“अभिव्यक्ति की आजादी” बहुत सहज है, हमने इसे उलझा दिया है


अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार भारत में पूरी तरह नहीं है। होता तो शरण मांग रही तस्लीमा नसरीन को बाहर नहीं भेजा गया होता। हिंदू धर्म पर वेंडी डोनिगर की किताब प्रतिबंधित नहीं होती। यहां तो कॉरपोरेट घरानों के खिलाफ भी लिखी किताबों पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। फिल्मों को, साहित्य को, चित्रों को सेंसर कर दिया जाता है। एक कार्टून छापने पर संपादक को जेल में डाल दिया जाता है।



समरेन्द्र सिंह

विचार और व्यक्ति, धर्म और नस्ल और देश और सरकार में अंतर होता है। लोकतंत्र की बेहतरी के लिए ऐसे सभी बुनियादी अंतरों की समझ जरूरी है। जब हम “अभिव्यक्ति की आजादी” की बात करते हैं तो दरअसल हम बिना भय और संकोच के अपना मत रखने के अधिकार की बात कर रहे होते हैं। ये अधिकार लोकतंत्र की बुनियाद है। इसी बुनियाद पर लोकतांत्रिक समाज की इमारत खड़ी होती है। इसी अधिकार के जरिए आप ताकतवर से ताकतवर व्यक्ति और विचारधारा के खिलाफ बेखौफ खड़े होते हैं। इसमें धर्म, पैगंबर और ईश्वर-सभी शामिल हैं। यह आपका हक है और अगर किसी को लगता है कि आपकी बात से उसके नेता, विचारधारा, ईश्वर या धर्म का अपमान हुआ है तो यह उसकी निजी समस्या है। इससे आपका कोई लेना-देना नहीं।

सबसे पहले बात विचार और व्यक्ति के अंतर की। कोई भी व्यक्ति किसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व कर सकता है। लेकिन वह व्यक्ति स्वतंत्र तौर पर अपने आप में विचारधारा नहीं होता। इसलिए आप किसी पर व्यक्तिवादी हमले नहीं कर सकते हैं। मसलन किसी को चोर, हत्यारा और बलात्कारी ठहराने के लिए आपके पास पुख्ता सुबूत होने चाहिए। किसी ने किसी की जमीन हड़प ली है – यह कहने के लिए भी आपके पास सुबूत होने चाहिए। क्योंकि ऐसा कहना व्यक्तिगत हमला होगा और इससे उस व्यक्ति का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। उसकी जिंदगी और उसका मान-सम्मान, स्वाभिमान सबकुछ दांव पर लग सकता है। ऐसा करने का हक संविधान और कानून आपको नहीं देता।

यह बात तब भी लागू होती है जब व्यक्ति इतना ताकतवर हो जाए कि वह सत्ता नियंत्रित करने लगे या फिर सत्ता संघर्ष का ध्रुव बन जाए। तब भी उसके निजी अधिकार निजी ही होते हैं। जो सुरक्षा हमें और आपको है, वह सुरक्षा उसे भी हासिल होती है। लेकिन तब आलोचना का स्पेस भी बन जाता है। जब कोई व्यक्ति किसी विचारधारा का नेतृत्व करने लगता है तो उस विचारधारा से संबंधित सभी लोगों के गुण और अवगुण के प्रति उसकी नैतिक जवाबदेही और जिम्मेदारी बन जाती है। मसलन अगर किसी सरकार का कोई मंत्री चोर निकलता है तो उसमें उस प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी भी बनती है। उस दल की भी जिम्मेदारी बनती है। और यह कहने में कि उसकी सरकार भ्रष्ट है या प्रधानमंत्री निकम्मा है, कोई अपराध नहीं होता। अगर किसी दल का कोई नेता हत्यारा और बलात्कारी निकल जाए और दल उसके खिलाफ कार्रवाई करने में देरी करे या फिर उसका बचाव करे तो यह कहने में कि उस दल ने या फिर उस दल के मुखिया ने एक अपराधी और अपराध को संरक्षण दिया है, कुछ भी गलत नहीं है। यह बात हर तरह के समूह लागू होती है। चाहे उस समूह का प्रारूप सियासी हो, सामाजिक हो या फिर धार्मिक हो।

अब धर्म और नस्ल में अंतर होता है। धर्म एक प्रकार की विचारधारा होती है। इसलिए जब हम किसी धर्म की आलोचना करते हैं तो वह एक विचारधारा की आलोचना है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। नए धर्म की उत्पत्ति उस दौर में मौजूद धर्मों के अनेक तत्वों को नकार कर होती है। ठीक उसी प्रकार हमें भी हक है कि हम वर्तमान धर्मों को सैद्धांतिक आधार पर चुनौती दें। उन्हें जांचे-परखें और अपने विचार रखें। धर्म द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों को ठुकरा दें। उनसे नायकों को खारिज कर दें। यदि कोई ऐसा करता है तो उसे गलत नहीं ठहराया जा सकता। वैचारिक द्वंद और संघर्ष ही मानव सभ्यता के विकास का आधार है। जब हम इस प्रक्रिया को रोकते हैं तो दरअसल हम मानव सभ्यता के विकास को बाधित कर रहे होते हैं। विकास धारा रोकने से बड़ा अपराध कुछ और नहीं होता है।

नस्ल के संदर्भ में यह बात वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध हो चुकी है कि मानव एक ही नस्ल है। हम सभी होमो सेपियंस हैं। हममें रंग और रूप का भेद अलग अलग प्राकृतिक परिस्थितियों की वजह से उत्पन्न हुआ है। यही नहीं एक समान रंग-रूप होने के बावजूद एक क्षेत्र के लोगों की गिनती अलग-अलग नस्ल के तौर पर होती रही है। इस लिहाज से नस्ल एक सामाजिक कंस्ट्रक्ट है। और सामाजिक कंस्ट्रक्ट के आधार पर मानव-मानव में भेद करना, उसे ऊंच-नीच के भाव से देखना, श्रेष्ठता और निम्ननता से भाव से देखना पूरी मानव जाति के खिलाफ, मानवता के खिलाफ एक अपराध है। यह बराबरी के मूल सिद्धांत के विरुद्ध है। इस तरह की किसी भी टिप्पणी या हरकत के पीछे श्रेष्ठता और शुद्धता का अहंकार, नफरत और घृणा का भाव होता है। इसकी तुलना विचारधाराओं के संघर्ष से नहीं की जा सकती है।

ठीक इसी प्रकार देश और सरकार में भी अंतर होता है। देश विश्व का एक ऐसा भौगोलिक बंटवारा है। जिसमें एक क्षेत्र विशेष के लोग खुद के संचालन का तंत्र विकसित करते हैं। चूंकि देश एक मानवीय परिकल्पना है, जिसे मूर्त रूप दिया गया है, लिहाजा उस भौगोलिक सीमा में रहने वाले सभी लोग उस देश की मूल इकाई और उसके स्टेक होल्डर होते हैं। उदाहरण के तौर पर हम अपने ही देश को लें। भारत का हर नागरिक इसकी मूल इकाई है। और 130 करोड़ लोगों में से प्रत्येक व्यक्ति का इस मुल्क पर बराबर का अधिकार है। इसी अधिकार के तहत हमने खुद को संचालित करने के लिए एक संविधान बनाया है और उसी संविधान के तहत हम सरकार चुनते हैं। अपने झगड़े सुलझाते हैं। मतलब सरकार देश को संचालित करने का जरिया मात्र है और यह स्थाई नहीं है। हम इसे हर पांच साल में चुनते हैं। और बहुमत के आधार पर चुनते हैं। लिहाजा 30 प्रतिशत वोट हासिल करके भी चुनी गई सरकार हम सभी का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन प्रतिनिधित्व करने का यह अर्थ कतई नहीं है कि हम सभी उसके फैसलों को चुनौती नहीं दे सकते हैं। हमारा संविधान हर नागरिक को यह हक देता है कि अगर वह उचित समझे तो सरकार के खिलाफ आवाज उठाए, सरकार की आलोचना करे, सत्ता में बैठे लोगों की आलोचना करे, उनके मनमाने फैसलों को तमाम वैधानिक अधिकारों के जरिए चुनौती दे और यदि वह ऐसा करता है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं करता। इसलिए सरकार को देश समझने की भूल नहीं करनी चाहिए।

अभिव्यक्ति की आजादी की सीमाएं इन्हीं से निर्धारित होती हैं। मसलन आपको धर्म और ईश्वर की आलोचना का अधिकार होना चाहिए। भारतीय संदर्भ में यह अधिकार पूरी तरह नहीं है। होता तो शरण मांग रही तस्लीमा नसरीन को बाहर नहीं भेजा गया होता। हिंदू धर्म पर वेंडी डोनिगर की किताब प्रतिबंधित नहीं होती। यहां तो कॉरपोरेट घरानों के खिलाफ भी लिखी किताबों पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। फिल्मों को, साहित्य को, चित्रों को सेंसर कर दिया जाता है। एक कार्टून छापने पर संपादक को जेल में डाल दिया जाता है। दूसरे धर्मों को छोड़िए कोई अपने धर्म के बारे में भी खुल कर बोल नहीं सकता।

यही नहीं हमारे यहां सरकार को और सत्ताधारी दल के नेता को ही देश समझने की परंपरा रही है। आप उसके खिलाफ भी खुलकर लिख नहीं सकते। फिलहाल तो किसी सूरत में नहीं लिख सकते। अगर लिखने का हौसला जुटा लेते हैं तो आपको सत्ता तंत्र तमाम तरह के हथकंडे अपना कर परेशान करता है। सत्ता में बैठे लोगों के एक इशारे पर उनके गुर्गे आपको मानसिक यंत्रणा देने लगते हैं। गालियां देना शुरू करते हैं। कभी कभी तो हत्या भी कर देते हैं। और ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। इसका लंबा इतिहास रहा है। बस अंतर यह है कि अब ज्यादा हो रहा है। लगता है कि बर्दाश्त की सारी हदें पार हो रही हैं। इस दौर में पत्रकार जितना असुरक्षित है, बीते 25 साल में उतना असुरक्षित पहले कभी नहीं रहा। असुरक्षा का यह अहसास दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। इसे बढ़ाने में वो सभी दल और वो सभी नेता शामिल हैं जो लोकतांत्रिक होने का दावा करते हैं।

इसलिए हमारे पास दो ही विकल्प हैं। या तो हम चुप रहें। या फिर आम आदमी के इस अधिकार में सेंधमारी की हर कोशिश का खुलकर विरोध करें। विरोध नहीं करेंगे तो जो थोड़ा सा स्पेस अभी बचा है, आने वाले समय में वह भी नहीं बचेगा।