जिंदगीनामा : उपन्यास का एथनोग्राफिक वितान


हर बन्दा अपने पिता का अवतार है। याद रखो अवतार वह जिसके दो हाथ हैं अवतार जिसके दो पांव हैं। अवतार वह जिसका मुंह-माथा है। धड़ है, आगा है, पीछा है। मेरे बच्चों! अवतार वह जो धरती हल से जोतकर पानी से सींचता है, तृप्त करता है, बीज बाता है, फसले उगाता है।



डॉ. कविता राजन
‘जिंदगीनामा विभाजन के पूर्व पंजाब की धड़कती जिंदगी का वह आलेख है जिसे विभाजन के तीन दशकों बाद स्मृतियों के आघात की पीड़ा में उपन्यासकार- कृष्णा सोबती ने लिखा है। लोक-जीवन और उसकी सांस्कृतिक ऊर्जा से संचालित यह उपन्यास नया शिल्प-प्रयोग है जिसमें नायक-खलनायक नहीं, लोग ही लोग हैं, जिंदादिल और जांबाज! पंजाब की बीसवीं सदी के पहले मोड़ पर ‘दिक्’ और ‘काल’ को स्मृतियों के संकुचन में समष्टिगत रूप में आंकने का उपन्यासकार का संकल्प है। पंजाब का 1947 का विभाजन एक राजनीतिक निर्णय था जो समाज के सदस्यों पर आरोपित था। दो खंडो में संकल्पित यह उपन्यास 1947 तक की पूरी कथा कहता, पर अभी तक एक खंड ही (जिंदा रूख ‘: 1900-1916) छपा है।

परंपरागत उपन्यास-समीक्षा के लिए यह उपन्यास एक आह्वन है। इसके दो कारण हैं। पहला है इतिहास की उपन्यासकार की इस उपन्यास में अवधारणा! “इतिहास वह जो लोकमानस की भागीदारी के साथ-साथ बहता है, पनपता और फैलता है और जन सामान्य के सांस्कृतिक पुख्तापन में जिंदा रहता है, उपन्यास के पृष्ठ 8 पर यह वक्तव्य है। उसके बाद के आठ पृष्ठ पंजाब की मिट्टी की महिमा, उस पर बसे लोगों का सांस्कृतिक विलास, सामाजिक संवेदनाएं और इन सबको मिलाकर उत्पन्न जुड़ाव, इतिहास-बोध के रूप में व्यक्त करते हैं। साथ ही व्यक्त हुआ है, उपन्यास को लिखने का उपन्यासकार का उत्स! ठस उपन्यास लेखन का उत्स ‘एथनोग्राफिक- है। उपन्यास को विजन में शुरूआत मिथक से की गई है। कारण स्पष्ट है जिस विभाजन द्वारा लोग जड़ों से उखड़ गए उन जड़ों का समझे बिना पीढ़ी-दर-पीढ़ी जिंदगी की क्या व्याख्या हो सकती थी। इसकी कारण से उपन्यास में उपन्यास का प्रथम विमर्श आदिम जाति की पंजाब में प्रचलित व्युत्पत्ति पर है।

हर बन्दा अपने पिता का अवतार है। याद रखो अवतार वह जिसके दो हाथ हैं अवतार जिसके दो पांव हैं। अवतार वह जिसका मुंह-माथा है। धड़ है, आगा है, पीछा है। मेरे बच्चों! अवतार वह जो धरती हल से जोतकर पानी से सींचता है, तृप्त करता है, बीज बाता है, फसले उगाता है।
आगे सुनो!

सबसे पहला अवतार हुआ आदि पुरूख प्रजापति (पृष्ठ-20) “बच्चों, यह रूख  हमारे सब रूखों से बड़ा था। इतना बड़ा कि गउओं और बछड़ों के बड़े-बड़े झुंड इसके नीचे आ झुके। इसी सृष्टि-रुख से भूलोक उपजा। यह पृथ्वी, धरती हमारी। फिर उपजी दिशाएं और फिर बना आकाश। जब सबकुछ स्थित हो गया तो फिर जन्मा अदिति को दक्ष ।(पृष्ठ 20) तके स्रोत के रूप चर्चा उपन्यास में पंजाब के एक गांव की एक प्रभावशाली हवेली का प्रमुख करता है। जिसके सतानोत्पत्ति की बाधा एक पीर के आशीर्वाद से हाल में ही दूर हुई थी। हवेली की नई पीढ़ी के आग्रह पर वह व्युत्पत्ति का मिथक सोत्साह प्रस्तुत करता है। संतति मोह और वंश-परंपरा के महत्व पर उपन्यास का यह अंश 1947 के विभाजन पर सांस्कृतिक-विमर्श की सुंदर शुरूआत है। संस्कृतियों में ‘संतति-मोह’ पत्नी की पारिवारिक ईयत्ता तक करता है। इस उपन्यास में हवेली में हुए शाह और शाहनी के सवांद का एक अंश इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है:

“शाहनी, सोचा, तुम भरम करोगी-तुमसे कहा नहीं। पिछले पक्ख गौरजा मुझे भी सपने में आई।” शहनी डर से कांपने लगी।

“शाहजी, सपने में कैसे दिखी- कुछ बोली?” शाहजी जाने कैसे अंखियों से शाहनी की ओर देखते रहे, जैसे दो-चित्र हों- कहें न कहे!

“मुझमें बड़ी तृष्णा थी। साथ रही इने-गिने दिन। जब सपने में दीखती है बस यही- शाहजी, मेरा जातक कहां है? कुल वंश में कौन आगे, कोन पीछे। कहकर हंसती है और ओझल हो जाती है।”

……शाहनी, एक बार आंखें मीच लेने पर कौन अपना कौन पराया! कुल चलाने को बेटे की लोकगीत चली आई है। शाहनी का दिल तो ऐसा उमड़ा कि रो-रो शाहजी के गले जा लगे, पर ठिठकी से अपने धनी को देखती चली। (पृष्ठ-29)

यहां शाहजी (संदर्भित हवेली के प्रमुख) गौरजा(उनकी मृत संतानहीन पत्नी) तथा शाहनी (शाहजी की लंबे समय से तबतक निसंतान पत्नी) के संदर्भ हैं। इन पंक्तियों में औपन्यासिक सौष्ठव के कई आयाम हैंभाषा, शैली, कथोपकथन का शिल्प, सांस्कृतिक मूल्य-बोध तथा पात्रों का अस्तित्व-बोध! कितनी आसानी से, किस कौशल से शाहजी ने इतनी बड़ी बात कह दी और किस प्रकार शाहनी ग्लानि के बीचो-बीच मन-मसोसकर रह गई। स्त्री-विमर्श की दृष्टि से ये महत्त्वपूर्ण पंक्तियां हैं जिसमें पुरुष के सभी पारिवारिक निर्णयों को पत्नी मूक होकर स्वीकार करती है। शाहजी का भाषिक-कौशली यहां लक्षणीय है जो शिष्टाचार-सम्मत होते हुए भी पूर्णतः निर्णायक है। यहां वंश-परम्परा का सांस्कृतिक मूल्य स्थापित दिखाया गया है, जो 1947 के विभाजन का मृत्यु-लीला(वंशो के संतानों का वध) से भी संदर्मित और जुड़ा है।

कुछ ही समय बाद उपन्यास में एक स्थिति आती है जब एक और शाहनी को पुत्र-रत्न की प्राप्ति होती है(लाली शाह) और घर में खुशी का माहौल पैदा होता है, तो दूसरी ओर हवेली में एक गुणी, सुंदर और मेधावी मुस्लिम युवती की ओर शाहजी आकर्षित होने लगते हैं। कोई घटना नैतिक संकट उत्पन्न नहीं करती, पर शाहनी के प्रेम-भरे वैवाहिक जीवन पर ग्रहण तो लग ही जाता है। इस पूरे प्रसंग को उपन्यासकार ने बड़ी बारीकी से चित्रित किया है। नारी के मन की गहराइयों में जाते हुए उपन्यास में एक विशिष्ट मनोसामाजिक आयाम उभरा है: राबयां छोआ-छोटा मुस्कराती रही। खड़ी हो पीछे शाहनी का चुटला खोलने लगी। सिर में घी डाल उंगलियों की पोरों से बालों की जड़ों में रचाती थी कि शाहजी आन पौड़े। शाहनी ने सिर पर कपड़ा कर लिया। राबया मंजी की पाी पर पांव टिकाए मूरत बनी खड़ी रही।

शाहजी लड़की को देख-देख बड़प्पन से हंसे- “राबयां, सुरों में मोती पिरोना छोड़कर किन कामों में आ लगी। शाहनी, ऐसी गुणी लड़की से ऐसे काम न करवाया कर।”(पृष्ठ-114) राबयां पैड़ियों से नीचे उतर गई तो देवरानी से कहा- “जेठ तुम्हारा लड़की के सवैए-कफिए ऐसे मग्न होकर सुनता है ज्यों लड़की के मुंह से फूल झरते हों!” “जिठानी, यही हाल तुम्हारे देवर का! लड़की मरजानी में रोशनाई भी तो बहुत। जो पोथी उठाती है, पढ़ लेती है लाली से ही सुन, ऐसी-ऐसी कहानियां सुनाता कहता है! यही सिरमुन्नी सिखाती है उसे।” “बिन्द्रादइए, देवर से कहना, इसका कहीं साक-संबंध कराने की करे। अब छोटी तो नहीं न! (पृष्ठ-321-322)

“जिंदगीनामा उपन्यास में अनेक पात्र हैं। सबका अपना-अपना महत्व है। उपन्यासकार को नारी-पात्रों के चरित्र चित्रण में विशेष सफलता मिली है। शाहनी, बिनगाइए, चाची, महरी, राबयां, बरकती, लखमी बाम्हणी, फतेह, मिट्ठी, गोमा तथा शरी- ये दस स्त्री पात्र तो व्यक्तित्व-वैविध्य के सबल उदाहरण हैं जो पूरे युगबोध को प्रकट करते हैं। मनोसामाजिक यथार्थ इनमें कूट-कूटकर भरा है। उपर्युक्त उद्धरण इनमें से तीन का त्रिकोण व्यक्त करता है जिनमें शाहनी का उदात्त-भाव है, बिन्दाइए की सजगता है तथा राबयां का विकट आत्म-संघर्ष है। सुंदर, प्रतिभावान और कल्पनाशील राबयां मुग्धावस्था और महत्वकांक्षा की द्वंद्वात्मक स्थिति में अवस्थित व्यक्तित्व है जो दार्शनिक-आध्यात्मिक होते हुए भी क्लिष्ट है। ऐसे मनोसामाजिक चरित्र की सफलता में भाष का बहुमूल्य योगदान है जो सुंदर और दार्शनिक वाक्य-गठन का सौष्ठव ‘साध-संतनी’ के रूप में राबयां का देखना और ‘मुरीद का अपने सांई को धर लेना’ जैसे वाक्य खंडों में है। सौंदर्य-बोध के प्रमाण मक्खन मुखड़े का धूप में दम्म-दम्म दमकने जैसे वाक्य खंडों में हैं। शाहजी की मनःस्थितियां पारदर्शिता से व्यक्त हुई हैं और उनका नैतिक निराकरण भारतीय संस्कारों की जीवंतता विषय में बहुत कुछ कहता है। कृष्णा सोबती एक ऐसी कथाकार हैं जिनकी एक मौलिक भाषा-शैली है जिसके द्वारा प्रकारांतर से वे अपना उदात्त व्यक्तित्व भी प्रक्षेपिता करने की क्षमता रखती हैं।

इस उपन्यास में पंजाब की सामाजिक संस्कृति के अनेक उदात्त रूप मिलते हैं। 1947 का विभाजन पंजाब के समाज और संस्कृति से पूर्णतः असंबद्ध राजनैतिक हस्तक्षेप था। उपन्यास का ऐतिहासकि-राजनैतिक विमर्श इस संदर्भ में देखा जा सकता है।

उपन्यासकार ने उपन्यास के इस पहले खंड में 1900 से 1916 तक की सभी महत्त्वपूर्ण घटनाओं को लिया है- बंगाल का विभाजन, मुस्लिम लीग का जन्म, प्रथम विश्वयुद्ध के लए जबरन भर्ती, गदर पार्टी का जन्म, लाजपत राय, अजीत सिंह और महात्मा गांधी के प्रभाव, पंजाब का 1901 का किसान-विरोधी भूमि हस्तांतरण कानून, जनतंत्र विरोधी आंतंकी कायदे आदि। स्थानीय इतिहास के विदेशी शासन से दुख-दर्द भी उपन्यास में हैं और ग्रामीण मानस में अवस्थित शैर्य और संघर्ष की अनेक गाथाएं भी। किसी भी उपन्यासकार के लिए इन पर सामग्री जुटाना अपरिहार्य था। जिंदगीनामा का ऐतिहासिक-राजनैतिक विमर्श सामान्य अपेक्षित लेखन से परे है, उच्चस्तरीय है।

विमर्श के उच्चतर का पहला कारण कथा-विन्यास है। इतिहास की कृतिशीलाता इसमें है तो विभाजन की टीस भ! फलतः इतिहास-विमर्श जनमानस पर पड़ी ऐतिहासिक घटनओं की अनुभूमियों के रूप में शब्द-बद्ध हुआ है। दूसरा कारण साहित्यिकता के स्तर का है, मनोभाषिकी का है। नीचे दिये गए उपन्यास के कुछ अंशों द्वारा हम इन्हें ठी से समझ सकते हैं: एक आवाज पर/उस खड़े हाने वालों की/कहां गुम हो गई?/ क्या कहर भरी छातियों में?…. अब हमें बिछुड़ जाना है/अपनी धरती से/अपनी मां से/मां की मां से/और हम सबकी मां से… अलविदा/अपने पुरखों की याद को/जिनके खून और/दूध से बने बच्चे/अब फिर कभी इस धूल मे/इस मिट्टी में/कभी नहीं खेलेंगे/इन जिन्दा रूखों की छोह में/जहां दूर तक/जमे थे/इनके छांहदार कबीले ।(पृष्ठ 14-15) काशीशह ने बड़े भाई की बाज उजागर की- “कुछ तरकीब और तरतीबवाला मामला जान पड़ता है। सरकार ने कांग्नेस को पहले आगे बढ़-बढ़ थापियां दी, शाबशियां दीं, उसके जल्से जमाए-सजाय, फिर मुसलमान भाइयों की चोक दी कि मियां लोगों, तुम भी मैदान में आ लगो।” (पृष्ठ-184) दीन मुहम्मद ने झट डोर पकड़ ली- “शाह साहिब, अपने इन्कलाबियों के क्या हाल-चाल! बड़े धूम-धड़क्के इनके आजकल।”

“बल्ले-बल्ले ओ शेरा! वह, मौत भी क्या सजी! सुच्ची पाक शहीदी हो गई के । (पृष्ठ-247) मीरांबक्श बोले-“शाहजी भला कौन से टब्बर का है यह वकील? गुजरात जेहलाम में भ्ज्ञी हैं तो सही गांधियों के घर-टब्बर!” शाहजी ने सिर हिलाया-“नहीं मीरांबक्शजी, यह बन्दा अपने गुजरात का नहीं। एक दूसरा बम्बईवाला गुजरात है। मुशी इल्मदीन ने सिर लिया “जी, बोहरों और खोजों क वतन पड़ता है उार! व्हीं के हांगे वकील साहिब (पृष्ठ-363-364) उपन्यास के ये उद्धरण ऐतिहासकि संदभों की मनोसामाजिक तहें खोलते हैं। इनसे गुजरने का पाठकीय अनुभव जितना यथार्थोन्मुख है, उतना ही साहित्यिकता से भरा! शब्द पंजाब की मिट्टी से निखरकर निकले हैं, वाक्यों के विन्यास में देशज और तद्भव स्रोतों का अनोखा मेल है तथा वाक्यों से बने कथोपकथनों की संरचना समाजशास्त्र और मनोविज्ञान के प्रति सजग है।

विमर्श को प्राणवान रखने के लिए मत-वैविध्य के अनेक पहलू पात्रों द्वारा आए हैं। पहले उद्धरण में संवेदनाओं को उभारतने के लिए काव्यात्मक आरंभी है, दूसरे में विभाजन के जहर की राजनीतिक-कूटनीतिक पहचान, तीसरे में शहादत का गौवरपूर्ण आतमसात। स्थानीय इतिहास और स्वाभिमान से जुड़े ये प्रश्न नियति के बड़े प्रश्न-देश के विभाजन से संलग्न हैं। कथोपकथन के शिल्प की दृष्टि से अंतिम उद्धरण अतिशय सुंदर, सुगठित और मौलिक है। जनमानस पर गांधीजी के व्यक्तित्व का इतिहास–निर्माता के रूप में पड़े प्रभाव का इतना महीन चित्रण अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।

आर्थिक संबंधों पर ‘जिंदगीनामा में बहुत कुछ है, अंततः सामान्य जीवन तो अर्थ -संबंधों से ही टिकता है। उपन्यास में कथा के केन्द्र में हैं शाहजी के आर्थिक संबंध- महाजन के रूप में, व्यापार के काम में, बड़े जमींदार की हैसियत से तथा इन सबसे मिले सामाजिक प्रााव के कारण! कृषक-संस्कृति के त्योहारों से भी ग्रामीण औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की स्थिति पर भी बारीक नजर डाली गई है। ज्यादा महत्त्वपूर्ण जीवन के प्रश्न हैं

“जिंदगीनामा का कालखंड इस शताब्दी के पहले मोड़ पर खुलता है पीछे इतिहासकी बेशुमार तहें। बेशुमार ताकतें। जमीन जो खेतिहर की है और नहीं है, वही जमीन शाहों की नहीं है मगर उनके हाथों में है। जमीन की मालिकी किसकी है? जमीन में खेती कौन करता है? जमीन का मामला कौन भरता है? मुजारे आसामियां। इन्हें जकड़नों में जकड़े हुए शोषण के ये कानूने जो लोगों को लोगों से अलग करते हैं। लोगों को लोगों में विभाजित करते हैं?”(उपन्यास के कवर पेज से)

1947 के विभाजन के आघात के पहले की स्मृति में घटित-संकल्पित यह ग्रामकथा उपन्यास के नायक और शक्तिशाली संयुक्त शाहजी के प्रश्नों की तेज रोशनी मे रखा है। ये प्रश्न व्यक्तिगत और नैतिक ही नहीं, आर्थिक भी हैं। आर्थिक प्रश्नों क व्याप्ति को इन उद्धरणों द्वारा समझा जा सकता है: दिलों में जीन की रीझं जगा बैसाखी के ढोल ऐसे गूंजने लगे ज्यों हाथ-पैरों में ताजे खून लहराने लगे हों।…. रोटी पर शक्कर-घी रखकर मां बीबी ने तो मेहर से ढढोली की “किस-किसकी खिलाओगी खाला! सरे पिंड को ही खाला और फूफी बनी बैठी हो!” ।

“सुन भान्जे, आज मैं लाड़-प्यार का नहीं, मेहनत मशक्कत का खिलाती हूं। रब्ब राक्खा तुम्हारी मेहनतों का। भर-भर काटो फसलें और ढेर लगाओं ऊंचे।”(पृष्ठ-86) इसी प्रकार “राबयां तो हमें चेगी, पर री मर गई हुस्ना सोहणी भी तो जी भर कर! मुखड़ा देख जनानी की आंख नही झपकती, मरदों की कौन कहे! टलिया धियों की शादी-ब्याह कर सुरखरू हो तो भला!” “सुनते है, करजाई होकर बैठा है।” “बन्दा तुम सा भी सीधा न हो जिठानी! अलिया अकेला करजाई है क्या! शाहों की लिखत में घरों-के-घर बंधे हैं। शाहूकारा ठहरा! छादे ने लिया तो पौत्र और पड़पौत्र तक चलती रहती है देनदारी। (पृष्ठ-278-79)

समग्र रूप में देखते हैं तो पाते हैं कि “जिंदगीनामा’ (1979) का पहला खंड (जिन्दा रूख : 1900 -1916) अपने वांधित दायित्वों की पूति पूरी ऊर्जा और संवेदना से करता है। इसमें कथ्य और शिल्प के भी नए प्रतिमान स्थापित हुए हैं, जिनमें सबसे सशक्त है एक अत्यंत मौलिक और लक्षणीय कथा भाषा की निष्पति! इतिहास को गहराई से समझा गया है तथा इसके समस्त सामाजिक, मनोवैज्ञानिक तथा नीतिशास्त्रीय सरोकार सामने आए हैं।

(डॉ. कविता राजन दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में हिंदी की प्राध्यापिका हैं।)



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