जासूस चाहिए : शालीन व्यंग्यों का सुखद सिलसिला


व्यंग्य गंभीर विधा है। मगर बातों-बातों में व्यंग्यकार कई जगह ऐसी बात कर जाता है कि पाठक के होठों पर बरबस मुस्कान खेलने लगती है। उस समय व्यंग्य कब हास्य का रूप ले लेता है, पता ही नहीं चलता-‘एक ही कालीन पर बैठते हैं, इसलिए समकालीन हैं।’(नाम में क्या रखा है)।


ओमप्रकाश कश्यप
साहित्य Updated On :

हिंदी में दो किस्म के व्यंग्यकार हैं। पहले ‘फुल टाइम’ व्यंग्यकार, जो चौबीसों घंटे व्यंग्य का तंबू ताने रहते हैं। हिंदी व्यंग्य लेखन की परंपरा से जोड़कर बारी-बारी से आज का हरिशंकर परसाई या शरद जोशी होने का दावा करते हैं। साहित्यिक समारोहों में आप उन्हें उनके झुके हुए कंधों से पहचान सकते हैं। पूछने पर पता चलेगा कि अतिशय व्यंग्य-भार के कारण ही उनके कंधों में झुकाव आया है।

यह अलग बात है कि व्यंग्य के नाम पर तमाम उछलकूद मचाने के बावजूद उनकी स्वनामधन्य व्यंग्यकार मंडली, साल-भर में पांच-सात स्तरीय व्यंग्य रचनाएं भी नहीं दे पाती। इस पीड़ा को दूर करने के लिए वे स्वयं समीक्षक बनकर एक-दूसरे की पीठ सहलाते रहते हैं। दूसरी ओर वे व्यंग्यकार हैं जिनके लिए व्यंग्य-लेखन दूसरी या तीसरी पसंदीदा विधा है। संख्या में कम होने के बावजूद उनकी कुछ रचनाएं हिंदी के ‘पटेबाज’ व्यंग्यकारों की अपेक्षा कहीं ज्यादा चौंकाने वाली होती हैं।

राजेन्द्र उपाध्याय की छवि हिंदी साहित्य में कवि एवं समालोचक की है। हाल ही में उनकी एक कृति सामने आई है-‘जासूस चाहिए’। ऐसे समय में जब प्रौद्योगिकी ने आदमी के हरेक पल को सार्वजनिक बना दिया है, यहां तक कि उसकी धड़कनों की गिनती भी दूर बैठा हुआ कोई कर सकता है, ‘जासूस’ की चाहत रखना अपने आप में ही व्यंजना है। देखा जाए तो 50 व्यंग्य रचनाओं को अपने भीतर समेटे हुए, यह पूरी पुस्तक ही आम आदमी की कशमकश का आइना है, जिसमें हममें कोई भी अपना चेहरा खोज सकता है।

पुस्तक का नाम      :           जासूस चाहिए

रचनाकार              :           राजेन्द्र उपाध्याय

प्रकाशक              :           आर्य प्रकाशन मंडल, नई दिल्ली-110002

मूल्य                     :           300.00 रुपये

प्रथम संस्करण      :           2021

एक समय था जब शरद जोशी और परसाई के कॉलम अखबारों में सबसे ज्यादा पढ़े जाते थे। पाठक और सरकार के बीच वे लोकतान्त्रिक संवाद की भरपाई करते थे। अखबारों और पत्रिकाओं में साहित्य की सिकुड़न का सर्वाधिक नुकसान व्यंग्य को ही हुआ है। सरकारें आलोचना नहीं सुनना चाहतीं। न ही व्यंग्य को सहने का धैर्य उनमें है। इसलिए अखबारों ने साहित्यकारों के लिए उपलब्ध लोकतांत्रिक ‘स्पेस’ में कटौती की है। सरकार की नीयत देख व्यंग्यकारों ने भी अपने सुरक्षित कोने तलाश लिए हैं। उनकी कोशिश रहती है कि संबंध भी बने रहें और लिखने का शौक भी पूरा होता रहे। इससे व्यंग्य रचनाएं हजार-आठ सौ शब्दों तक सिमट चुकी हैं। यह प्रभाव ‘जासूस चाहिए’ की रचनाओं पर भी नजर आता है।

लेखक ने सधे हाथों और छोटे-छोटे प्रसंगों के माध्यम से आमजन-जीवन की विकृतियों को व्यंजना में ढाला है। अधिकांश रचनाएं मध्यवर्गी दुनिया के खोखलेपन पर चुटीले ढंग से प्रहार करती हैं। इस खूबी से कि हर प्रसंग व्यंग्य होने के बावजूद एकदम यथार्थ के करीब लगने लगता है। अधिकांश व्यंग्य लेखन और साहित्य की दुनिया से जुड़े हैं। व्यंग्यकार की दुनिया भी वही है। वे जानते हैं कि केवल रचनात्मकता के भरोसे बड़ा साहित्यकार बनने वाली प्रतिभाएं बहुत विरल होती हैं। अधिकांश तो बैशाखियों पर भरोसा करते हैं। जबकि कुछ चतुर-सुजान हालात को ही बैशाखी बना लेते हैं—

‘इमरजेंसी में जिसके पीछे जितने ज्यादा (या बड़े) जासूस लगे, वह बाद में उतना ही बड़ा लेखक सिद्ध हो गया।’(जासूस चाहिए)।

‘सफल लेखक होने के लिए अनिवार्य है कि लेखक दो शादी करे। बिना तलाक दिए, वैसे ही किसी कवयित्री को रख ले और महान लेखक कहलाए।’(दिल्ली में सफल लेखक होने के नुस्खे)

चूंकि राजेन्द्र उपाध्याय मूलतः कवि हैं। इसका असर भी उनकी रचनाओं पर देखने को मिलता है। उनकी कई रचनाओं में उस दुनिया की विसंगतियां पर प्रहार किया गया है- ‘मोबाइल हमारे उन कवियां को भी बेरोजगार कर सकता है, जो आए दिन विरह की कविताएं लिखते रहते हैं।’

कृति की रचनाओं में भरपूर पठनीयता है। इससे भी ज्यादा बड़ी बात यह है कि उसमें दर्ज सभी प्रसंग हमारे ही आसपास के हैं। उस दुनिया के हैं जिसे हम रोज देखते हैं; और देखते-देखते आगे बढ़ जाते हैं। नहीं तो क्षुब्ध होकर अतीतोन्मुखी बन जाते हैं। भूल जाते हैं विचलन समय का नहीं, हमारा और हमारे समाज का है। जो लेखक कवि पहले समाज के लिए सोचते-लिखते थे, अब वे सिर्फ पुरस्कारों-सम्मानों के लिए लिखते हैं। जो अधिकारी पूरे देश और समाज के लिए काम किया करते थे, अब अपने परिवार और नौकरी में हैं तो रिटायरमेंट बेनीफिट के लिए काम करते हैं—

‘जैसे-जैसे अप्रैल मास में पत्तियां गिरने लगती हैं, लेखक व्यस्त रहने लगता है। दिल्ली में 500 के करीब हिंदी सेवक हैं। सबको बारी-बारी से पुरस्कार लेकर निगमबोध घाट जाना है।'(सखि, पुरस्कार ऋतु आई रे)।

व्यंग्य गंभीर विधा है। मगर बातों-बातों में व्यंग्यकार कई जगह ऐसी बात कर जाता है कि पाठक के होठों पर बरबस मुस्कान खेलने लगती है। उस समय व्यंग्य कब हास्य का रूप ले लेता है, पता ही नहीं चलता-‘एक ही कालीन पर बैठते हैं, इसलिए समकालीन हैं।’(नाम में क्या रखा है)।

‘जासूस चाहिए’ के अधिकांश व्यंग्य शालीन हैं। इतने शालीन कि पाठक को ललित निबंध होने का भ्रम होने लगता है। उसकी कशमकश उस समय दूर हो जाती है, जब लेखक अचानक बिना चूके ‘हंटर फटकारने’ लगता है। संग्रह में कम ही सही, कुछ रचनाएं ऐसी भी हैं जिनमें व्यंग्य की प्रहारात्मकता बढ़कर पूरे समाज को अपने दायरे में लेती है। ‘चूहेदानी’ जैसी रचना के माध्यम से व्यंग्यकार देश की पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था को विमर्श के दायरे में समेट लेता है-

‘हजारों साल से हजारों चूहे चूहेदानी में फंसते रहे हैं। फिर भी वे चूहेदानी को पहचानते नहीं हैं। वे केवल रोटी देखते हैं, पिंजरे को नहीं, सलाखों को नहीं। हमारे लोकतंत्र के लिए इससे बड़ा रूपक और क्या हो सकता है!’

कुल मिलाकर ‘जासूस चाहिए’ पाठकों के लिए पठनीयता से भरपूर व्यंग्यों को अपने भीतर समेटे हुए है। ऐसे समय में जब पाठक पुस्तकों से छिटककर इंटरनेट-जीवी होते जा रहे हैं, कंप्यूटर गेम सारी पाठकीय संवेदनाओं को सोख रहे हैं, ऐसी पुस्तकों का आगमन स्वागत योग्य कहा जाना चाहिए।

(ओमप्रकाश कश्यप वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)



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