
कांग्रेस के अंदर पिछले साल वजूद में आया ग्रुप-23 फिर सक्रिय हो गया है। हालांकि ग्रुप-23 में ज्यादातर शामिल नेताओं की राजनीति हाईकमान के इर्द-गिर्द मंडराते हुए की है। उन नेताओं का अपना जनाधार न के बराबर है। पर हाईकमान कल्चर की मेहरबानी से सत्ता में बने रहने वाले इन नेताओं को आज संगठन की याद आ रही है। कमजोर होते संगठन पर चिंता जता रहा है।
इनमें से शामिल कई नेताओं की बदुजबानी यूपीए के शासनकाल में देखने वाली थी। जिसका खामियाजा 2014 में कांग्रेस को भुगतना पड़ा था। जनता के बीच सक्रियता के बजाए दस जनपथ की मेहरबानी से दशकों तक मलाई खाने वाले नेताओं को अब कांग्रेस पार्टी में कमजोर हो गए संगठन की याद आ रही है। लगातार कांग्रेस हाईकमान पर हमला बोल रहे है। उन्हें अब पार्टी में संगठन के चुनाव याद आ रहे है।
अब जरा एक और परिस्थिति पर विचार करें। अगर 2004 से लेकर 2014 के बीच जब कांग्रेस दिल्ली में सत्ता पर काबिज थी, कोई नेता पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र और संगठन की कमजोरी की बा बात करता तो गुलाम नबी आजाद, मनीष तिवारी, आनंद शर्मा और कपिल सिब्बल का क्या स्टैंड होता? ये चारों नेता यूपीए सरकार में मंत्री रहे है। उस समय मंत्री रहते इनके प्रेस कांफ्रेंसों का वीडियो देखेंगे तो इनके अहंकार का स्तर दिख जाएगा।
जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल भाजपा के कई मंत्री आजकल प्रेस कांफ्रेसों में करते है, लगभग वही भाषा मनीष तिवारी औऱ कपिल सिब्बल की यूपीए के कार्यकाल में होती थी। ये वो नेता है जिनका जनता के बीच कोई आधार नहीं है। अपने दम पर ये नेता पंचायत चुनाव भी नहीं जीत सकते है। राज्यसभा में पहुंच सत्ता का सुख लेने की परंपरा के ये नेता है। सच्चाई तो यही है कि गांधी-नेहरू परिवार के नजदीक होने का लाभ ये नेता उठाते रहे। इन्होंने पूरी उम्र दिल्ली की राजनीति की। दिल्ली की सत्ता का आनंद लिया। विद्रोह को लेकर कई चर्चा है। कहा जा रहा है कि गुलाम नबी आजाद को कश्मीर में भाजपा इस्तेमाल करना चाहती है।
ग्रुप 23 में शामिल तमाम नेताओं में सबसे ज्यादा जनाधार वाले नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा है। लेकिन दस सालों तक हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी अब बगावती तेवर में है। हुड्डा का बगावती होना दिलचस्प है। उनकी इच्छा के अनुसार हाल ही में उनके पुत्र दीपेंद्र हुड्डा को कांग्रेस ने राज्यसभा में भेजा। दीपेंद्र हुड्डा 2019 में लोकसभा का चुनाव रोहतक से हार गए थे। खुद भूपेंद्र हुड्डा भी 2019 के लोकसभा चुनाव में सोनीपत से चुनाव हार गए थे। इसके बावजूद हुड्डा बगावती तेवर में लगातार दिख रहे है।
एक कांग्रेसी नेता भजनलाल को किनारे लगाकर कांग्रेस हाईकमान ने भूपेंद्र हुड्डा को हरियाणा का मुख्यमंत्री बनाया था। सोनिया गांधी ने हुड्डा को मुख्यमंत्री बनाकर भजनलाल की भी बगावत झेली थी। दस साल तक हुड्डा हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे। हालांकि जब वे सत्ता का सुख ले रहे थे तो उन्हें पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का कभी ख्याल नहीं रहा। उन्हें संगठन को मजबूत करने की कभी कोशिश नहीं की। उन्होंने हरियाणा कांग्रेस के अंदर अपना एक मजबूत गुट बना लिया, जो दूसरे नेताओं को हाशिए पर लाने का काम करता रहा। लेकिन अब उन्हें कांग्रेस का कमजोर संगठन याद आ रहा है।
हुड्डा को अगर कांग्रेस पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र की कमी नजर आ रही है,संगठन के चुनाव याद आ रहे है तो इसके वाजिब कारण है। दरअसल हरियाणा में उनका विकल्प कांग्रेस हाईकमान तैयार कर रहा है, जिससे हुड्डा नाराज है। उनके विकल्प के तौर पर कांग्रेस हाईकमान ने रणदीप सिंह सुरजेवाला को तैयार करना शुरू कर दिया है।
बीते कुछ सालों में सुरजेवाला ने दिल्ली में अपनी हैसियत बढ़ा ली है। इससे हुड्डा नाराज है। हुड्डा अपने बेटे दीपेंद्र सिह हुड्डा को हरियाणा कांग्रेस का एकछत्र नेता बनाना चाहते है। उन्हें यह पता है कि अगर हरियाणा में कांग्रेस दुबारा सत्ता में आती है, तो उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं मिलेगी। दूसरी तरफ हुड्डा विरोधी शैलजा भी इस समय कांग्रेस संगठन में मजबूत है।
लेकिन हुड्डा के ग्रुप-23 में शामिल होने का एक बड़ा कारण नरेंद्र मोदी की ईडी और सीबीआई भी है। हुड्डा के खिलाफ ईडी औऱ सीबीआई इस समय काफी सक्रिय है। उनके खिलाफ ईडी और सीबीआई ने पंचकूला कोर्ट में चालान पेश कर दिया है। इन परिस्थितियो में कांग्रेस हाईकमान के प्रति उनका विद्रोही तेवर उन्हें नरेंद्र मोदी के कोप से बचा सकता है। मोदी सरकार हुड्डा के प्रति सॉफ्ट हो सकती है।
दरअसल भाजपा की रणनीति को समझने की जरूरत है। भाजपा सत्ता को बनाए रखने के लिए, अपने आप को मजबूत करने के लिए हर तरह का खेल कर सकती है। मध्य प्रदेश में सत्ता हासिल करने के लिए भाजपा ने ज्योतिरादित्य को हथियार बना लिया। कांग्रेस की कमलनाथ सरकार गिर गई। हरियाणा में भाजपा की सरकार जो इस समय किसान आंदोलन के कारण संकट में है, उसे बचाने के लिए भाजपा भूपेंद्र हुड्डा का भी सहयोग ले सकती है।
हुड्डा परिवार को दिल्ली से लेकर हरियाणा में सत्ता में अच्छी भागीदारी भी भाजपा सरकार दे सकती है। इन परिस्थितियों में भूपेद्र हुड्डा अगर कांग्रेस पार्टी के अंदर लोकतंत्र की कमी और कमजोर होते संगठन क बात कर रहे है तो कोई यह आश्चर्य की बात नहीं है। वैसे भी वैचारिक प्रतिबदता अभी किसी भी दल के नेताओं में नहीं है। सत्ता के प्रति प्रतिबदता उनकी प्राथमिकता है।
हालांकि ग्रुप-23 के नेताओं के बगावती तेवरों के बावजूद कांग्रेस हाईकमान इन्हें तव्वजो देने के मूड में नहीं दिख रहा है। कांग्रेस में इस तरह के विद्रोह पहले भी होते रहे है। हालांकि कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र आजादी के बाद धीरे धीरे खत्म हुआ। इसमें कोई दो राय नहीं है। कांग्रेस आजादी के बाद नेहरू-गांधी परिवार के हाथ में चली गई। नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ समय-समय पर विद्रोह हुआ। लेकिन पार्टी इसी परिवार के नियंत्रण में रही।
नरसिंह राव भी कुछ सालों तक गांधी परिवार को साइडलाइन करने में कामयाब रहे। लेकिन बाद में कांग्रेस पार्टी को इसी परिवार की छत्रछाया में आना पड़ा। दरअसल पार्टी मे लोकतंत्र खत्म करने के लिए सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार ही सिर्फ जिम्मेवार है यह कहना गलत होगा। दरअसल राजनीतिक दलों में लोकतंत्र खत्म करने के लिए देश का राजनीतिक माहौल, परिवेश भी जिम्मेवार है। कारपोरेट घरानों ने भी कई पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र समाप्त करवाया है। आज तमाम पार्टियों में परिवारवाद है।
जो समस्या परिवारवाद की आज कांग्रेस में दिख रही है, वे तमाम क्षेत्रीय दलों में खूब दिखती है। कांग्रेस के विद्रोही भी संगठन की चिंता सिर्फ दिखावे के लिए कर रहे है। वास्तव में इन्हें अपने परिवार की चिंता है। हालांकि कांग्रेस को पार्टी के अंदर हुए विद्रोहों से नुकसान भी हुआ है। इसका उदाहरण आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी है। उन्होंने अपने पिता की मौत के बाद कांग्रेस से विद्रोह किया। अपनी पार्टी बनायी और आज आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री भी है।
मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के विद्रोह के कारण कांग्रेस की सरकार चली गई। राजस्थान में सचिन पायलट का विद्रोह हो गया। हालांकि सरकार कांग्रेस की बच गई। लेकिन परिवारवाद और संगठन में लोकतंत्र की कमी की समस्या से अब भाजपा भी जूझ रही है। भाजपा में भी परिवारवाद जमकर हो रहा है। जबकि भाजपा को हमेशा अपने संगठन में आंतरिक लोकतंत्र का गुमान रहा है। पार्टी में हर फैसला लोकतांत्रिक तरीके से लेने की बात भाजपा करती है। लेकिन क्या यह सच्चाई है? बिल्कुल नहीं।
भाजपा भी अब कांग्रेस की तरह ही व्यक्ति की पूजा के तरफ बढ़ रही है। इस समय भाजपा का मतलब नरेंद्र मोदी है, नरेंद्र मोदी का मतलब भाजपा है। मोदी के सामने संगठन और भाजपा नेता सरेंडर कर चुके है। कांग्रेस की सरकारों में मंत्रियों के पास खासे अधिकार थे। वे समय-समय पर अपनी राय रखते थे।
कांग्रेस की सरकार में आंतरिक लोकतंत्र कितना था यह मनीष तिवारी, गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल और आनंद शर्मा जानते है। उन्हें मोदी सरकार के मंत्रियों के अधिकारों की भी जानकारी है। बस मसला इतना है कि सत्ता का आनंद कैसे लिया जाए? शायद कांग्रेस हाईकमान को टारगेट करने का ईनाम ग्रुप-23 के नेताओं को जल्द ही मिले?