रविवार की कविता : इस बेहद संकरे समय में…

युवा कवि-आलोचक अच्युतानंद मिश्र का जन्म 27 फरवरी 1981 को बोकारो में हुआ। स्कूल तक कि पढ़ाई बोकारो से। आगे की पढ़ाई दिल्ली विश्वविद्यालय से हुई। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ एवं आलोचनात्मक गद्य प्रकाशित। कविता संग्रह: “ऑख में तिनका”, आलोचना: “नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता”, संपादन : प्रेमचंद समाज-संस्कृति और राजनीति, अनुवाद : देवता का वाण ( ARROW OF GOD: चिनुआ अचेबे) प्रकाशित।

वहाँ रास्ते खत्म हो रहे थे और
हमारे पास बचे हुए थे कुछ शब्द
एक फल काटने वाला चाकू
घिसी हुई चप्पलें
कुछ दोस्त

हमारे सिर पर आसमान था
और हमारे पाँवों को जमीन की आदत थी
और हमारी आँखें रोशनी में भी
ढूँढ़ लेती थीं धुँधलापन

हम अपने समय में जरूरी नहीं थे
यही कहा जाता था
गो कि हम धूल या पुराने अखबार
या बासी फूल या संतरे के छिलके
या इस्तेमाल के बाद टूटे हुए
कलम भी नहीं थे,
हम थे
और हम बस होने की हद तक थे

सड़क पर कंकरीट की तरह
हम खुद से चिपके हुए थे
हम घरों में थे
हम सड़कों पर थे
हम स्कूलों में और दफ्तरों में थे
हम हर जगह थे
और जमीन धँस रही थी
और नदियाँ सूख रही थीं
और मौसम बेतरह सर्द हो रहा था
और हम रास्तों के पास
जमीन के उस ओर चले जाना चाहते थे
हम मुक्त होना चाहते थे
और मुक्ति की कोई
युक्ति नहीं थी
अब तो धूप भी नहीं थी
पेड़ भी नहीं थे
पक्षी और बादल भी नहीं
आकाश और जमीन
और इनके बीच हम

हम अपने ही समय में थे
या किसी और समय में?
दोस्तों के कंधे उधार लेकर

हम तनने का अभिनय क्यों करते थे?

समय नर्म दूब की तरह
नहीं उग आया था हमारे गिर्द

हम फूल की तरह नहीं थे
इस धरती पर
हम पत्थरों की तरह
किन्ही पर्वतों से टूटकर नहीं आए थे
हमने सूरज की तरह तय की थीं
कई आकाशगंगाएँ

सितारे टूट कर गिरते
और हम अपने कंधे से धूल झाड़ते
चाँद की ओर पीठ किए बढ़ रहे थे

हमारी आँखों में
चमक रहे थे सूरज
और पैरों में दर्ज होने लगे थे
कुछ गुमनाम नदियों के रास्ते
खुद के होने की बेचैनी
और रास्तों की तरह बिछने का हौसला भी था।

सभ्यता की शिलाओं पर
बहती नदी की लकीरों की तरह
हम तलाश रहे थे रास्ते
इस बेहद सँकरे समय में!

First Published on: July 4, 2021 10:46 AM
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