चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के 100 वर्ष और भारत


नेपाल में भी माओवादी पार्टी या तो सत्ता में है अथवा अथवा सत्ता बनाने वालों में है। पूरी दुनिया यह मान रही है कि अमेरिका और चीन जैसे दो महादेशों के बीच खाई बढ़ती जा रही है। अमेरिका के अंदर उसकी  पूंजीवादी नीतियों से वहां की जनता में भारी असंतोष है और वह उसे खोखला कर रही है।


राम मोहन राय
मत-विमत Updated On :

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के 100 वर्ष पूरे होने पर न केवल उनके देश में अपितु पूरी दुनिया में जश्न मनाएं जा रहे हैं। हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका ने तो इस स्मृति में सोने व चांदी का सिक्का भी जारी किया है। चीन हमारा पड़ोसी देश है। हमारी और उनकी संस्कृति और सभ्यता भी प्राचीन है व एक दूसरे से मिलती जुलती है। बौद्ध धर्म की व्यापकता ने इसे नए आयाम दिए हैं।

सैकड़ों वर्ष पूर्व चीन यात्री हुए सांग और फाहियान ने इसी धर्म को जानने-समझने के लिए अपनी विशाल यात्राएं की थी तथा उनके रोचक लेखन ने भारत में बौद्ध धर्म को नई पहचान दी। चीन में आज भी यह मान्यता है कि यदि कोई चीनी व्यक्ति अपने पूरे जीवन काल मे कोई पाप नहीं करता तथा मात्र पुण्य ही अर्जित करता है उसका अगला जन्म बुद्ध भूमि भारत में होता है।

भारत का स्वतंत्रता आंदोलन भी अंतरराष्ट्रीय साम्रज्यवाद विरोधी संघर्ष का एक हिस्सा था। महात्मा गांधी के शब्दों में भारत को आज़ादी इसलिए चाहिए ताकि वह दुनिया के सभी लोगों की सेवा कर सके। खुद पं. जवाहरलाल नेहरू ने भी इसी विचार को बढ़ाते हुए कहा था कि हमारी आज़ादी की लड़ाई हम अकेले ही नहीं अपितु विश्व का हर कमजोर व्यक्ति लड़ रहा है।

चीन में सामंतशाही के खिलाफ किसान संघर्ष में भारतीय जनता व नेता भी आंख मूंदे नहीं थे बल्कि उन्होंने अपनी हर एकजुटता को उसके प्रति व्यक्त किया। सन 1948 में कम्युनिस्ट पार्टी के नेता माओत्से तुंग के नेतृत्व में समाजवादी क्रांति हुई। उसके बाद तो वहाँ के हालात ही बदल गए। एक कृषि प्रधान ग्रामीण चीन एक विकसित औद्योगिक देश के रूप में उभरा।

सन 1960 के दशक में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व तथा तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच संघर्ष की कथित वैचारिक शुरुआत अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट सम्मेलन के दौरान ही हो गई थी। चीन ने सोवियत संघ की पार्टी को संशोधन वादी कहा और यह आरोप लगाए कि यह पार्टी मार्क्सवाद और लेनिन के आदर्शों से भटक गई है जबकि सोवियत संघ की पार्टी ने चीनी पार्टी को विस्तार वादी कहकर लांछित किया। और इस तरह से दुनिया भर के मेहनतकशों एक हो जाओ का नारा देने वाले साम्यवादी आपस मे ही एक न रह सके।

भारत जो सोवियत संघ का एक बड़ा सहयोगी मित्र रहा है तथा चीन को अपने एक पड़ोसी मित्र के रूप में देख रहा था। वह इस संघर्ष के बीच फंसा हुआ था। इसके बावजूद भी भारतीय नेताओं ने एक अच्छे पड़ोसी के नाते सदा चीन के साथ मैत्री संबंधों को प्रोत्साहन दिया। तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई भारत के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू दोनों ने अनेक बार एक दूसरे के देशों की यात्रा की और उन्होंने मिलकर विश्व में शांति को निर्देशित करने के लिए पंचशील सिद्धान्त को निरूपित किया।

हिंदी- चीनी भाई -भाई ऐसा स्वर था जो भारत के लगभग हर गांव, कस्बे और शहर में लगाया जाने लगा, परंत यह सब मटियामेट हो गया जब सन 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया। इसमें विवाद हो सकता है कि हमला की शुरुआत किसने की पर इस युद्ध से भारत की जन आत्मा को बेहद आघात लगा और उसके बाद तो लगातार संबंध बिगड़ते ही गए।

सोवियत संघ और चीन की पार्टियों के बीच दूरी ने भारत में भी कम्युनिस्ट आंदोलन को विखंडित कर दिया। सन 1962 के बाद से लगातार ही दोनों देशों की सरकारों ने बातचीत के माध्यम से भूमि समस्या हल करने के हरदम प्रयास किए परंतु उसमें कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई।

अभी हाल में ही प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी चीन गए तथा वहीं के राष्ट्रपति ली शी भी भारत आए परंतु यह खटास भरी नहीं। बेशक हमारे राजनयिक संबंध बेहतर नहीं है परंतु इसके विपरीत चीन ने अपनी जनता के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए अनेक कीर्तिमान स्थापित किए हैं। उनकी 80 फीसद जनता जो कि गरीबी रेखा से नीचे अपना जीवन व्यतीत कर रही थी उनके जीवन में अद्भुत सुधार आया है और वह लगातार जारी है।

विश्व मार्केट में भी आज चीनी उत्पाद का बोल बाला है। वास्तव में चीन ने अपने जनसंख्या को एक उत्पादक शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसका परिणाम हमारे सामने है। कोई भी ऐसा पड़ोसी देश नहीं जिससे चीन की लड़ाई न हुई हो। युद्ध तो उसने वियतनाम और कंबोडिया से भी लड़े परंतु आज वे दोनों देश उसके प्रबल पक्षधर बनकर खड़े हैं।

नेपाल में भी माओवादी पार्टी या तो सत्ता में है अथवा अथवा सत्ता बनाने वालों में है। पूरी दुनिया यह मान रही है कि अमेरिका और चीन जैसे दो महादेशों के बीच खाई बढ़ती जा रही है। अमेरिका के अंदर उसकी  पूंजीवादी नीतियों से वहां की जनता में भारी असंतोष है और वह उसे खोखला कर रही है।

हाल ही में अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों की वापिसी इस बात का संकेत है की वह अपने सैन्य बलबूते पर ओर अधिक समय तक दुनिया को अपने हाथ में नहीं रख सकेगा। भारत और चीन मिलकर पूरी दुनिया को एक नई दिशा दे सकते हैं। यह वक्त की जरूरत ही नहीं अपितु एक समझदारी भी है। चीन के विकास मॉडल को भारत को समझने की जरूरत है तभी हम इसको चीनी ढंग से नहीं अपितु भारतीय ढंग से लागू करने की तरफ सोच सकते हैं।

(राम मोहन राय सामाजिक कार्यकर्ता और सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं।)