अमेरिकी सैनिकों की वापसी का फैसला, आतंकवाद से अपने भरोसे लड़ेंगे अफगानिस्तान-सोमालिया

सोमालिया और अफगानिस्तान जैसे देशों में इराक के अनुभव से डर पैदा हो गया है। इराक में अमेरिकी सैनिकों की संख्या घटते ही इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों ने पैर मजबूत कर लिए थे। एक समय में तो उतरी इराक पर इस्लामिक स्टेट का कब्जा हो गया था। मोसुल जैसे शहर पर इस्लामिक स्टेट का राज हो गया था।

अफगानिस्तान से लेकर सोमालिया, इन मुल्कों को अमेरिका इनके हाल पर छोड़ने को तैयार हो गया है। पहले अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की कटौती का फैसला डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन ने लिया था। अब सोमालिया से अमेरिकी सैनिकों की वापसी का फैसला ट्रंप प्रशासन ने लिया है। उधऱ तालिबान और अफगान सरकार के बीच वार्ता अधर में है। जनवरी में फिर वार्ता शुरू होगी। लेकिन अभी तक हुई वार्ता से कोई अच्छे संकेत नहीं है। क्योंकि तालिबान की सोच में कोई बदलाव नहीं है।

पाकिस्तान अपने खेल में लगा हुआ है। सवाल यही उठ रहा है कि अगर तालिबान और अफगान सरकार के बीच शांति समझौता हो भी जाता है कि तो अफगान नागरिकों को क्या मिलेगा? वैसे तीन दौर की हुई बातचीत के बाद भी दोनों पक्षों के बीच विश्वास में भारी कमी है। क्योंकि अहम सवाल महिलाओं के अधिकारों को लेकर है।

सोमालिया में सेना की वापसी के फैसले की घोषणा के बाद आतंकी गुटों के हौसले बुलंद है। वहीं अफगानिस्तान में फिलहाल शांति वार्ता में शामिल लोग तीन सप्ताह के विश्राम पर चले गए है। विश्राम के दौरान दोनों पक्ष आत्ममंथन करेंगे। दोहा में अभी तक हुई बातचीत में शामिल अफगान सरकार के प्रतिनिधियों को अभी तक निराशा ही हाथ लगी है। वैसे काफी मुश्किल से दोनों पक्षों ने शांति प्रक्रिया की आचार संहिता तैयार की।

अफगान सरकार की तरफ से बातचीत में शामिल वरिष्ठ प्रतिनिधि मासूम स्तेनकजई की जुबान से निकले शब्द शांति वार्ता को लेकर आशंका पैदा करते है। स्तेनकजई के अनुसार शांति वार्ता के सामने बड़ी चुनौतियां है। आने वाले समय में अफगानिस्तान में हिंसा बढेगी। स्तेनकजई कहते है कि शांति वार्ता का मतलब सिर्फ युद खत्म होना नहीं है। शांति वार्ता का मतलब है कि अफगान नागरिकों को शांति वार्ता से क्या हासिल होगा? अफगान महिलांओं को शांति वार्ता से क्या अधिकार हासिल होगा?

अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ घनी की पत्नी रूला घनी तो तालिबान की सोच पर अभी भी सवाल कर रही है। रूला घनी के अनुसार तालिबान को गर्वनेंस की जानकारी तक नहीं है। तालिबान शासन चलाना नहीं जानता है। तालिबान की सोच आज भी रूढ़िवादी है। वे महिलाओं को अधिकार देने को राजी नहीं है। वैसे में तालिबान से बातचीत कैसे सफल होगी?

तालिबान के साथ हो रही बैठक में भाग ले रही अफगान महिला फातिमा गैलानी शांति वार्ता के एजेंडे पर बातचीत करते हुए कहती है कि शांति तो सारे चाहते है। पर शांति का मतलब सिर्फ युध से मुक्ति नहीं है। अफगानिस्तान में शांति का मतलब महिलाओं को भविष्य में मिलने वाली सुरक्षा भी है। महिलाओं को इस शांति वार्ता से क्या मिलेगा यह अहम सवाल है। क्या उन्हें वे सारे अधिकार मिलेंगे जो दूसरे इस्लामिक देशों में महिलाओं को मिले है।

अफगान महिलाएं अफगानिस्तान में जो अधिकार वर्तमान में हासिल कर चुकी है, क्या उसे तालिबान स्वीकार करेगा ? शांति वार्ता तो सफल तभी होगी जब महिलाओं को राजनीति करने का अधिकार देने पर तालिबान राजी होगा। महिलाओं को पढ़ने का अधिकार देने पर तालिबान राजी होगा। महिलाओं को काम करने का अधिकार देने पर तालिबान राजी हो जाएगा। महिलाओं को काम के स्थल पर जाने का अधिकार मिलेगा। ये अधिकार वर्तमान अफगान सरकार ने महिलाओं को दे रखे है।

अमेरिका की प्राथमिकता इस समय वैश्विक आतंकवाद की जिम्मेवारी से पीछे हटना है। अमेरिका क्षेत्रीय शक्तियों को वैश्विक आतंकवाद से निपटने की जिम्मवारी देना चाहता है। अमेरिका अपने खर्च को कम करना चाहता है। अमेरिका अफगानिस्तान की समस्या का राजनीतिक सामाधान कतई नहीं चाहता है। इस समय अमेरिकी प्रशासन की प्राथमिकता अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी है।

डोनाल्ड ट्रंप चुनाव हार चुके है। लेकिन वे जनवरी 2021 तक अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या 2500 तक सीमित करना चाहते है। जबकि वो जानते है कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी होते ही काबुल पर तालिबान हावी हो जाएगा। जो बाइडेन जनवरी 2021 में पदभार ग्रहण करेंगे। उनकी अफगान नीति पर क्या होगी इस पर अंदाज ही लगाया जा सकता है। अफगान नेता फिलहाल जो बाइडेन की ताजपोशी का इंतजार कर रहे है।

सच्चाई तो यह है कि चुनावी वर्ष में अमेरिकी जनता के बीच वाहवाही लूटने के लिए डोनाल्ड ट्रंप ने तालिबान और अफगान सरकार को जबरजस्ती बातचीत के मेज पर लाकर बिठाया है। हालांकि ट्रंप फिर भी चुनाव हार गए। दरअसल ट्रंप चुनाव से पहले अफगान शांति वार्ता को सफल बनाना चाहते थे। वे शांति का मसीहा बनना चाहते थे। पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों जार्ज बुश और बराक ओबामा से अपना कद उंचा करना चाहते थे। लेकिन इसमें वो सफल नहीं हो पाए।

दरअसल ट्रंप के फैसले से अफगानिस्तान में अगर तालिबान मजबूत होगा तो सोमालिया में अलकायदा का फ्रेंचाइजी ग्रुप अल-शबाब मजबूत होगा। अल-शबाब तो कई अफ्रीकी देशों का सरदर्द है। अमेरिकी सैनिकों की सोमालिया में उपस्थिति से अल शबाब का प्रभाव अफ्रीकी देशों में कम हुआ। अमेरिका ने अल-शबाब से लड़ने के लिए सोमालिया को स्पेशल फोर्स तैयार करने में मदद की।

सोमालिया से अमेरिकी सैनिकों के वापसी के फैसले से कई अफ्रीकी देश हैरान है। अमेरिका ने अफ्रीका के लिए एक अलग सैन्य कमांड बना रखा है। इसलिए ट्रंप का फैसला काफी हैरानी भरा है। हालांकि सोमालिया में अमेरिकी सैनिकों की संख्या 700 के करीब है। लेकिन कम संख्या होने के बावजूद अमेरिकी सैनिकों ने सोमालिया, केन्या समेत कई अफ्रीकी देशों में सक्रिय आतंकी संगठन अल-शबाब को कमजोर किया है।

अल-शबाब अफ्रीका में अल-कायदा का फ्रेंचाइजी आतंकी संगठन है। अल-कायदा की छतरी के नीचे अल-शबाब ने अफ्रीकी देश सोमालिया, नाइजीरिया, यूगांडा और केन्या में कई आतंकी हमले किए है। अल-शबाब से निपटने के लिए अमेरिकी सैनिकों ने सोमलिया के स्पेशल फोर्स ‘दानाब’ को विशेष ट्रेनिंग दी। लगभग 3 हजार सैनिको की संख्या वाला सोमलिया का स्पेशल फोर्स दानाब ने आतंकी संगठन अल-शबाब को सोमालिया में खासा अच्छा जवाब दिया।

ट्रंप का सोमालिया से अमेरिकी सैनिकों की वापसी का फैसला अफ्रीकी देशों में अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट के फ्रेंचाइजी आतंकी गुट प्रसन्न है। हालांकि ट्रंप प्रशासन का तर्क है कि जिबूती में अमेरिकी सैन्य बेस मौजूद है, इसलिए डरने की जरूरत नहीं। अमेरिकी प्रशासन का तर्क है कि सोमालिया से सैनिकों को वापस बुलाकर अमेरिका अपने सैन्य बजट के खर्चों को बचा रहा है।

हालांकि सोमालिया ने फिलहाल चुप्पी साध रखी है। सोमालिया की सरकार भी अफगान सरकार की तर्ज पर व्हाइट हाउस से राष्ट्रपति ट्रंप की विदाई का इंतजार कर रही है। इसलिए सोमालिया सरकार ने ट्रंप के फैसले पर कोई आधिकारिक ब्यान नही दिया है। सोमालिया की सरकार को भी अफगान सरकार की तरह जो बाइडेन से उम्मीद है। सोमालिया को उम्मीद है कि ट्रंप के सैनिकों की वापसी का फैसला बाइडेन बदलेंगे।

दरअसल सोमालिया हो या अफगानिस्तान, ट्रंप के फैसलों से यहां के शासक वर्ग परेशान है। ये शासक वर्ग अंतराष्ट्रीय ताकतों की मदद से अपने मुल्क में आतंकियों के साथ ल़ड़ते रहे है। लेकिन पहले ट्रंप ने अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या 2500 करने के आदेश दिए। अफगान सरकार की इससे मुश्किलें बढ गई। अफगान नेशनल आर्मी अपने बूते पर तालिबान से लड़ने में सक्षम नहीं है। तालिबान के हमले अफगानिस्तान में लगातार बढ़े है।

आम अफगान नागरिकों की परेशानी यह है कि अमेरिकी सैनिकों की अनुपस्थिति में अफगान नेशनल आर्मी कंधार, हेलमंड जैसे तालिबान प्रभाव वाले राज्यों में तालिबान से कैसे निपटेगी? क्योंकि अभी तक तालिबान के साथ होने वासे संघर्ष में अफगान आर्मी को अमेरिकी सैनिक एयर सपोर्ट देते रहे है। अगर अफगान सेना को अमेरिकी सेना का एयर सपोर्ट नहीं मिलता तो कंधार जैसे शहर अबतक तालिबान के कब्जे में होते।

सोमालिया और अफगानिस्तान जैसे देशों में इराक के अनुभव से डर पैदा हो गया है। इराक में अमेरिकी सैनिकों की संख्या घटते ही इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों ने पैर मजबूत कर लिए थे। एक समय में तो उतरी इराक पर इस्लामिक स्टेट का कब्जा हो गया था। मोसुल जैसे शहर पर इस्लामिक स्टेट का राज हो गया था। इराक में आज अमेरिकी सैनिकों की संख्या मात्र 3500 है, इसे जनवरी 2021 तक घटाकर 2500 कर दिया जाएगा।

दरअसल इराक को भी अमेरिका ने आतंक के खिलाफ होने वाली लड़ाई में अकेला छोड़ दिया। इराकी सरकार एक समय में इस्लामिक स्टेट के सामने खासी कमजोर हो गई थी। उतरी इराक के कई इलाकों पर इस्लामिक स्टेट ने कब्जा कर लिया था। अमेरिकी कूटनीति ने इराक को खासा नुकसान पहुंचाया था। वैसे में इस्लामिक स्टेट से निपटने के लिए ईऱान और रूस आगे आए। इन दो देशों ने कई शिया मिलिशिया गुटों के सहयोग से इस्लामिक स्टेट को कमजोर किया। लेकिन आज इराक के बाद फिर ट्रंप के फैसले ने अफगानिस्तान और सोमालिया जैसे गरीब देशों को मुसीबत में डाल दिया है।

 

First Published on: December 24, 2020 8:42 AM
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