वाजदा खान जितनी सुघड़ चित्रकार हैं, उतनी ही कुशल कवयित्री। उनकी कविताएँ उनकी पेंटिंग्स की ही तरह जीवनद्वंद्व के सघन अनुभवलोक से सनी हुई और कलात्मकता से परिपूर्ण हैं। इनमें जितना जीवनपक्ष है उतना ही उसका दर्शन-तत्व।जितनी जैविक कला है, उतनी ही रचनाधर्मिता। इन कविताओं का अवगाहन उतना आसान नहीं जितना हम समझ लेते हैं, क्योंकि एक संश्लिष्ट चित्रकार जब कविताएँ रचता है तो वह लक्षण-भेद यहां भी गहनता से परिलक्षित होता है। चित्रात्मक बिम्बयोजना में पगी बारीक कला और सांद्र जीवनतत्व का अद्भुत संगम है वाजदा की कविताएँ!
अपने दो कविता संग्रहों ‘जिस तरह घुलती है काया’ और ‘समय के चेहरे पर’ से हिंदी कविता में एक अलहदा पहचान बना चुकी वाजदा को पढ़ना जीवन के एक ऐसे और नए अनुभवलोक से गुजरना है जहां जीवन-संघर्षो के दुर्द्धर्ष और मार्मिक चित्र पूरी आत्मीयता से दीप्त और जीवंत मिलते हैं।
ये कविताएँ मन में किसी अमूर्त भाव की सृष्टि नहीं करती, न ही मन के किसी उद्दीपन या बहाव में नहीं लिखी गई हैं। इनको पढ़ने-गुनने के लिए थोड़ा वक्त चाहिए। इनमें जो गतिशीलता है, उसके आवेग को आप एकबारगी नहीं पकड़ सकते। यह उनकी सर्जनात्मकता की खासियत है जो पाठक से ठहराव और समय की मांग करती है। गोकि, यह कोई चलताऊ स्त्री-कवि का देह-राग या नारी-विमर्श नहीं है, बल्कि इनमें ‘देह के भीतर छिपी दुनिया’ के कुफ्र के विरोध का संकेत है। जीवनद्वंद्व यहाँ बहुत उतार-चढ़ाव से गुजरता हुआ, यानी कवयित्री के शब्दों में –
“हिचकोलों से भरी जीवन गाथा
कभी विराट लहरों पर, बादल की
काली स्याही से लिखी जाती
कभी सपाट कभी गम्भीर लहरों पर
सूर्य के साथ चित्रित होती
कहीं रहस्य, कहीं कुरुपताओं में
ढली, कहीं सपाट
कहीं छितर जाने का बोध”
-से युक्त है। जीवन की गहरी और अर्थपूर्ण खोज वाजदा की कविताओं का एक प्रमुख अभिलक्षण कहा जा सकता है। इस अनुसंधान में वह जितनी सचेत और संयत होती हैं उतनी ही रोमांच, जिद और आशा से भरी हुई होती हैं। वहाँ नैराश्य या अवसाद नहीं होता। जीवन का टूटना-बिखरना नहीं होता –‘अनश्वर रंगतों में अपने होने के अर्थ पाने का यत्न या प्रकृति के सपाट गम्भीर कोने में लोप हो जाने का दर्द के साथ उन विराट अन्धेरों से गुजरती’हुई वह अपनी कविताओं में-
‘जैसे समुद्र की अनन्त लहरों को
पार करते हुये, उसकी गहन
घुप्प गहराइयों में
समा जाने की जिद’
तक चली जाती हैं।
वाजदा की कविताओं में यह भी लक्ष्य किया जा सकता है कि वह अकेली ऐसी कलाकार-कवयित्री हैं जो सृजन में जीवनसंघर्षों का एक सर्वग्राही कलात्मक आयाम देती हैं।उसे किसी विचार, वाद या विमर्श के फ्रेम में नहीं डालतीं। उनमें युवा पीढ़ी की काबिल कवयित्री रश्मि भारद्वाज की तरह जीवन और मनुष्यता को झेलने और उसे बचाने की जद्दोजहद है, वहाँ अनामिका की कविताओं की तरह स्त्री-विमर्श की कोरी शब्द-स्फीतियाँ नहीं हैं। हाँ, ये कविताएँ जटिल यथार्थबोध से प्रतिकृत जरूर हैं, पर बाबुषा कोहली की तरह नींद या अवचेतनता में नहीं लिखी गई हैं, न ही कविता में खालिस स्वप्नलोक की दुनिया रचती हैं, प्रत्युत यह वाजदा का अपना जिया-भोगा हुआ असली संसार है जिसे उनके कवि के भीतर पैठे कलाकार ने बड़ी संजीदगी से कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है –
“अधसोये शिशु सूर्य की
रोशनी में
झील की तहों में उभरे बिम्ब
किसी सृजन प्रक्रिया का आगाज
या कोरा गल्प”
(कविता :शिशु सूर्य की रोशनी)
यह कलावाद की बानगी नहीं है। जिनको इनकी कविताएँ एक बार में समझ में नहीं आती, उनको इसे दुबारा-तिबारा पढ़ने की जरूरत है। इसमें अरुण देव के मुहावरों की वाकपटुता नहीं है, न ही अशोक पांडेय का खालिस विचार उद्वेग। यहाँ जनधर्मी कवियों की सरलता और अनगढ़ता भी नहीं है। इनमें पंत की प्रकृति का सुकुमारपन और मुक्तिबोध के यथार्थबोध की संश्लिष्टता है। महादेवी वर्मा की किंचित पीड़ा भी है! कुँअर रविंद्र की चित्रात्मकता भी है। इस सर्वगुण के कारण वाजदा की रचनाएँ कला और जीवन के एकमेक रूप का एक ऐसा कवित्वमय रसायन बन जाती है जिसमें हमें जीवन के गहरे, गुम्फित और संश्लिष्ट भावबोध का आस्वाद मिलता है-
“धुन्ध, झील, अदृश्य होता चांद
मुझमें उतरती समाती चलती ओस
एक छुआ जा सकने वाला सत्य
विसर्जित करता खुद को
परिधि से बाहर विस्तार देता
शून्य सतह पर परछाइयों को रखता
परछाइयां शनै: शनै: जीवन में प्रवेश करतीं
जीवन्त होती, आदिम राग का
अनिवर्चनीय/ अद्भुत एहसास
सच के साथ उठाकर सपनों में रखतीं
सम्भवत: छुपी है अभी बहुत सी
लीला मायालोक की।”
(कविता :परछाइयां)
वाजदा ने अपनी कविताओं में जीवन और कला को इस तरह साधा है कि उसके ‘फ्यूजन’ से जो काव्यफल सामने आता है वह जितना अनिर्वचनीय है उतना ही नया। इनको पढ़ना कविता के सर्वथा अनछुए और नए सिरे से गुजरना और आधुनिक कविता के एक चिरनवीन अनुभव और अभिप्रेत का साक्षी होना है। मूल में, वाजदा की कविताएँ अभिकथनात्मक और सरल नहीं है। इस वजह से समकालीन कविता के प्रचलित ढर्रे को तोड़ती हुई और विशिष्ट नजर आती है।
(क्रमशः)
(समीक्षक सुशील कुमार।)