इस साल आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के 100 वर्ष पूरे हो चुके हैं। हर तरफ़ संघ के बड़े-बड़े कार्यक्रम हो रहे हैं। बड़े स्तर पर “पथ संचलन” से लेकर कई गतिविधियों को अंजाम दिया जा रहा है। गोदी मीडिया इसे भारत के लिए “गर्व” का विषय बताते नहीं थक रहा है। लाल किले की प्राचीर से फ़ासीवादी सरकार के प्रमुख मोदी ने भी संघ के तारीफ़ में क़सीदे पढ़े तथा आरएसएस के 100 साल के इतिहास को भारत के इतिहास का “स्वर्णिम पृष्ठ” क़रार दिया। लाल किले से संघ के “सेवा”, “समर्पण”, “संगठन” तथा “अनुशासन” का उल्लेख किया गया। राष्ट्र निर्माण में संघ के योगदान तथा संघ का आज़ादी के आन्दोलन में भूमिका को मोदी ने अन्य कई कार्यक्रमों में रेखांकित किया।
संघ भी ख़ुद को राष्ट्रवादी, देशभक्त, तथा संस्कृति रक्षक बताता रहा है। आज देश में कोई भी व्यक्ति भाजपा व संघ परिवार के हिन्दुत्व की राजनीति का विरोध करता है तो उसे देशद्रोही क़रार दे दिया जाता है। संघ की नज़र में जो भी व्यक्ति छात्रों, मज़दूरों, दलितों, आदिवासियों व अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात करता है वह देशद्रोही है। हर किसी को देशद्रोही क़रार देने और देशभक्ति का सर्टिफ़िकेट बांटने वाले संघ की असलियत और 100 वर्षों के इसके इतिहास को देखें तो इनका असली चाल-चेहरा चरित्र हमारे सामने आ जाता है।
आजादी की लड़ाई और आरएसएस का क्या सम्बन्ध है? कुछ नहीं! आइए देखते हैं। 1925 में विजयदशमी के दिन संघ की स्थापना होती है। अपनी स्थापना से लेकर 1947 तक संघ ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ किसी लड़ाई में कोई हिस्सा नहीं लिया। इतना ही नहीं अंग्रेज़ों को कई माफ़ीनामे भी लिखे और अंग्रेज़ी हुकूमत के प्रति वफ़ादार रहते हुए किसी भी आन्दोलन में शामिल नहीं होने का वादा तक किया। इसके साथ ही जो नौजवान आज़ादी की लड़ाई में शामिल होना चाहते थे उन्हें शामिल होने से भी रोका। इस बात की पुष्टि के लिए हम कुछ उदाहरण देख सकते हैं।
1. गोलवलकर ने लिखा था: “नित्य कर्म में सदैव संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का एक और भी कारण है। समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थितियों के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है। सन् 1942 में भी ऐसी उथल-पुथल हुई थी। उसके पहले सन् 1930-31 में भी आन्दोलन हुआ था। उस समय कई लोग डॉक्टर जी (हेडगेवार) के पास गये थे। इस शिष्टमंडल ने डॉक्टर जी से अनुरोध किया कि आन्दोलन से स्वातन्त्र्य मिल जायेगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए। उस समय एक सज्जन ने जब डॉक्टर जी से कहा कि वह जेल जाने के लिए तैयार हैं तो डॉक्टर जी ने कहा-ज़रूर जाओ लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलायेंगे? उस सज्जन ने बताया 2 साल तक केवल परिवार चलाने के लिए नहीं आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है तो डॉक्टर जी ने कहा आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब 2 साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलें। घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गये न संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले।”
(श्री गुरु जी समग्र दर्शन, खण्ड 4 पृष्ठ 39- 40, भारतीय विचार साधना, नागपुर 1981)
2. “1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आन्दोलन था। उस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया, परन्तु संघ के स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल चल रही थी। संघ अकर्मण्य लोगों की संस्था है। इनकी बातों में कुछ अर्थ नहीं। ऐसा केवल बाहर के लोगों ने नहीं कहा, अपने स्वयंसेवकों ने भी कहा। वह बड़े रुष्ट हुए।”
(श्री गुरु जी,समग्र दर्शन खण्ड 4, पृष्ठ-40, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)
आज़ादी के आन्दोलन में भाग न लेने के साथ-साथ हमारे शहीदों की क़ुर्बानी का भी संघ ने मज़ाक उड़ाया है। भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, अशफ़ाकउल्ला खाँ, रामप्रसाद बिस्मिल की क़ुर्बानी जहाँ देश के हर व्यक्ति के लिए देशभक्ति का एक आदर्श है, उसके बारे में गोलवलकर के विचार निम्नलिखित थे –
1. “हमारी भारतीय संस्कृति को छोड़कर अन्य सब संस्कृतियों ने ऐसे बलिदान की उपासना की है तथा उसे आदर्श माना है और ऐसे सब बलिदानों को राष्ट्र नायक के रूप में स्वीकार किया है। परन्तु हमने भारतीय परम्परा में इस प्रकार के बलिदान को सर्वोच्च आदर्श नहीं माना।” (गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ 280- 281)
2. “निस्सन्देह ऐसे व्यक्ति जो अपने आप को बलिदान कर देते हैं श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और उनका जीवन दर्शन पौरुषपूर्ण है। सर्वसाधारण व्यक्तियों से जो चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत और अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊँचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श के रूप में नहीं रखा है। हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिन्दु जिसकी मनुष्य आकांक्षा करें नहीं माना क्योंकि वह अन्ततः अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गम्भीर त्रुटि थी।” (एमएस गोलवलकर, विचार नवनीत, जयपुर 1988 पृष्ठ 281)
इसके साथ ही 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में संघ के प्रमुख आदर्श पुरूषों में से एक अटल बिहारी वाजपेयी ने तो क्रान्तिकारियों के ख़िलाफ़ मुखबिरी तक कर डाली थी। आज़ादी की लड़ाई में भाग न लेने, माफ़ीनामे लिखने, मुखबिरी करने के अपने इतिहास के साथ-साथ संघ के नाम एक और कारनामा जुड़ा हुआ है वह है देश के विभाजन में संघ की भूमिका।
जिस द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के लिए जिन्ना और मुस्लिम लीग को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है, उसकी हिमायत हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हमेशा ही की थी। उनके नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने स्वयं मुखर शब्दों में दो-राष्ट्र सिद्धान्त का समर्थन किया था और अन्य कई नेताओं ने भी ऐसा ही किया था। इसके साथ ही संघ का ब्रिटिश शासकों, जर्मनी के नाज़ियों, इटली के फ़ासीवादियों से सम्बन्ध काफ़ी मधुर थे।
संघ की स्थापना में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले व्यक्ति मुंजे ने इटली में मुसोलिनी से मुलाक़ात की और उसके फ़ासीवादी संगठन से काफ़ी प्रभावित हुए। भारत में भी उसी आधार पर एक संगठन निर्माण की योजना बनायी। संघ की वर्दी से लेकर पूरी की पूरी विचारधारा इटली के फ़ासीवादियों से ली हुई है। संघ के फलने-फूलने में अंग्रेज़ों ने भी काफ़ी मदद पहुँचाई।
इतना ही नहीं हिटलर द्वारा जर्मनी में यहूदियों के क़त्लेआम को पूरी दुनिया बार-बार अपराध मानती है लेकिन संघ ने खुले तौर पर उसकी प्रशंसा की है। इसके साथ ही वे भारत में अल्पसंख्यकों के साथ वही बर्ताव करने की वक़ालत भी करते हैं। आज़ादी की लड़ाई में संघ की भूमिका संघ के लिए वह काला अध्याय है जिसे साफ़ करने के लिए आज फ़ासीवादी मोदी सरकार लगातार पाठ्यक्रमों में बदलाव कर रही है। इतिहास का मिथ्याकरण और विकृतिकरण किया जा रहा है। मिथकों को इतिहास बनाया जा रहा है। हालाँकि तमाम कोशिशों के बावजूद संघ अपने काले इतिहास को नहीं मिटा सकता है।
संघ ख़ुद को हिन्दू संस्कृति का रक्षक बताता है। इसके साथ ही वह मनुस्मृति को जायज़ भी ठहराता है। हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि मनुस्मृति उन पुस्तकों में प्रमुख है जिनमें ब्राह्मणवाद को वैधता प्रदान की गयी है। इसके साथ ही दलितों व स्त्रियों के संबंध में उक्त पुस्तक में बहुत ही आपत्तिजनक बातें लिखी गयी है। शूद्रों व दलितों के लिए ऊपर के तीन वर्णों की सेवा करना ही प्रमुख काम बताया गया है तथा कोई शूद्र द्विज का कठोर वाणी से अपमान करे तो उसकी जीभ काट लेने की बात कही गयी है।
स्त्रियों के सम्बन्ध में पुरुषों पर स्त्रियों की निर्भरता तथा कई तरह की पाबंदियों की बात को जायज़ ठहराया गया है। इतना ही नहीं भारत जैसे वैविध्यपूर्ण देश में “एक हिन्दू संस्कृति” की बात करने वाले संघ की असलियत यह है कि उनकी संस्कृति है साम्प्रदायिकता फैलाना, दंगे करना और फूट डालना। जैसा कि प्रेमचन्द ने कहा है-“साम्प्रदायिकता हमेशा संस्कृति का खोल ओढ़ कर आती है।” संघ भी यही काम करता है।
आज़ादी के बाद गाँधी हत्या, बाबरी मस्जिद विध्वंस, रथ यात्रा, गुजरात दंगे, मुज़फ्फ़रनगर दंगे, मालेगाँव बम काण्ड, समझौता एक्सप्रेस में हुए विस्फोट, अजमेर शरीफ़ दरगाह काण्ड, दिल्ली में जामा मस्जिद काण्ड आदि में संघ के लोगों को लिप्त पाया गया। गुजरात में 2002 में हुए मुसलमान के नरसंहार के स्टिंग ऑपरेशन को तहलका ने 2007 में सबके सामने रखा जिसके द्वारा इस नरसंहार में यह सच्चाई सामने आयी कि विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल ने सक्रियता के साथ इस घटना को अंजाम दिया था। इन सभी मसलों में या तो कार्रवाई ही नहीं हुई, या उचित और उपयुक्त कार्रवाई नहीं हुई।
2014 के बाद से तो पूरे देश में इनकी असलियत और नंगे रूप में सामने आ चुकी है। मॉब लिंचिंग से लेकर “लव-जिहाद”, “लैंड-जिहाद”, “मुस्लिम आतंकवाद” का झूठे प्रचार और मन्दिर-मस्जिद, हिन्दू-मुसलमान, हिजाब विवाद आदि नकली मुद्दों पर संघ लोगों को उलझा कर रखने का काम करता है। धार्मिक जुलूस के मौके पर दंगे करवाना और साम्प्रदायिकता फैलाने के कई उदाहरण सामने आ चुके हैं। इनका असली चाल, चेहरा और चरित्र तब और खुलकर सामने आ जाता है जब संघ परिवार के लोग बलात्कारियों को संरक्षण देते हैं तथा उनके समर्थन में तिरंगा यात्रा निकालते हैं।
इतना ही नहीं गुजरात नरसंहार के हत्यारों और बलात्कारियों का संघ परिवार के लोग फूल-मालाओं के साथ स्वागत करते हैं। संघ का छात्र संगठन एबीवीपी के लोग दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षकों को खुलेआम थप्पड़ मारते हुए तथा अन्य जगहों पर लड़कियों के अश्लील वीडियो बनाते हुए दिखते हैं। बीएचयू में लड़कियों के साथ बलात्कार जैसे मामलों में संघ के लोग लिप्त पाए गये हैं।
आरएसएस के 100 साल के इतिहास के कुछ उद्धरणों को हमने देखा है इसके साथ ही कुछ सवाल भी हमें पूछने चाहिए जिससे उनकी असलियत और बेहतर तरीक़े से हमें समझ में आये जैसे कि-संघ दुनिया का सबसे बड़ा संगठन होने का दावा करता है लेकिन क्या लॉकडाउन के समय पैदल लौट रहे मजदूरों की संघ ने कोई मदद की? देश में बढ़ती महँगाई, बढ़ती बेरोज़गारी तथा ग़रीबी ख़त्म करने के लिए क्या संघ ने कोई आन्दोलन खड़ा किया है? इन सभी सवालों का उत्तर है नहीं।
इसकी वजह साफ़ है कि संघ एक फ़ासीवादी संगठन है जिसका मूल उद्देश्य होता है बड़ी पूँजी की सेवा करना तथा जनता के संगठित प्रतिरोध को तोड़ना। 1925 से अब तक संघ ने केवल यही काम प्रतिबद्धता के साथ किया है। इनके “हिन्दू राष्ट्र” के जुमले में भी हमें नहीं फँसना चाहिए क्योंकि इनका “हिन्दू राष्ट्र” भी अम्बानी-अदानी जैसे धन्नासेठों का “राष्ट्र” है, जिसमें आम ग़रीब मेहनतकशों का काम बस इनकी जमात के मुनाफ़े के लिए खटना है, चाहे वे हिन्दू हों, मुसलमान हों, या कोई और। आम मेहनतकश ग़रीब हिंदू के भी यह सगे नहीं है।
अगर ऐसा होता तो आये दिन दिल्ली, नोएडा ,बम्बई, गुजरात से लेकर आन्ध्र, तेलंगाना, बंगाल आदि की फैक्ट्रियों में जब मज़दूर अपने हक़-अधिकारों के लिए लड़ते हैं तब ये उस संघर्ष में शामिल होने ज़रूर आते। लेकिन संघ ऐसा नहीं करता है। उल्टे वह तो मज़दूरों के संघर्षों को कैसे तोड़ा जाय, कैसे दबाया जाय, इसमें पूँजीपति वर्ग की सहायता करने का काम करता है! इसके साथ ही संघ छात्र-विरोधी, दलित-विरोधी और आदिवासी-विरोधी घटनाओं पर भी न केवल चुप्पी साधे रहता है, बल्कि ख़ुद ऐसी घटनाओं को अंजाम देता और दिलावाता है।
हमने बस कुछ चुनिन्दा घटनाओं का ही ज़िक्र किया है। लेकिन इनकी असलियत को समझने के लिए यह भी पर्याप्त है। हर मेहनतकश के लिए ज़रूरी है वह इनके चाल-चेहरा-चरित्र को पहचाने और इनको अपने सबसे बड़े और सबसे ख़तरनाक दुश्मन के तौर पर पहचाने।
