
दुनियाभर में लगभग 6500 भाषएं बोली या पढ़ी लिखी जाती हैं। लेकिन अंग्रेज़ी भाषा पूरे विश्व की संपर्क भाषा बनकर विश्वपटल पर उभरी है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि अंग्रेज़ी भाषा ने विदेशी भाषाओं के शब्दों को अपनाकर आत्मसात करने से कभी परहेज़ नहीं किया, बल्कि उन्हें यथासंभव खुले दिल से अपनाकर स्वयं को समृद्ध ही किया। आधार’, ‘अच्छा’ और ‘बापू’ जैसे शब्द न सिर्फ़ ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने अपनाए हैं, बल्कि कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी हिंदी के कई शब्द शामिल किए जा रहे है।
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी की वर्ल्ड इंग्लिश एडीटर’ डेनिका सालाजार के मुताबिक अब तक हिंदी के 900 शब्दों को डिक्शनरी में जगह मिल चुकी है। ऑक्सफोर्ड ने मार्च संस्करण में हिंदी का शब्द ‘चड्डी’ इंग्लिश शब्दों की लिस्ट में शामिल किया है। इसी तरह बापू, सूर्य नमस्कार और अच्छा शब्द भी इस शब्दकोष में जगह बना चुके हैं। 2017 में क़रीब 70 भारतीय शब्द ऑक्सफोर्ड ने शामिल किए, इनमें 33 शब्द हिंदी के थे जिनमें नारी शक्ति और आधार शब्द भी शामिल हैं। अब तक लगभग 900 से ज़्यादा हिंदी शब्दों को पचाकर अंग्रेज़ी भाषा स्वयं को समृद्ध कर चुकी है।
अंग्रेज़ी एक ऐसी भाषा है जो हिंदी ही नहीं बल्कि प्रतिवर्ष लगभग दो हज़ार अन्य विदेशी भाषाओं के शब्दों को भी पचाकर अपने में समाहित कर लेती है। इसी कारण समृद्ध होकर यह भाषा पूरे विश्व में समझी और बोली जाती है। इस प्रकार यह भाषा पूरे विश्व के आपसी संवाद की भाषा बन गई है, जबकि यह भाषा ब्रिटेन की भाषा है जो कि लगभग हमारे देश के हरियाणा राज्य से कुछ ही बड़ा है। इस प्रकार अन्य भाषाओं के शब्दों को अपनाकर अंग्रेज़ी सबकी चहेती और आपसी संवाद की भाषा बन गई है।
किसी भी देश की भाषा का प्रसार और प्रचार इस बात पर भी निर्भर करता है कि इस भौतिक जगत के निर्माण और उसके विकास में उसका क्या और कितना योगदान है ? इस दृष्टि से देखें तो मालूम होगा कि अंग्रेजों और अंग्रेज़ी भाषा का इस भौतिक जगत के नव-निर्माण और उसके विकास में उल्लेखनीय योगदान रहा है। ऐसे में अंग्रेज़ी अगर विश्व में आपसी संपर्क की भाषा बन गई हो तो कैसा आश्चर्य।
जिस देश का भौतिक जगत के निर्माण और विकास में अपेक्षित योगदान नहीं होता उनकी भाषाएं भी प्रायः देर-सवेर लुप्त हो जाती हैं, क्योंकि कालांतर में वे अपनी प्रसंगिता खो देती हैं। इसी कारण हमारे देश की अनेकों भाषाएं लुप्त हो गई हैं या लुप्त होने के कगार पर हैं। संस्कृत और पाली ऐसी ही भारत की कुछ प्राचीन भाषाएं हैं, जो कभी काफी समृद्ध भाषाएं हुआ करती थीं जो आज लगभग लुप्त हो चुकी हैं। इसका अनेकों कारणों में से एक मुख्य कारण यह था कि तत्कालीन शासकवर्ग के चंद विशिष्ट लोगों ने इन भाषाओं का इस्तेमाल आम जनता के कल्याण और समाज के भौतिक उत्थान के लिए न करके संस्कृत को ज़बरन अभिजात्य वर्ग या वर्ग विशेष की भाषा बना दिया था।
इतना ही नहीं उन्होंने कालांतर में दलित-शोषित श्रमिकवर्ग को संस्कृत भाषा और उसके साहित्य के पठन-पाठन और उनके इस्तेमाल पर आमजन को पूर्णरूप से वंचित करके अभिजात्य वर्ग या वर्ग-विशेष की भाषा बना दिया और इतना ही नहीं कालांतर में इन भाषाओं का इस्तेमाल उन्होंने दलित-शोषित श्रमिकवर्ग के शोषण और दमन के लिए ही किया। इसीलिए संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा ज्ञान-विज्ञान से नाता तोड़कर शोषकवर्ग के पंडे-पुजारियों और दरबारी चाटुकारों की भाषा बनकर रह गई। यह कोई अतीत में ही हुआ हो ऐसी बात नहीं है। आज भी यही मानसिकता कुछ संकुचित और कट्टरपंथी मानसिकता के लोग समाज में बहुतायत में मौजूद हैं, जो आज भी संस्कृत भाषा पर एक वर्ग और जाति विशेष का प्रभुत्व क़ायम रखना चाहते हैं।
पिछले दिनों बीएचयू के संस्कृत विद्या-धर्म विज्ञान संकाय में एक मुस्लिम प्रोफ़ेसर फिरोज़ खान की नियुक्ति को लेकर कुछ कट्टरपंथी लोग हंगामा किये। संस्कृत भाषा पर सिर्फ़ अपना और वर्ग और जाति विशेष का प्रभुत्व बताकर ये संकीर्ण और बीमार मानसिकता के लोग मुस्लिम प्रोफ़ेसर की नियुक्ति के ख़िलाफ़ जोरदार आंदोलन छेड़े हुए हैं, और आश्चर्य की बात तो यह है कि यही मानसिक रूप से बीमार और स्वयं को विश्वगुरु कहने वाले लोग संस्कृत भाषा को देववाणी कहते नहीं अघाते और यही लोग संस्कृत का प्रचार और प्रसार करके विश्व की भाषा भी बनाना चाहते हैं। यह कैसे संभव है? यह विरोधाभासपूर्ण रवैया नहीं तो और क्या है?
यही मानसिकता संस्कृत भाषा के पतन का मुख्य कारण बनी। इसी कारण, इस भाषा के जो बचे-खुचे अवशेष आज रह गए हैं, उनका आज न कोई मूल्य ही रह गया है, और न ही कोई उपयोग। आज संस्कृत भाषा का मंत्रोच्चार, पूजा-पाठ और हवन-यज्ञ के इलावा कहीं भी कोई उपयोग नहीं रह गया है। इसी कारण आज संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा विश्व में कहीं भी बोली और पढ़ी-लिखी नहीं जाती है।
एक अनुमान के अनुसार, इस समय दुनिया की 6700 बोली जाने वाली भाषाओं में से 40 फीसद भाषाएं लुप्त होने के कगार पर हैं। भारत भी इसका अपवाद नहीं है। भारत एक बहुभाषी विविधता वाला देश है। यहां लगभग 19,569 मातृभाषाएं बोली जाती हैं। लेकिन तथ्य यह है कि इनमें से 121 भाषाएं ही ऐसी हैं, जिन्हें बोलने वाले 10,000 से अधिक लोग हैं। यह बात दिल्ली में सम्पन्न हुए अंतरराष्ट्रीय आदिवासी भाषा पर्व के उदघाटन के अवसर पर साहित्य अकादमी के सचिव श्री के श्रीनिवास राव ने कही। भारत में विभिन्न भाषाओं के तेजी से लुप्त होने पर उन्होंने ‘पीपुल्स लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया’ के एक सर्वेक्षण के हवाले देते हुए कहा कि इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट बहुत ही चिंताजनक है। इस रिपोर्ट के अनुसार, अगले पचास सालों में भारत में 1.3 बिलियन लोगों द्वारा बोली जा रही भाषाओं में आधे से अधिक भाषाएं लुप्त हो जाएंगी। आखिर ऐसा क्यों है?
दरअसल किसी भी भाषा की समृद्धि और उसका फैलाव इस बात पर निर्भर करता है कि विश्व में मनुष्य के भौतिक उत्थान में उसका योगदान क्या है? पश्चिमी देशों ने खास तौर से इंग्लैंड ने ज्ञान-विज्ञान के माध्यम से विश्व को सुख समृद्धि से भर दिया है। इसीलिए आज अंग्रेज़ी, विज्ञान की प्रमुख भाषाओं में आपना स्थान रखती है। हिंदी कभी भी विज्ञान की भाषा नहीं रही है, क्योंकि विज्ञान के आविष्कारों, अनुसंधानों और खोजों में उसका योगदान नगण्य ही है। इसीलिए अगर आज आप विज्ञान को हिंदी या संस्कृत में पढ़ना और पढ़ाना चाहे तो असंभव नहीं तो कठिन बहुत होगा। अपनी हिंदी भाषा ही विज्ञान को पढ़ने और समझने में बाधा बनकर खड़ी हो जाएगी।
हिंदी में विज्ञान को समझना अत्यंत कठिन होगा। क्यों कठिन होगा? क्योंकि वैज्ञानिक खोजों, आविष्कारों इत्यादि के माध्यम से इन भारतीय भाषाओं और देशों का योगदान नगण्य रहा है। हिंदी और अंग्रेज़ी भाषाओं की शब्दावलियों की मौलिक भिन्नता भी इसमें आड़े आएगी ही। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि इन भाषाओं में तकनीकी या अन्य किसी प्रकार की कोई ख़राबी या कोई दोष है। नहीं, आशय केवल इतना है कि ऐसी भाषाओं का प्रसार अत्यंत सीमित होकर रह जाएगा। ऐसे ही, अगर किसी ब्रिटिश को आध्यात्म सीखना हो तो वह अंग्रेज़ी में कठिन होगा क्योंकि आध्यात्मिक क्षेत्र में उसका योगदान अत्यंत ही सीमित है। इसके लिए आध्यात्म में डूबने के लिए उसे संस्कृत या हिंदी का सहारा लेना ही पड़ेगा।
आध्यात्म में जब गुरु के समक्ष समर्पण की बात आती है तो आध्यात्म में उत्सुक विदेशी हैरान होते हैं, क्योंकि समर्पण की बात उन्हें समझ में नहीं आती क्योंकि समर्पण के संबंध में वे सिर्फ़ इतना ही जानते हैं कि युद्ध के मैदान में हारी हुई फ़ौज विजेता सम्राट या विजेता फ़ौज के समक्ष आत्मसमर्पण करती है । तब उन्हें गुरु के समक्ष समर्पण को समझाना बेहद कठिन हो जाता है। आध्यात्मिक साधना में गति के लिए समर्पण का बहुत महत्व है। गुरु के समक्ष समर्पण किए बग़ैर आध्यात्मिक साधना में प्रगति बेहद कठिन मानी जाती है।
इसी तरह गुरु और शिक्षक भी एक ही बात नहीं है। दोनों के अर्थ और उनकी महत्ता में ज़मीन-आसमान का भेद है, जिसको विदेशियों को समझाना पाना कोई आसान काम नहीं। इसी प्रकार, अगर किसी को ग़ज़ल कहनी हो तो उसे अंग्रेज़ी या अन्य किसी दूसरी या विदेशी भाषा में कहना कठिन होगा। ग़ज़ल उर्दू और फ़ारसी जुबान की देन है, इसीलिए इसको कहने, सीखने और आत्मसात करने के लिए, उर्दू और फ़ारसी भाषा की जानकारी होनी बेहद ज़रूरी होगी क्योंकि ग़ज़ल कहने के लिए उर्दू भाषा के प्रचलित चाल-चलन, मानदंडों, तेवरों और भाव-भंगिमाओं को दूसरी अन्य भाषाओं में भलीभांति अभिव्यक्त कर पाना बेहद कठिन होगा। यूं तो ग़ज़ल हिंदी में भी कही और सुनी जाती है, लेकिन फिर भी काफ़ी कोशिशों और इंतिहाई मशक़्क़तों के बावजूद हिंदी ग़ज़ल में भाषा की रवानी और ग़ज़ल की उन भाव-भंगिमाओं को उकेर पाना बेहद कठिन मालूम पड़ता हैं जिनकी ग़ज़ल को दरकार होती है।
इसी प्रकार, चाय विश्व को चीनी बौद्ध भिक्षुओं की देन है, और चाय शब्द भी मूलतः चीनी भाषा का शब्द है। चाय को भारत में अंग्रेज़ लेकर आए और इसके साथ ही चाय शब्द भी हिंदी भाषा सहित अन्य भाषाओं में स्वयंमेव प्रवेश कर गया। भारत में चाय का कोई चलन नहीं था और चाय को कोई जानता भी न था। इसीलिए चाय जैसा कोई शब्द भी हमारे पास नहीं था। अतः चाय शब्द को हमने ज्यों का त्यों अपनी हिंदी भाषा में समाहित कर लिया। इससे हमारी भाषा कोई दूषित या भ्रष्ट थोड़े ही हो गई बल्कि सकारात्मक रूप से देखे और समझें, तो इससे हिंदी और भी ज़्यादा समृद्ध होकर प्रकट हुई है । चाय कोई विदेशी शब्द है, यह ख़्याल आज शायद ही किसी भारतीय के ज़हन में आता हो । इसी प्रकार, रेल विश्व को ब्रिटेन और यूरोप की देन है और अंग्रेज़ ही रेल को भारत में लेकर आए। रेल के साथ ही रेल शब्द भी सफ़र करता हुआ भारत आ पहुंचा। रेल का अर्थ होता है लौह मार्ग पर किया जाने वाला सफ़र।
हमारे पुराने शास्त्रों में लौह मार्ग पर चलने वाले किसी वाहन का कहीं भी कोई ज़िक्र नहीं है, क्योंकि हमने ऐसे किसी वाहन का आविष्कार कभी किया ही नहीं जो लौह मार्ग पर चलता हो । इसीलिए, हमारी शब्दावली में रेल जैसा कोई शब्द है ही नहीं । काफ़ी मशक़्क़तों के बाद हमने रेल के लिए एक शब्द गढ़ा था- लौहपथगामिनी । लेकिन यह शब्द हिंदी भाषा का मज़ाक उड़ाता हुआ प्रतीत हुआ और काफ़ी समय तक सिर्फ़ हास्य पैदा करने के लिए इसका प्रयोग होता रहा । यह शब्द हिंदी भाषा में खलनायक की तरह प्रकट हुआ और खलनायक की ही तरह ही हिंदी भाषा के पटल से ओझल हो गया, क्योंकि यह शब्द हिंदी भाषा के प्रवाह में अवरोध पैदा करता हुआ प्रतीत हो रहा था ।
हमारे पास गाड़ी जैसा प्राचीन शब्द है क्योंकि हमने गाड़ी बनाई थी, रथ बनाए थे, इसीलिए उनका हमें अनुभव भी है । इसीलिए हमने रेल के साथ गाड़ी शब्द जोड़कर रेलगाड़ी शब्द बना लिया और उसे हिंदी में समाहित कर लिया । यह शब्द ज़्यादा सुखकर और व्यवहारिक मालूम पड़ा और इसीलिए आज हमें पता भी नहीं चलता कि रेलगाड़ी शब्द देशी और अंग्रेज़ी शब्दों को जोड़कर बनाया गया शब्द है । इसका पता तभी चलता है जब हमें भाषा संबंधी कोई विवाद या राजनैतिक बखेड़ा खड़ा करना होता है ।
दूसरी बात, किसी भी भाषा और शब्द की खूबसूरती इस बात में भी निहित होती है कि जो भी कहा जाता है उसे कितने प्रभावशाली ढंग से वह दूसरों को कम्युनिकेट कर पाती है । आपने कुछ कहा और उर्दू के किसी शब्द के इस्तेमाल करने से उसकी खूबसूरती बढ़ती है, और आपकी बात ज़्यादा प्रभावी ढंग से समझी और समझाई जा सकती है, तो आखिर उसे इस्तेमाल करने में हर्ज़ ही क्या हो सकता है ? अगर हमें शहीद और बलिदानी में से कोई शब्द चुनना पड़े तो यक़ीनन हम शहीद शब्द का इस्तेमाल करना पसंद करेंगे क्योंकि यह शब्द ज़्यादा गहराई से आपके भाव और हृदय की बात भाव-भंगिमाओं को अभिव्यक्त करता नज़र आएगा ।
इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि बलिदान कोई कम मूल्य का शब्द है । कहीं दूसरी जगह बलिदान शब्द वह काम करने में समर्थ होगा जो शायद शहीद शब्द न कर पाए । यह तत्कालीन परिस्थितियों की ज़रूरतों और आपके भावों और मानसिक स्थितियों पर निर्भर करेगा कि कौन सा शब्द कब और कहां उपयुक्त रहेगा । दूसरा उदारण लें, हिंदी फिल्म का गीत है –
मेरा जूता है जापानी
ये पतलून इंग्लिशतानी
सर पे लाल टोपी रूसी
फिर भी दिल है हिंदुस्तानी ।
अब आखिरी पंक्ति में दिल की जगह हिंदी का शब्द ‘हृदय’ प्रयोग करके देखें- ‘फिर भी हृदय है हिंदुस्तानी’ अब आप ख़ुद ही महसूस करेंगे कि बात कुछ जम नहीं रही । आप स्वयं महसूस करेंगे कि गीत में अब न सुर-ताल रहा, न यथोचित भाव रहा और न ही भाषा की रवानी ही रही । फिर भी, चूंकि हिंदी हमारी मातृभाषा है, और उससे हमारा भावात्मक लगाव भी है, हिंदी-उर्दू के विवाद में उलझकर हम हृदय शब्द पर ही अड़े रहेंगे तो गीत में मौजूद भाषा की रवानी और काव्य में मौजूद भावात्मक सौंदर्य विलीन हो जाएगा । मेरे विचार में भाषा इतनी महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि भाव, भाव की अभिव्यक्ति और भाषा की रवानी कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है । इससे भाषा में काव्यात्मक सौंदर्य उभरकर प्रकट होता है, जो दिल और दिमाग़ को सुकून देता मालूम होता है ।
अतः यह तत्कालिक परिस्थियों पर निर्भर करेगा कि कहां, कब और कौन सा शब्द आपके भावों को अभिव्यक्त करने में ज़्यादा सक्षम है । ऐसे में, तमाम भाषाई विवाद ग़ैर-ज़रूरी मालूम पड़ेंगे । हिंदी-उर्दू भाषाई विवाद तब ज़रूरी मालूम पड़ेंगे जब आप इंसानी जज़्बातों के ऊपर राजनीतिक और धार्मिक के मसलों को तरज़ीह देते हुए स्वयं को पाएंगे । अन्यथा किसी भी विवाद का पैदा होना नामुमकिन है ।
अतः हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी या किसी अन्य भाषा से संबंधित सवाल गौण हैं और उनको लेकर पैदा किए गए तमाम विवाद भी बेमानी मालूम पड़ते हैं । हां, विवाद ही पैदा करना हो तो बात दूसरी है । मेरे देखे, ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि जो आपने कहना चाहा है, वह भली-भांति दूसरों को संप्रेषित या कम्यूनिकेट हुआ है या नहीं ? उसने दूसरों की हृदयतंत्री को भीतर तक छुआ है या नहीं ? यही तो किसी भी भाषा का मुख्य उद्देश्य भी होता है और इससे उसकी ख़ूबसूरती में इजाफ़ा भी होता है ।
आज ज़रूरत इस बात की है, कि देशी-विदेशी, अपने-पराए जैसे तंग ख्यालात को छोड़कर व्यवहारिक बनें और आवश्यकता के अनुसार हिंदी-उर्दू के शब्दों को बेहिचक अपनाएं और इस्तेमाल करें । इससे दोनों ही भाषाएं समृद्ध होंगी । आखिर दोनों ही भाषाएं अपनी ही भाषाएं हैं । देशी और विदेशी के ख़्यालात दिमाग़ी फ़ितूर के इलावा और कुछ भी नहीं क्योंकि धरती पर अनगिनत सीमाओं के जाल और मज़हबी दीवारें भी कुछ सिरफिरों के दिमाग़ों की खुराफातें भर ही तो हैं वर्ना आदमी तो पूरी पृथ्वी पर अनेकों शारीरिक, लैंगिक और भौगोलिक भिन्नताओं के बावजूद भीतर से लगभग एक जैसा ही मालूम होता है । मुझे तो उर्दू भी उतनी ही प्यारी लगती है, जितनी कि हिंदी । हिंदी और उर्दू बहनें कही और समझी जाती रही हैं । माना कि हिंदी और उर्दू सगी बहनें नहीं हैं लेकिन चचेरी, फुफेरी या ममेरी बहनें होने से क्या बहन होने में कोई बुनियादी फर्क़ पड़ता है, या कोई अड़चन आती है ?
मत भिन्नताएं तो सगे-भाई बहनों में भी खूब मौज़ूद होती हैं, लेकिन क्या इसी वजह से आपस में दुश्मनी पाल लेना कोई समझदारी का काम होगा ? लेकिन यह समझने-समझाने और मानने की बातें हैं, सिर्फ़ कहने भर की नहीं । यहां मुझे एक गीत की ये पंक्तियां याद आती हैं- ‘मानों तो गंगा माँ हूँ, न मानों तो बहता पानी’ यही बात हिंदी और उर्दू के समर्थकों-विरोधियों और उनको बोलने और न बोलने वालों पर भी समान रूप से लागू होती है कि मानों तो ये दोनों ही भाषाएं अपनी ही भाषाएं हैं, और न मानों तो बेगानी और पराई और जो चीज़ पराई और बेगानी मान ली जाती हैं, उससे प्रेम होना बहुत मुश्किल हो जाता है ।
यह स्वीकारोक्ति आपके चित्त की दशा पर निर्भर करती है और आपके ख़्यालों और व्यक्तित्व की खूबसूरती या बदसूरती को भी बखूबी बयां करती है । लेकिन दुर्भाग्य की बात है की हमारे ख़्याल भी हमारे अपने नहीं रह गए हैं, बेहद पराए, विजातीय और शास्त्रीय हो गए हैं । दूसरों से लिए गए हैं, उधार हैं । उनपर कट्टर धार्मिक संस्कारों, धारणाओं, मान्यताओं और प्राचीन सड़ीगली जातीय परंपराओं और मान्यताओं का ख़ुमार चढ़ा हुआ है । यह ख़ुमार हमारे व्यक्तित्व पर घने धुंए की तरह फ़ैल गया है, जिसके कारण हमारा होना खो गया है, हमारी आत्मा तक खो गई है, जिसके कारण हमें सही और ग़लत में फ़र्क़ दिखाई देना बंद हो गया है ।
हम दूसरों के अनुयाई होकर रह गए हैं, और वे हमें भेड़-बकरियों की तरह हांके चले जाते हैं । याद रहे, दूसरों का अनुगमन करना मूर्छा का लक्षण है, और दूसरों का आंख बंद करके अनुगमन करने से ही कट्टरता का जन्म होता है । अपना विवेक और संवेदनशीलता हो तो मज़हबी, जातीय और भाषाई कट्टरता का पैदा होना मुश्किल हो जाता है । इसीलिए इन विजातीय कट्टर मज़हबी और नस्ली ख्यालातों ने इस दोनों खूबसूरत ज़ुबानों के दरमियां दूरियां और नफ़रत की अनेकों दीवारें खड़ी कर दी हैं ।
राजनीतिज्ञों ने भी समय-समय पर अपने राजनीतिक स्वार्थों के कारण दोनों भाषाओं और उनके समर्थकों के बीच अपने-पराये और देशी-विदेशी के भेद खड़े करने में कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं छोड़ी है । मुझे तो कभी भी ऐसा ख़्याल नहीं आता कि कौन सी भाषा देशी है और कौन सी विदेशी । इसीलिए हिंदी उर्दू के संबंध समय-समय पर उठाए जाने वाले भाषाई विवाद निहायत ही ग़ैर-ज़रूरी और बेहूदे मालूम पड़ते हैं । इसीलिए हिंदी और उर्दू जैसी सक्षम और ख़ूबसूरत भाषाओं के संबंध में समय-समय पर साम्प्रदायिक वृत्ति के राजनेताओं द्वारा उठाए जाने वाले भाषाई विवाद कोई बहुत ज़्यादा मायने नहीं रखते । तो फिर अड़चन कहां है ?
(अशोक कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं)