‘टोकरी में दिगन्त : थेरीगाथा’ नामक काव्य संग्रह के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली अनामिका हिंदी साहित्य में विशिष्ट योगदान के कारण राजभाषा परिषद् पुरस्कार, साहित्य सम्मान, भारतभूषण अग्रवाल एवं केदार सम्मान से सम्मानित हो चुकी हैं। प्रो. श्यामनंदन किशोर और मां प्रो. आशा किशोर के घर 17 अगस्त 1961, मुजफ्फरपुर (बिहार) में जन्म लेने वाली अनामिका को साहित्यिक परिवेश विरासत में मिला।
स्त्री मन के अनछुए पहलुओं, नारी संवेदना और भावों को कविता का विषय बनाने वाली अनामिका के बारे में प्रख्यात आलोचक डॉ. मैनेजर पांडेय कहते हैं, “भारतीय समाज एवं जनजीवन में जो घटित हो रहा है और घटित होने की प्रक्रिया में जो कुछ गुम हो रहा है, अनामिका की कविता में उसकी प्रभावी पहचान और अभिव्यक्ति देखने को मिलती है।”
साहित्य अकादमी अवार्ड मिलने पर दैनिक भास्कर के एसोसिएट एडिटर प्रदीप सिंह ने अनामिका से विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत का संपादित अंश :
प्रश्न: सबसे पहले तो आपको बधाई ! कविता संग्रह पर साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली आप हिंदी की पहली कवयित्री हैं। आपको मिले पुरस्कार ने कई स्थापित मान्यताओं को बदला है। इस पर आपका क्या कहना है?
अनामिका : धन्यवाद ! मान्यता इतनी जल्दी नहीं बदलती। एकाध पौधा लगाने से शहर की जलवायु में खास परिवर्तन नहीं होता, पर लगातार पेड़ लगाए चलिए तो एक दिन फिजां जरूर बदल जाती है। मेरे भीतर स्त्रियों का एक पूरा गांव बसा है। मेरे माध्यम से इतिहास, मिथक और आस-पास बिखरी वंचित/ विस्थापित अस्मिताओं की आवाज कहीं पहुंची-इसका संतोष तो है पर और भी बहुत स्त्री–स्वर हैं जो ध्यान से सुने जाने चाहिए!
प्रश्न: कविता साहित्य की ऐसी विधा है जिसमें कोई अपना दु:ख आसानी से कह सकता है। हमारे समाज में महिला समुदाय अपेक्षाकृत ज्यादा दुखी रहीं हैं। लेकिन आज भी कविता पर वर्चस्व पुरुषों का ही है। महिलाएं कविता क्षेत्र में भी पीछे क्यों रह जा रहीं हैं?
अनामिका : जिस कुर्सी पर आप धम्म से बैठ जाते हैं और बिना कुछ सोचे बेदर्दी से उसे इधर-उधर खींच लेते हैं, उसकी चूं-चूं पर आप क्या ध्यान देते हैं ? सोचिए कि क्या आपको सूझता भी है कि वह आपसे कुछ कहने लगी है- “रूको-रूको, ऐसे नहीं, मुझे चोट लग रही है ! मेरी कहानी सुनो ! मेरा पक्ष सुनो ! मुझसे संवाद करो ! मुझमें भी संवेदना है !”
स्त्री को देह तक में सीमित करके देखने का चलन बदला नहीं है ! कोई कविता पढ़कर मंच से उतरती है या फेसबुक पर डालती है तो उसकी कविता पर नहीं, अवांतर प्रसंगों-आवाज, हाव-भाव आदि पर प्रतिक्रिया आने लगती है ! लड़कियां घबरा जाती है ! फिर लेखन के वर्ष प्रजनन औऱ पालन-पोषण, गृहस्थी से या करियर से जुड़ी जिम्मेदारियों के भी गहन वर्ष होते हैं जिसमें लेखन पुरानी सहेली-सा छूट ही जाता है !
प्रश्न: आपके लेखन का मूल विषय स्त्रियां हैं, अन्य स्त्रीवादी लेखिकाओं और महिला विमर्श में आक्रोश का स्वर प्रबल है लेकिन आपके लेखन में करूणा की प्रधानता है। ऐसा क्यों?
अनामिका : आक्रोश में किया गया संवाद हरदम विफल ही होता है ! खौलते पानी में चेहरा नहीं दीखता ! अगर दीख जाए तो खौलना छूट ही जाएगा ! ध्यान से देखिए तो हर व्यक्ति अपनी परिस्थितियों और मन:स्थितियों के संघात का ही प्रतिफल है। उसे बदलना हो तो उसकी परिस्थितियां और मन:स्थितियां बदलनी होंगी-परिस्थिति संरचनागत परिवर्तनों से, मन:स्थितियां संवाद से, अच्छी किताबों, अच्छी फिल्मों से।
प्रश्न: आपको पुरस्कार देने की घोषणा के बाद सोशल मीडिया पर कुछ स्त्री, दलित और अन्य लेखक रोष प्रकट कर रहे हैं। इस पर आपको क्या कहना है?
अनामिका : साहित्य अकादेमी ने भारतीय भाषाओं का साहित्य जोड़े रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, इसके लिए मेरे मन में उसका सम्मान है। फिर मैं सिद्धांतत: बहिष्कार में नहीं, परिष्कार में विश्वास रखती हूं जो संवाद के सहारे ही सम्भव है।
संस्थाएं जनतंत्र की रीढ़ हैं। अकादमियों का बहिष्कार या विश्वविद्यालयों का या परीक्षा पद्धति का बहिष्कार- इसका मतलब क्या ! पुरस्कार संयोग-शासित होते हैं, डाल से अचानक टपका हुआ फल-पर मैंने झोली फैलाई तो नहीं थी!
प्रश्न: आपकी पसंदीदा पांच कवि कौन हैं? आपको तुलसी-रैदास का विनय, कबीर का आक्रोश, मीरा की भक्ति में से क्या पसंद है ?
अनामिका : कालिदास, रिल्के, लोर्का, एमिली डिकिन्सन, नेरूदा। ‘भ्रमरगीत’ वाले सूरदास की भक्ति पसंद है। उनकी गोपियों की भक्ति जिसके माधुर्य में मीठी तकरार की आहट लगातार है ! उनका प्रीत-कलह का माद्दा और तर्कसम्बलित परिहास का वैभव उन्हें आधुनिक स्त्रियों से जोड़ता है।
प्रश्न: टोकरी में दिगंत: थेरीगाथा, थेरियों के रूपक में लिपटी हमारे समय की समान्य स्त्रियां है। थेरीगाथा के इतने दिनों बाद नारी चेतना और स्थिति में क्या कोई परिवर्तन आया है?
अनामिका : एक-टु- एक-टु! कुंचन-कुंचन ! थोड़ा-थोड़ा। पहले की स्त्री तन-मन से सेवा करती थी पर सिर्फ अपने घर की, आज की शिक्षादीप्त स्त्री-तन-मन-धन से घर-बाहर दोनों की सेवा करती है, फिर भी उसकी लानत-मलामत होती रहती है!
बाल-विवाह, सती प्रथा, बहुविवाह टले हैं, विधवा-विवाह पर भी उतना हो हल्ला नहीं मचता, न जाति या धर्म पार की शादियों पर- पर देह अब भी स्त्री-संबंधी अपराधों की आधारभूमि है। यांत्रिक संभोग, बलात्कार, भ्रूण-हत्या, साफ-सुथरे प्रसव की सुविधा का अभाव, बालिका दोहन, ट्रैफिकिंग, वेश्यावत्ति, पोर्नोग्राफी, डायन-दहन, दहेज-दहन, मार-पीट, गाली-गलौज, अभद्र टिप्पणियों से लगातार मानसिक और भाषिक बलात्कार, श्रम-दोहन-क्या-क्या गिनाएं, फिर भी आधुनिक थेरियां पुरुष में छुपे बुद्ध से संवाद को प्रस्तुत हैं, यह क्या कम बड़ी बात है ?
प्रश्न:अपने काव्य-संग्रह टोकरी में दिगंत, थेरी गाथा: 2014 में बुद्ध की समकालीन मानी जानेवाली इन भिक्षुणियों के जरिए स्त्री-देह बनाम स्त्री-मन के कुछ चिरंतन सवालों को समय के एक पुरातन छोर पर जाकर पकड़ने की कोशिश की है? स्त्री देह को तो पुरुष समझने की दावा करता है, स्त्री मन को कितना समझता है?
अनामिका : भाई मेरे, पितृसत्ता तो देह का छंद भी ठीक से नहीं समझती क्योंकि उसे वह मन, बुद्धि और आत्मा से काटकर देखती है! तभी तो स्त्री-देह दुनिया के सारे अपराधों की आधार पीठिका बन गई है। मन से यानी बचपन की खट्टी-मीठी स्मृतियों से और आधारभूत स्वप्नों से छंद स्थापित किए बिना भाषा, बुद्धि और आत्मा की गहराई मापे बिना, उसके प्रति भाव, आदर और समर्पण से भरे बिना देह जैसी संवेदनशील शै पर ऐसे टूट पड़ना जैसे वानर केले के घौद पर- किसी भी स्त्री के मन में पुरुष के प्रति खौफ ही भरता है। यही खौफ धीरे-धीरे मौन वितृष्णा में परिवर्तित हो जाता है और ज्यादातर स्त्रियां ऐसे हुलुक बंदर साथियों को घर का सबसे जिद्दी बच्चा समझकर ही झेल पाती हैं !
प्रश्न: आपकी कविताओं की दुनिया में एक साथ कई दुनिया देखी जा सकती है। ये दुनिया हमारी स्मृतियों, आख्यानों, इतिहास और किंवदंतियों में बिखरी हुई है?
अनामिका : मेरा मन अंधा कुआं है-तरह-तरह की अनुगूंजों और परछाइयों से भरा हुआ। कई फूटी गगरियां है वहां और कई टूटी हुई रस्सियां ! एक मेढक भी है जो लाख चाहकर भी चांद नहीं छू पाता जिसकी चांदनी उसमें उड़ान का स्फुरण भरती है। मेरे चित्त में स्नेह तो है। कभी किसी को हलके ढंग से नहीं लिया, ध्यान से देखने और ध्यान से सुनने का धीरज भी नैसर्गिक है, जो पढ़ती हूं, ध्यान से पढ़ती हूं, कुछ भोगना भी होता है तो उड़नछू भाव से नहीं भोगती, पूरी शिद्दत से भोग लेती हूं कि उस भाव की पूरी निर्जरा होले जो इतना कष्ट दे रहा है !
तो सुने-पढ़े-देखे और भोगे हुए की अनुगूंजें और परछाइयां मेरे भीतर से जाती नहीं और स्वयं से बाहर निकलकर जब अनुभूतियों का समाहार देखती हूं तो लगता है कि विडम्बनाएं आधारभूत हैं जिनकी एक कौंध में अभिव्यक्ति जरूरी है।