पुणे। वितस्ता केवल एक नदी ही नहीं बल्कि जम्मू-कश्मीर की संस्कृति और सांस्कृतिक विरासत भी है। यह हमारी जीवन रेखा है। वयोवृद्ध कश्मीरी नाटककार, कहानीकार, निर्माता, साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता प्राण किशोर कौल ने कहा कि यह लेखकों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। कश्मीरी संस्कृति के विद्वान और वितस्ता महोत्सव के प्रयोक्ता सिद्धार्थ काक ने आशा व्यक्त की कि वितस्ता नदी के इतिहास और जम्मू-कश्मीर की संस्कृति का अधिक गहराई से अध्ययन किया जाना चाहिए और विद्वानों द्वारा दुनिया के सामने लाया जाना चाहिए।
साहित्य अकादेमी तथा संस्कृति मंत्रालय और दक्षिण मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र द्वारा सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के सहयोग से आयोजित वितस्ता महोत्सव के हिस्से के रूप में आज (1 अप्रैल) से दो दिवसीय वितस्ता का विस्तार: गोदावरी और वितस्ता : एक सांस्कृतिक यात्रा विषयक संगोष्ठी का आयोजन किया गया।
सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के सहयोग से आयोजित संगोष्ठी का आयोजन ज्ञानेश्वर सभागार में किया जा रहा है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कुलपति कारभारी विश्वनाथ काले ने की। वरिष्ठ कश्मीरी नाटककार, कहानीकार, निर्माता, साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता प्राण किशोर कौल और सिद्धार्थ काक प्रमुख रूप से उपस्थित थे। साहित्य अकादमी के सचिव के. श्रीनिवास राव और दक्षिण मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के निदेशक दीपक खिरवडकर मंच पर थे।
प्राण किशोर कौल ने जम्मू-कश्मीर के जीवन में वितस्ता नदी के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि राष्ट्रीय एकता के लिए हर क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय अनुवाद संस्थान स्थापित करना आवश्यक है। वितस्ता नदी के किनारे अनेक ऐतिहासिक घटनाएँ घटी हैं, अनेक युद्ध हुए हैं। अनेक कवियों, आचार्यों और विद्वानों का साहित्य फला-फूला। उन्होंने गर्व से कहा कि वह माँ के दूध के साथ वितस्ता नदी का जल पीकर बड़े हुए हैं।
सिद्धार्थ काक ने कहा कि विद्वानों को जम्मू-कश्मीर की संस्कृति को दर्शाने वाले स्थानीय स्तर के साहित्य का भी अध्ययन करना चाहिए और इस लोक साहित्य की विशेषताओं, साहित्य के निर्माण के पीछे के इतिहास का अध्ययन करके इसे संरक्षित करना चाहिए। इस तरह की लोककथाएँ आने वाली पीढ़ी को महान विरासत और संस्कृति को जानने में मदद करेंगी। यह खजाना अनमोल है।
अध्यक्षीय संदेश देते हुए कारभारी विश्वनाथ काले ने कहा, देश और खासकर महाराष्ट्र के लिए पुणे विश्वविद्यालय की एक महान शैक्षिक विरासत है। यह महोत्सव ज्ञान और संस्कृति के आदान-प्रदान में मदद करेगा। ज्ञान-विज्ञान-साहित्य और संस्कृति का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। यह संस्कृति अब लुप्त होती जा रही है। साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से उनके स्मरण और संरक्षण में मदद मिलेगी। जिस प्रकार शरीर को मजबूत रखने के लिए रक्त वाहिकाओं का कार्य महत्वपूर्ण है, उसी प्रकार पूरे देश को मजबूत रखने के लिए नदियों की आवश्यकता होती है और उनका संरक्षण किया जाना चाहिए।
स्वागत एवं आरम्भिक वक्तव्य में के. श्रीनिवास राव ने कहा, नदियाँ कई संस्कृतियों का स्रोत हैं। भारतीय संस्कृति को बचाए रखने के लिए इनकी पवित्रता को बनाए रखना जरूरी है। बहुसांस्कृतिक भारत की विभिन्न संस्कृतियों के बीच ज्ञानात्मक सम्वाद को उद्देश्य बनाकर इस संगोष्ठी का आयोजन किया गया है।
कार्यक्रम की शुरुआत ज्ञान की देवी सरस्वती व सावित्रीबाई फुले की वंदना व दीप प्रज्वलित कर की गई। स्वागत साहित्य अकादेमी के सचिव के. श्रीनिवासराव ने किया। आभार व्यक्त करते हुए दीपक खिरवडकर ने वितस्ता महोत्सव और उसके तहत आयोजित संगोष्ठी की भूमिका पर प्रकाश डाला।
उद्घाटन सत्र के बाद गोदावरी और वितस्ता : एक सांस्कृतिक यात्रा पर वसंत शिंदे, गोदावरी नदी के अष्टांग स्थल पर अरुण चंद्र पाठक, सांस्कृतिक विरासत पदचिह्नों के मूर्त और अमूर्त मिश्रण और गोदावरी नदी के आसपास इसका महत्व पर शुभाश्री उपासनी, गोदावरी और वितस्ता के सांस्कृतिक प्रवाह के बारे में सी के गरियाली, ललद्यद और नुन्द ऋषि के बारे में रूप कृष्ण भट्ट और ललित परिमू ने नवीन अवधारणा अभिनय योग का प्रतिपादन किया।
कार्यक्रम का संचालन साहित्य अकादेमी दिल्ली के संपादक (हिंदी) अनुपम तिवारी ने किया। यह संगोष्ठी 2 अप्रैल को भी जारी रहेगी।