातें करने वाला

इसी लोक का है, इस युग का है और

आदमी है!

 

मेरे बिल्कुल सामने

प्रवचन-मग्न बाबा के कंधों पर बैठे

इस गुलथुल बच्चे की तरह कभी

गुटुर-गुटुर दूध पिया होगा उन्होंने

खुद दुधपिलाई उठाकर,

खुद पोंछ ली होगी नाक कभी स्वेटर से

 

माँ को कहीं काम में मग्न पाकर!

क्या जानते हैं हम तिब्बत के बारे में

दलाई, राहुल सांकृत्यायन और रेनपोचे, मानेस्ट्री,

चाउमीन, सस्ते स्वेटर-चप्पल, चीन, बरफ,

खोई आँखें, भोले चेहरे और वफादार कुत्ते!

आर्य सत्य क्या करता होगा

चिंदी-चिंदी बिखरे जीवन के

अनार्य सत्यों का?

सच्चाई की भी क्या होती है श्रेणियाँ?

अलग-अलग होती है जातियाँ

सच्चाई की भी?

ऊपर परम सत्य,

नीचे फिर और क्षुद्र सच्चाइयाँ :

भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी, मोह-क्रूरता,

प्रेम और नफरत-

सचमुच क्या होते हैं ये सत्य क्षुद्रतर?

दलाई, आप ही बताएँ

ऊँची-नीची होती हैं क्या

सत्य-मेखलाएँ –

जैसे पर्वत-शृंखलाएँ?

 

मैं तो किसी छोटे-से सच की

गहरी गुफा में रहूँगी,

कभी-कभी मिलने आऊँगी, दलाई तो

बाकी बड़े सत्य तब ही समझूँगी!