
लेह के बीचोबीच स्थित होटल लिंग्जी की छत पर कुर्सियां लगाई जा रही हैं। उनके सामने मेज भी है। हल्का खाने-पीने का सामान लाया जा रहा है। एक-एक कर सैलानी छत पर आ रहे हैं। ज्यादा नहीं हैं। वे ही जो होटल में ठहरे हैं। होटल दुमंजिला ही है। ऊपर पहाड़ों पर बर्फ गिरी है इसलिए ठंड बढ़ गई है। मेरे पास जैकेट तो है पर कान और सिर ढ़कने के लिए मफलर या कनटोपा नहीं है- पहले सोचा नहीं था कि जरूरत पड़ेगी। फिर दिल्ली में हम लोगों की आदत है कि सर्दियां जाते ही हम गरम कपड़े घर में किसी कोने में संदूक में रखे देते हैं फिर वे आसानी से हाथ आते नहीं हैं। कई कई लोग तो एक दूसरे घर में माता-पिता के घर में रख जाते हैं। जवान लड़के-लड़कियों के घरों में इतनी जगह नहीं होती है। बहरहाल, आयोजक मुझे लेकर चिंतित हैं। मैंने सोचा होटल के कमरे से टॉवेल लाकर ही लपेट लूं। फिर ध्यान आया-मेरे साथ आए प्रकाश थकावट और बुखार के मारे छत पर नहीं आ रहे हैं। – सो उनका ही कनटोपा उधार लिया जाए। वहीं मंगवाया और मैं आराम से छत पर ठंड में बैठा रहा।
अब हम सब लोग बैठ गए हैं। वादक भी एक-एक कर फर्श पर ही बैठ गए हैं। पारंपरिक धवल राजसी वेशभूषा में हैं- कुछ-कुछ राजस्थानी इस सबके बीच नृत्य चल रहा है। नृत्य के बीच के अंतराल में आकर वही महिला अगले नृत्य का परिचय देती है -ध्यान रहे नर्तक-नर्तकियों का नहीं। कोई भी नृत्य दस-पन्द्रह मिनट से ज्यादा का नहीं है – कोई-कोई तो पांच मिनट में देखते-देखते ही समाप्त हो जाता है। कोई नृत्य हाड़तोड़ या शारीरिक मेहनत वाला नहीं है कि करते करते पसीना आ जाए। सब आसान लय में गुंथे हुए नृत्य हैं। गीत-संगीत के साथ चलने वाले। इनके साथ लोक और शास्त्रीय का भी कोई झगड़ा नहीं है कि फलांना लोक है और फलांना शास्त्रीय है। विभिन्न पर्वो, त्यौहारों, उत्सवों के समय किए जाने वाले नृत्य है।
लेह में मुखौटा नृत्य भी विभिन्न पहाड़ी इलाकों में होते हैं। देवी-देवताओं-राक्षसों के मुखौटे लगाकर, जानवरों के मुखौटे लगाकर नृत्य किए जाते हैं। वे हमें नहीं दिखाए गए। वे शायद इस तरह छत पर नहीं किए जा सकते या उसके कलाकर अलग होते होंगे।
यहां अज्ञेय की नाच कविता याद आ रही है – लोग देखते हैं। सिर्फ नाच –
मुझे नहीं,
मेरे तनाव को नहीं,
देखते हैं सिर्फ नाच।
हमने भी सिर्फ नाच ही देखा और कुछ नहीं देखा।
शाम के कार्यक्रम में कोई मंच नहीं था। छत पर ही नीचे वादक बैठे थे। पुरूष ही वादक थे जबकि नर्तकों में नर्तकियां भी थी। नर्तक सब जवान और खुबसूरत नहीं थे पर उनकी देह मुद्राएं आकर्षक थी। सभी युवा नहीं थे। मध्यम आयु के ही थे। नर्तकियां पारंपरिक वेशभूषा के साथ जरूरत से ज्यादा कपड़े पहने हुए थीं। नृत्य के साथ गाए जा रहे गीत के बोल समझ में नहीं आ रहे थे – पर जो कुछ हो रहा था सुंदर हो रहा था। छत पर ठंड थी और प्रकाश व्यवस्था मंच पर जैसी होती है वैसी नहीं थी। छत पर जैसी होती है वैसी ही थी। पहले-पहले राजाओं को छंग यहां की स्थानीय बियर परोसने के लिए जो नृत्य किया जाता है वह नृत्य केवल पुरूषों ने किया। उनके हाथ में कलश जैसे या चाय की केतली जैसे पीतल के बर्तन थे जिनमें छंग भरी जाती होगी।
विभिन्न उत्सवों के समय, मेलो के समय जो नृत्य किए जाते हैं वे भी थे। कुछ युगल नृत्य भी थे। लड़का-लड़की जब दूर जंगलों में या गांवों में जब प्रेम के समय नृत्य करते हैं वे भी थे। वैवाहिक नृत्य भी थे। हर नृत्य के लिए अलग साज-श्रृंगार और वेशभूषा थी। सब चटक लाल रंग की थी। एक नृत्य में तो महिलाओं ने एक बड़ा सा टॉवेल या चादर जैसा लपेटे थी जिस पर कढ़ाई की हुई थी और झालर लटकी हुई थी। आभूषण भी पहने थी। उनके जूते भी विशेष प्रकार के थे – कुछ-कुछ राजस्थानी जोड़ियों से मिलते-जुलते नुकीले। महिलाएं भी वहीं पहने थी। नृत्य में ज्यादा कसरत या शारीरिक श्रम वाले नृत्य नहीं थे। एकल नृत्य भी नहीं थे। सामूहिक नृत्य ही थे। पांच-छह कभी-कभी सात-आठ नर्तक हमेशा हर नृत्य में रहते थे।
एक नृत्य तो युद्ध के समय का भी था। युद्ध में चूंकि पुरूष ही ज्यादा जाते हैं इसलिए इसमें महिलाएं नहीं थी। पुरूष नर्तक हाथों में तीर कमान लिए और लोहे का मुकुट पहने आए। ये सब योद्धा थे या राजा को युद्ध के लिए तैयार करने, प्रेरित करने के लिए नृत्य कर रहे थे या यह बता रहे थे कि युद्ध कैसे लड़ा जाता है। आखिर में हम सब दर्शकों को भी अंतिम नृत्य में शामिल में शामिल किया गया। विभिन्न नर्तकियों और नर्तकों के हाथ पकड़कर हम भी थोड़ी देर नाचे या हाथ पैर हिलाएं। झूमें।
ये सब नृत्य छत के बगल के कमरों में ठहरे विदेशी सैलानियों को भी इतने आकर्षक लगे कि वे भी इन्हें देखने एकत्रित हो गए और इनकी विडियो फिल्म उतारने लगे। कैमरे के फ्लैश तो चमके ही। नृत्य के बीचोंबीच लाईट चली गई तब भी नृत्य जारी रहा और फ्लैश लाइटों की चमक में ही इसे देखते रहे। ताली बजाते रहे। केवल छह हजार रूपये में हमें छह से अधिक नृत्य दिखाएं गए । कितने कलाकार थे। डांसपार्टी का परिचय नहीं दिया गया। कहां से आई हैं आदि।
कलाकारों का, नर्तकों का भी कोई नाम नहीं बताया गया। वाद्य कलाकार भी अनाम अनजाने ही रहे। यहां के कलाकारों को नाम की भूख नहीं है, केवल उनकी कला ही उनकी पहचान है। परिचय देनेवाली ने भी अपना नाम नहीं बताया। मैं सोचता था कि समारोह के बाद से नर्तकियां हमारे पास आकर कुछ बक्शीश आदि मांगेंगी-लेकिन वो सब अपना कला का प्रदर्शन करके शांति से चली गई। अतिथियों को, सैलानियों को उन्होंने संकट में नहीं डाला। अगर वे थाली लेकर आती तो हम लोग और विदेशी सैलानी भी उनमें सौ-पचास रूपये तो डालते ही और यह कुछ अतिरिक्त कमाई हो जाती पर ठीक ही है कि उन्होंने और प्रदेशों की तरह यह सब नहीं किया। भगवान उनकी कला को अमर रखे। उनको स्वस्थ संुदर रखे ताकि वे परदेशियों को इसी तरह लुभाते रहें। उनका मन बहलाते रहें।
(राजेन्द्र उपाध्याय कवि-साहित्यकार हैं और आकाशवाणी के अवकाशप्राप्त अधिकारी हैं।)